साङ्ख्यदर्शन के कुछ सूत्रों का पुनरवलोकन
साङ्ख्य-दर्शन के प्रारम्भ में मोक्ष के स्वरूप, उसके लिए किए पुरुषार्थ में भेद और इस लक्ष्य की उपादेयता की स्थापना की गई है । इस प्रकरण में कुछ सूत्र ऐसे आते हैं जो कि बड़े असंगत प्रतीत होते हैं । इस कारण से व्याख्याकारों ने अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध कुछ मिलते-जुलते सूत्रों अथवा शब्दों के आधार पर उनकी व्याख्या कर दी है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है । परन्तु ये अर्थ सन्दर्भ से बिल्कुल विसंगत हैं । क्या कपिल इतने असंगत सूत्र लिखेंगे, जिनमें बहुत से शब्द व्याख्याकार को अपने मन से जोड़ने पड़ें ? जैसा मैंने पहले भी लिखा है, मुझको सूत्रकार के सूत्रों में मनमाने शब्द जोड़ना न्याय-संगत नहीं लगता । प्रसंगवश पूर्व या पश्चात् के सूत्रों से शब्दों की अनुवृत्ति लेना अथवा अनकहे शब्दों का अर्थापत्ति से अध्याहार करना तो सही है, परन्तु प्रकरण के बाहर नहीं । कुछ ऐसे सूत्रों के अर्थ मैंने प्रकरणानुसार किए हैं, जो कि अन्य व्याख्याओं से पर्याप्त भिन्न है । प्रारम्भिक अंश के कुछ सूत्रों की अपनी व्याख्या को इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं ।
ग्रन्थ के प्रारम्भिक सूत्र और उनके प्रचलित अर्थ इस प्रकार हैं –
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१।१॥
तीन प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति सर्वश्रेष्ठ पुरुष (=आत्मा) का प्रयोजन (अर्थात् मोक्ष) है, (अथ=) जिसके लिए अब यह शास्त्र प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यहां ’पुरुषार्थ’ से प्रचलित अर्थ ’प्रयास’ न लेकर ’पुरुष का प्रयोजन’ लिया गया है, और ’अत्यन्तपुरुषार्थ’ में ’अत्यन्त’ का सामान्य अर्थ ’अत्यधिक’ न करके ’सर्वश्रेष्ठ’ किया गया है । ये दोनों ही अर्थ सम्भव हैं ।
न दृष्टात् तत्सिद्धिर्निवृत्तेऽप्यनुवृत्तिदर्शनात् ॥१।२॥
दृष्ट (उपायों) से उस (मोक्ष) की सिद्धि नहीं है, क्योंकि एक दुःख के छूटने पर दूसरा दुःख उपस्थित होता हुआ देखा जाता है । यहां दृष्ट उपायों में यज्ञ, आदि की गणना नहीं की गई है, अपितु धनार्जन, आदि, को ही लिया गया है, क्योंकि आगे के एक सूत्र (१।६) में यज्ञ का विषय लिया गया है, जबकि यज्ञ से सम्बन्धित कोई भी शब्द वहां भी नहीं पढ़ा गया है । यहां जो ’उपाय’ शब्द का अध्याहार किया गया है, वस्तुतः वह पूर्व सूत्र के ’पुरुषार्थ’ की अनुवृत्ति है, जब हम उसका अर्थ ’प्रयास’ लें तो । तब अर्थ बनता है – ’दृष्ट साधनों से दुःखनिवृत्ति का पुरुषार्थ (=प्रयास)’, अन्यथा ’उपाय’ शब्द का पूर्णतया अध्याहार करना पड़ेगा ।
प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टनात् पुरुषार्थत्वम् ॥१।३॥
