पूर्वमीमांसोपदिष्ट अर्थीकरण की प्रक्रिया

महर्षिजैमिनिकृत पूर्वमीमांसा मुझे बहुत कठिन दर्शनशास्त्र लगता है । उदयवीर शास्त्री जी व जगदीश्वरान्नद सरस्वती जी, व थोड़ा शाबर भाष्य पढ़कर भी, मेरी इस शास्त्र में गति नहीं हुई । इसमें प्रमुखरूप से यज्ञों को करने की प्रक्रिया की उलझनों को सुलझाने के सिद्धान्त हैं, मुझे विभिन्न भाष्य पढ़कर ऐसा लगा । फिर मुझे ज्ञात हुआ कि इसमें वाक्यार्थ करने की प्रक्रिया भी समझाई गई है, विशेषकर वैदिक वाक्य । इसको जानने की मुझमें बहुत जिज्ञासा थी, परन्तु मुझे कोई उपयुक्त ग्रन्थ प्राप्त नहीं हो रहा था । संयोग से मुझे ज्ञात हुआ कि उच्च न्यायालय के प्रसिद्ध न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू ने मीमांसा सिद्धान्तों का प्रयोग अपने कुछ निर्णयों में किया था । सौभाग्यवश, उनके द्वारा संशोधित प्रसिद्ध मीमांसक के० एल० सरकार के व्याख्यानों की अग्रेज़ी पुस्तक मेरे हाथ लग गई । इस लेख में मैं इस पुस्तक से ग्रहण किए कुछ तथ्य सांझा कर रही हूं ।

जिस पुस्तक से मैं कुछ प्रधान विषय उद्धृत करने वाली हूं, वह है K. L. Sarkar’s Mimansa Rules of Interpretation, Tagore Law Lecture Series – 1905, ed. Justice Markandeya Katju । ये शबर आदि मीमांसकों की पद्धति के अनुसार है । सरकार इस विषय में कितने महारथी थे, यह मुझे पूर्णतया तो नहीं ज्ञात है, परन्तु उनको १९०५ में टैगौर व्याख्यान श्रृंखला के लिए चुना गया, और उनकी पुस्तक पढ़ने से प्रतीत होता है कि अपने समय के वे प्रसिद्ध मीमांसक थे । मीमांसा को हिन्दू अधिनियमों (कानून) से जोड़ने में उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों के मतों को भी परखा है । भारत की पुरातन काल से लेकर ब्रिटिश काल तक की व्यवस्था का भी उन्होंने सारांश दिया है । काटजू जी ने कुछ मुकद्दमों में इन नियमों के प्रयोग का विवरण देकर इस विषय को और रुचिपूर्ण बना दिया है ।

जबकि जैमिनि ग्रन्थ को वेदमन्त्रों को समझने के लिए बताते हैं, परन्तु इसमें प्रायः विषय का यज्ञपरक होने से जान पड़ता है कि अर्थनिर्धारण के ये नियम अधिकतर ब्राह्मण ग्रन्थों व कल्पसूत्रों के लिए हैं । तथापि इसके कुछ नियम वेदवाक्यों पर भी खरे उतरते हैं, और वस्तुतः कुछ नियम किसी भी गम्भीर लिखित ग्रन्थ के लिए सत्य बैठेंगे ।

अर्थनिर्धारण के सिद्धान्त

सबसे पहले कुछ ऐसे सिद्धान्त बताए गए हैं, जिनके आधार पर अर्थनिर्धारण करना चाहिए –

  • सार्थक्यता – प्रत्येक शब्द व वाक्य को सार्थक समझना चाहिए, व उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । मेरी दृष्टि में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, यथा – यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय या ईशोपनिषद् का सातवां मन्त्र है –