(परन्तु) प्रतिदिन की भूख का प्रतीकार के समान, उन (मोक्ष को छोड़, अन्य दुःखों) के प्रतीकार के लिए चेष्टा की आवश्यकता होने से, (वे धनार्जन, आदि) पुरुषार्थ की कोटि में हैं (क्योंकि अन्य शारीरिक दुःखों के प्रतीकार के लिए भी चेष्टा करनी पड़ती है) । यहां जबकि ’चेष्टन’ का अर्थ ’प्रयास’ ही लिया गया है, तथापि ’पुरुषार्थ’ का अर्थ ’पुरुष का प्रयोजन’ लेकर, इस पुरुषार्थ और प्रथम सूत्र के ’अत्यन्तपुरुषार्थ’ में भेद करना ही इस सूत्र का तात्पर्य लिया गया है ।
सर्वासम्भवात् सम्भवेऽपि सत्तासम्भवाद्धेयः प्रमाणकुशलैः ॥१।४॥
सब दुःखों की निवृत्ति के लिए उपर्युक्त पुरुषार्थ असम्भव होने से, और सम्भव हो भी जाए तब भी दुःखों की सत्ता सम्भव बने रहने से, वह पुरुषार्थ हेय ही है – ऐसा प्रमाणों में कुशलों का मत है ।
उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः ॥१।५॥
मोक्ष के उत्कृष्ट होने से भी, क्योंकि वेदों के अनुसार मोक्ष सर्वोत्कृष्ट है, (इसलिए मोक्ष-रूपी पुरुषार्थ उपादेय है) ।
अविशेषश्चोभयोः ॥१।६॥
(दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति के लिए,) दोनों (लौकिक और वैदिक उपाय) समान है (अर्थात् दोनों ही मोक्ष प्राप्त कराने में असमर्थ हैं) । इस व्याख्या में हम देख सकते हैं कि किस प्रकार लौकिक और वैदिक उपायों को घसीट कर लाना पड़ा है । इस सूत्र पर दृष्ट-अदृष्ट उपायों का प्रकरण समाप्त हो जाता है, सो आगे से भी इस सूत्र में ये शब्द अध्यहृत नहीं कर सकते । तथापि बहुत आगे जाकर, प्रकृति के उपादानत्व पर विचार करते समय दो सूत्र आते हैं –
न कर्मण उपादानत्वायोगात् ॥१।४६॥
नानुश्रविकादपि तत्सिद्धिः साध्यत्वेनावृत्तियोगादपुरुषार्थत्वम् ॥१।४७॥
अर्थात् कर्म से सृष्टि सिद्ध नहीं होती, क्योंकि कर्म में सृष्टि का उपादान कारण होने की योग्यता नहीं है । और न ही वैदिक कर्मों (यज्ञादियों) से उस (सृष्टि) की सिद्धि होती है क्योंकि वे भी साध्य हैं, और (पुरुष की) आवृत्ति से सम्बद्ध होने के कारण, उनमें (मोक्ष के प्रति) पुरुषार्थत्व (अर्थात् ’अत्यन्तपुरुषार्थत्व’, अर्थात् १।३ के ’पुरुषार्थ’ के अर्थ से विपरीत!) नहीं है ।
इन दो सूत्रों में कर्मों को वैदिक और उनसे भिन्न में बांटा गया है । वैसे तो १।४६ का कर्म परमात्मा के सृष्टिकर्म को कह रहा है, इसलिए वहां भी लौकिक कर्म का प्रसंग नहीं है, तथापि इन दोनों में कर्मों की यह समानता दिखाई गई है कि ये मोक्ष में सहायक नहीं हैं । इसलिए प्रतीत होता है कि यहां से प्रेरित होकर, व्याख्याकारों ने १।६-वें सूत्र में अकस्मात् आए ’उभयोः’ (=दोनों में) और ’अविशेषः’ (=समान) का एक हल ढूढ़ लिया । परन्तु वस्तुतः कपिल ने इन शब्दों का प्रयोग इस प्रसंग में कहीं नहीं किया है, और कौन ऐसा लेखक होगा जो बिना चर्चा किए अचानक ’दोनों’ कह देगा ?! इन व्याख्याओं में और भी कुछ विप्रतिपत्तिया हैं, जिनको हम अब देखते हैं ।
इन सूत्रों की व्याख्या में प्रथम बात जो हमें खटकती है, वह यह कि १।३ में भूख को अन्य शारीरिक दुःखों से अलग क्यों माना गया ? क्या भौतिक दुःखों में सर्वप्रथम दुःख, जो कि नवजात शिशु को भी सताता है, भूख नहीं है ? फिर द्वितीय सूत्र में तो मोक्ष के लिए पुरुषार्थ की अनुवृत्ति ली गई थी, सो तीसरे सूत्र में वह अभ्युदय के प्रयास में कैसे बदल गई ? और चतुर्थ सूत्र में पुनः मोक्ष के पुरुषार्थ का विषय आ गया ! पुनः, तृतीय सूत्र के ’चेष्टन’ शब्द से स्पष्टतः ’पुरुषार्थ’ शब्द से ’प्रयास/उपाय’ अर्थ होने से पहले सूत्र में भी यही अर्थ ग्रहण करना युक्तियुक्त है, न कि ’पुरुष का प्रयोजन’ । आगे के सूत्रों में व्याख्याकारों को ’उपाय’ आदि शब्दों द्वारा ’आत्मा का प्रयास/चेष्टा’ अर्थ ही ग्रहण करना पड़ा । परन्तु इससे प्रश्न उठता है कि फिर प्रथम सूत्र में हम ’अत्यन्तपुरुषार्थ’ के अर्थ ’आत्मा का सर्वोच्च प्रयोजन’ कैसे मानें, ’अत्यधिक प्रयास’ क्यों न मानें ?
वस्तुतः, तृतीय सूत्र में भूख भौतिक दुःखों का उपलक्षण है, और उसके लिए किए गए प्रयास की तुलना मोक्ष के लिए किए जाने वाले प्रयास से की गई है । यह इसलिए कि भौतिक प्रयासों को तो हम पुरुषार्थ-रूप में समझते ही हैं, परन्तु मोक्ष के लिए जो प्रयास है, वह क्या पुरुषार्थ की कोटि में आता है या नहीं ? – यह सन्देह होता है क्योंकि द्वितीय सूत्र में उस प्रयास को अदृष्ट बताया गया था । अदृष्ट साधन से जो सिद्ध हो, उसे क्या पुरुषार्थ कह सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर ही तृतीय सूत्र में दिया गया । इस प्रकार से समझने से सूत्रों के अर्थ इस प्रकार बनते हैं –
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१।१॥
अब तीन प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति (=मोक्ष) अत्यधिक प्रयास से सिद्ध होता है (यह इस ग्रन्थ में सिद्ध किया जाएगा) ।
न दृष्टात् तत्सिद्धिर्निवृत्तेऽप्यनुवृत्तिदर्शनात् ॥१।२॥
दृष्ट उपायों से उस मोक्ष की सिद्धि नहीं है, क्योंकि इन उपायों से एक दुःख के छूटने पर दूसरा दुःख उपस्थित होता हुआ देखा जाता है । यहां दृष्ट उपायों में यज्ञ आदि और धनार्जन आदि उपाय सम्मिलित हैं, न कि केवल धनार्जनादि, क्योंकि यज्ञादि दृष्ट कर्म ही हैं, अदृष्ट नहीं । आगे कपिल स्वयं बताते हैं कि “वृत्तिनिरोधात् तत्सिद्धिः ॥३।३१॥” अर्थात् मानसिक-वृत्तियों के निरोध से ही विवेकख्याति और मोक्ष की प्राप्ति होती है । यह वृत्तियों का निरोध अदृष्ट उपायों – अष्टांग योग – से ही सम्भव है । उसकी भूमिका बांधते हुए यहां यज्ञादि क्रिया-कर्मों की निरर्थकता बताई जा रही है । वस्तुतः, योगदर्शन के समान, सांख्यदर्शन ने भी कहीं भी यज्ञ को मुक्ति का मार्ग तो छोड़िए, उनकी चर्चा भी विशेष रूप से नहीं की है । ब्राह्मणादि ग्रन्थों में यज्ञ स्वर्ग प्राप्ति के लिए बताए गए हैं । वहां स्वर्ग का अर्थ है भौतिक सुख, न कि आध्यात्मिक सुख अर्थात् मोक्ष ।