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥ यजुर्वेदः/ईशोपनिषद् ४०।७॥

अर्थात् जो योगी परमात्मा में ही सब प्राणियों को, अपने ही समान, देखता है, उसको इस स्थिति में क्या मोह और क्या शोक हो सकता है ? अर्थात् वह मोह और शोक के पार चला जाता है, इस एकत्व को देखते हुए । यहां ‘अनुपश्यति’ में ‘अनु’ के अर्थ कभी-कभी भुला दिए जाते हैं । अनु का अर्थ है किसी वस्तु व क्रिया के पश्चात्, यथा – पुत्रः पितरमनुगच्छति – पुत्र पिता के पीछे जा रहा है । इसीलिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस मन्त्र की व्याख्या में स्पष्टतः लिखा, “अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखने वाले का ।” वेदमन्त्र ‘अनु’ के संकेत से बता रहा है कि योगी को यह समदृष्टि ऐसे ही नहीं प्राप्त हो जाती है, वह पतञ्जलिमुनिनिर्दिष्ट योगाभ्यास से ही प्राप्त होती है । बुद्धि से तो इस एकत्व को हम सभी समझ लेते हैं, परन्तु जब तक यह साक्षात् नहीं देखते, तब तक उससे कोई लाभ नहीं होता । इस प्रकार अनु के अर्थ की उपेक्षा करने से कितनी हानि है !

  • लाघव – जहां एक नियम पर्याप्त हो, वहां अन्यों का ग्रहण नहीं करना चाहिए । मेरे अनुसार, इस नियम से पुनरुक्ति भी निरस्त हो जाती है । वेदों में यह चर्चा बहुत काल से रही है कि मन्त्रों के दोबारा, तिबारा पढ़े जाने से वहां पुनरुक्ति दोष है । परन्तु ऋषि, देवता, प्रकरण, आदि, के भेद से उनके अर्थ इन स्थलों पर भिन्न रहते हैं । जहां नही भी होते, जैसे मन्त्रों में ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ की अनेक बार आवृत्ति, वहां भी उसका महत्त्व का बोध कराने के लिए ऐसा कहा गया है, या फिर उस वचन का योग एक से अधिक स्थानों पर होता है, जिस प्रकार हम लोक में कहते हैं, “चल कर जाओ या वाहन से जाओ, परन्तु जाओ अवश्य ।” यहां ‘जाओ’ की पुनरुक्ति नहीं है, अपितु द्वित्र योग है । ‘कस्मै देवाय हविषा विधेम’ में भी ऐसा ही है । इन स्थलों में और लाघव सम्भव नहीं है ।
  • अर्थैकत्व – एक स्थान पर एक पद अथवा वाक्य का एक ही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, अनेक नहीं । यह निर्देश तो वेदों पर कहीं नहीं घटता, मेरे अनुसार । वेदों के पदों अथवा मन्त्रों के तीन अर्थ – आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक – तो लगभग सर्वत्र ही घटते हैं, और इनसे अधिक अर्थ भी यत्र-तत्र सम्भव हैं । प्रतीत होता है कि यह सिद्धान्त ब्राह्मण, स्मृति आदियों के लिए ही निर्दिष्ट है । इससे यहां कुछ सन्देह भी हो जाता है कि पूर्वमीमांसा के सिद्धान्त वेदों के लिए हैं भी या केवल इतर ग्रन्थों के लिए हैं…
  • गुणप्रधान – यदि कोई पद वा वाक्य उत्सर्ग वाक्य के विपरीत हो, तो उत्सर्ग वाक्य को या तो अपवाद वाक्य के अनुसार कुछ परिवर्तित कर देना चाहिए, या फिर पूर्णतया त्याग देना चाहिए । धर्म-विषय में इसको ऐसे समझना चाहिए – प्राणीहिंसा वर्जित है, परन्तु राजा और क्षत्रियों के लिए यह किन्हीं स्थितियों में निर्दिष्ट है, जैसे दण्ड देने अथवा राष्ट्र-रक्षा में । पाणिनि की अष्टाध्यायी तो सम्पूर्णतया इसी आधार पर लिखी गई है । प्रतीत होता है यह पद्धति हमारे ग्रन्थों में आरम्भ से चली आ रही है ।
  • सामञ्जस्य – जहां भी वैपरीत्य प्रतीत हो रहा हो, वहां पहले पदों वा वाक्यों में सामंजस्य बैठाने का प्रयत्न करना चाहिए । वेदों में कई स्थानों पर प्रतीत होता है कि परमात्मा के उत्पन्न होने की बात कही गई है, यथा –

एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः ।

स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ॥(यजुर्वेदः ३२।४)॥

वस्तुतः, वहां प्रायः, प्राणियों के उत्पन्न होने के साथ-साथ, परमात्मा के ज्ञान के उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है, न कि परमात्मा के अवतार ग्रहण करने का, अथवा किसी अन्य प्रकार से जन्म लेने का, क्योंकि अन्य मन्त्रों में उसको अजन्मा और अशरीरी बताया गया है । इस प्रकार दोनों वर्णनों में तालमेल बैठ जाता है ।

  • विकल्प – जहां अपरिहार्य वैपरीत्य है, वहां दोनों पदों वा वाक्यों में से किसी का भी ग्रहण किया जा सकता है । यह निर्देश प्रक्रियाओं, विशेषकर याज्ञिक प्रक्रियाओं से अधिक सम्बद्ध है । जैसे – किसी अनुष्ठान में एक स्थल पर दूध के प्रयोग का निर्देश हो, अन्यत्र जल का, तो दोनों में से किसी का भी प्रयोग किया जा सकता है ।

अर्थनिर्धारण के विधान

फिर पूर्वमीमांसा में कुछ विशेष विधान दिए गए हैं जिनसे अर्थ ग्रहण किया जाए –

  • श्रुति – जब क्रियापद व उससे सम्बद्ध संज्ञापद स्पष्ट अर्थ व्यक्त करते हैं, वाक्यार्थ सुनने से ही ज्ञात हो जाता है, तो उस अर्थ को वैसे ही ग्रहण कर लेना चाहिए, उसमें और तोड़-मरोड़ नहीं करनी चाहिए । पुनः, यह कथन वेदवाक्यों के लिए समीचीन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि वहां द्वितीय, तृतीय अर्थों के लिए, अन्य अर्थप्रकारों का भी प्रयोग हो सकता है । सम्भवतः, इतर ग्रन्थों के सन्दर्भ में ही यह कथन उपयुक्त है । लौकिक साहित्य में इस प्रकार को वाच्यार्थ कहा जाता है, जहां शब्दार्थ व वाक्यार्थ को जैसा का तैसा समझा जाता है, कोई ऊहा नहीं की जाती ।
  • लिङ्ग – जिसमें शब्द अथवा वाक्य किसी अन्य वस्तु व तथ्य के संकेत होते हैं, और वाक्य को समझने के लिए उस संकेत को समझना आवश्यक होता है । इसको लोक में लक्ष्यार्थ कहा जाता है, जैसे जब हम कहते है, “रिक्शा, इधर आओ !”, तब हम रिक्शा को नहीं, अपितु रिक्शा-चालक को सम्बोधित कर रहे होते हैं – ‘रिक्शा’ चालक का लिंग है । वेदों में उपर्युक्त प्रकार के अप्राणी-सम्बोधन, जैसे अग्नि आदि के लिए, अनेकों बार पाए गए हैं । वहां और अन्य लिंगप्रकारों से भी लिंगी की ऊहा करनी होती है ।
  • वाक्य – जब पढ़ा गया वाक्य लगता तो पूर्ण है, परन्तु उसका अर्थ वास्तव में सही नही बैठता, तब उसके अर्थ को पूर्ण करने के लिए कहीं और से किसी अन्य पद व वाक्यांश का अध्याहार करना होता है । एक पूर्व लेख में मैंने अपने इसी निष्कर्ष को दर्शाया था ईशावास्योपनिषद् के पहले दो मन्त्रों को लेकर । पहला मन्त्र कहता है –

ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥यजुर्वेदः ४०।१, ईशावास्योपनिषद् १॥

अर्थात् जो कुछ भी इस जगत् में गति कर रहा है (जिस किसी भी वस्तु की ब्रह्माण्ड में सत्ता है), वह ईश के द्वारा व्याप्य है । इसलिए सब वस्तुओं का भोग त्याग-भाव से करो, लोभ मत करो, क्योंकि वस्तुतः यह धन किसका है, अर्थात् उस व्यापक ईश का ही है । दूसरा मन्त्र कहता है –

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।

एवं त्वयि नान्येथोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥यजुर्वेदः ४०।२, ईशावास्योपनिषद् २॥

अर्थात् इस संसार में कार्य करते हुए, सौ वर्ष जीने की इच्छा करो । इसी प्रकार जीने से, और अन्य किसी प्रकार से नहीं, ये कर्म तुममें लिप्त नहीं होंगे, अर्थात् तुम उनके फलभोगी नहीं होगे । अब यह दूसरा वाक्य अपने में दीखता तो पूर्ण है, परन्तु जब हम अर्थ पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने वाला मनुष्य भी कर्मों में अवश्य ही लिप्त हो सकता है । तब हमको प्रथम मन्त्र से ‘त्याग से भोगो, लोभ मत करो’ का अध्याहार करना पड़ता है, जब इस मन्त्र के अर्थ समीचीन हो जाते हैं । इस प्रकार वाक्य की सीमा समझना अनिवार्य है ।

  • प्रकरण – उपर्युक्त के समान, जब किसी वाक्य का अर्थ पूर्ण करने के लिए किसी अन्य ग्रन्थ से कुछ तथ्य लेने पड़ते हैं, तो इसको प्रकरण के द्वारा अर्थीकरण समझना चाहिए । यथा –

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता

         धामानि वेद भुवनानि विश्वा

यत्र देवा अमृतमानशानास्-

तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥यजुर्वेदः३२।१०॥

यहां जो तृतीय धाम की चर्चा हुई उसके अर्थ मन्त्र द्वारा स्पष्ट नहीं होते, न ही आगे-पीछे के मन्त्रों में इसका स्पष्टीकरण प्राप्त होता है ; तब इसको समझने के लिए अन्य प्रकरण से पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यु लोकों को जानकर, यहां द्युलोक अर्थ समझना होता है । महर्षि दयानन्द ने यहां जीव, प्रकृति व मुक्तात्मा – इस प्रकार तीन धामों को माना है । इस अर्थ में भी इन तीन धामों की अन्य प्रकरण से ऊहा करनी पड़ती है । यह विधि वैसे तो सर्वविदित ही है, परन्तु यहां सभी प्रकारों को व्यवस्थित प्रकार से सूचित किया गया है ।

  • स्थान – इससे यज्ञक्रियाओं का क्रम अभिहित है – जिस क्रम में कर्म दिए गए हों उसी क्रम में करने चाहिए; क्रमभंग करने से यज्ञ का फल लुप्त हो सकता है ।
  • समाख्या – किसी विशेष पद के द्वारा किसी प्रकरण का निर्धारण होना, जैसे – ‘दायद, दायभाग’ आदि शब्दों से मृत की सम्पत्ति के उत्तराधिकार का प्रकरण समझ लिया जाता है ।

अन्त में जैमिनि मुनि इन सब उपायों की परस्पर बलवत्ता को भी स्थपित करते हैं –

श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ॥पूर्वमीमांसा ३।३।१४॥

अर्थात् श्रुति, लिङ्ग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या के एकत्र उपस्थित होने पर परवर्ती उपाय दुर्बल होगा, क्योंकि वह अर्थ से अधिक दूर होता है । इस प्रकार ऊपर दिए क्रम के अनुसार ही हमें उपायों का विनियोजन कर देना चाहिए – जब एक उपाय लग गया, तो आगे के उपाय ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है ।

उपर्युक्त नियम पूर्वमीमांसा में स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं, केवल उनका उल्लेख है । शबर, कुमारिल भट्ट, आदि के भाष्यों के आधार पर इनको स्पष्ट जाना गया है । भगवान् उपवर्ष पूर्वमीमांसा के प्रथम भाष्यकार थे, जिन्होंने  जैमिनि के सूत्रों को वैदिक ग्रन्थों से जोड़ा, परन्तु उनके परवर्ती शबरस्वामी ने ही पूर्वमीमांसा की विस्तृत व्याख्या लिखी, जिसपर अन्य सभी भाष्य आश्रित हैं । तथापि इस दर्शनशास्त्र को और सरल ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास होना चाहिए । ब्राह्मणों आदि में बताई गई याज्ञिक प्रक्रियाएं जिनको समझनी हैं, वे इस ग्रन्थ के विभिन्न भाष्यों का गहन अध्ययन कर सकते हैं, परन्तु वैदिक वाक्यों को समझने वाले अंश सबको उपलब्ध कराने का कार्य किसी पूर्वमीमांसा के पण्डित को शीघ्र करना चाहिए ।