प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकारचेष्टनात् पुरुषार्थत्वम् ॥१।३॥
(यदि पूर्व सूत्र में कहो कि अदृष्ट साधन द्वारा प्रयत्न को हम पुरुषार्थ नहीं मानते तो) जिस प्रकार प्रतिदिन की भूख का प्रतीकार करने के लिए (पुनः पुनः) चेष्टा करनी होती है, उसी प्रकार दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति के लिए (विवेकख्याति के लिए) (निरन्तर) प्रयासरत होना पड़ता है । इसलिए उन अदृष्ट साधनों से किया प्रयास भी पुरुषार्थ की कोटि में आता है । धारणा, ध्यान, समाधि, आदि में यह सन्देह सम्भव हो सकता है कि ये तो प्रयास का अभाव हैं , न कि प्रयास । इसलिए कोई कह सकता है कि हम इन्हें पुरुषार्थ नहीं मानते; परन्तु यज्ञादि सभी भौतिक, शारीरिक प्रयास तो स्पष्टतः पुरुषार्थ हैं – उनमें सन्देह ही कहां ? इसलिए यहां ’प्रतिदिन की भूख’ को अन्य सभी भौतिक दुःखों का उपलक्षण मानना ही युक्तियुक्त है, और उन दुःखों के प्रतीकार के लिए किए गए सभी कर्म – यज्ञ, परोपकार, धनार्जन आदि आदि – सभी ग्रहीत हैं ।
सर्वासम्भवात् सम्भवेऽपि सत्तासम्भवाद्धेयः प्रमाणकुशलैः ॥१।४॥
दृष्ट शारीरिक साधनों से सब दुःखों की निवृत्ति पहले तो सम्भव ही नहीं, जैसा कि द्वितीय सूत्र में कहा गया था, और मानो (बहुत प्रयास करने से, सब ओर से अपने को दुःखों से बचा कर रखकर,) हो भी सके, तब भी सर्वदा ही कोई ऐसे दुःख की सम्भावना बनी रहती है, जिसका हमने प्रतीकार न किया हो, जैसे मृत्यु । इन दो कारणों से प्रमाणकुशलों का कहना है कि दृष्ट साधनों द्वारा किया गया पुरुषार्थ (मोक्ष-प्राप्ति के लिए) त्याज्य है ।
उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः ॥१।५॥
(उपर्युक्त भौतिक दुःखों के निवारण से) मोक्ष के उत्कृष्ट होने से भी (वे दृष्ट साधन त्याज्य हैं), क्योंकि वेदों के अनुसार मोक्ष सर्वोत्कृष्ट है । यहां तात्पर्य यह है कि जब मोक्ष इस जगत् के ऊपर की स्थिति है, तो जागतिक उपायों से हम कैसे भवसागर को तरने की कल्पना कर सकते हैं ?!
अविशेषश्चोभयोः ॥१।६॥
और (मोक्ष और १।१ में कही गई दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति) समान ही है, एक ही हैं । अर्थात् वेद जो मोक्ष के लिए परम पुरुषार्थ करने की बात कर रहा है, सो उसी अत्यन्त प्रयास से सब दुःखों से निवृत्ति सम्भव है । १।५ सूत्र में ’मोक्ष’ शब्द पहली बार आया है । कपिल ने अभी तक ’दुःखात्यन्तनिवृत्ति’ के अपने प्रयोग का अन्य ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्दावली से नहीं मिलाया था । इसलिए उनको इस सूत्र में स्पष्ट करना पड़ा कि जिसको मैंने ’दुःखात्यन्तनिवृत्ति’ और जिसको श्रुति में ’मोक्ष’ कहा गया है, वे वस्तुतः एक ही हैं । यह इस सूत्र का प्रयोजन है ।
उपर्युक्त प्रकार से अर्थ करने से हम देखते हैं कि प्रत्येक सूत्र ऊपर के और आने वाले सूत्रों से सम्बद्ध हो जाते हैं –बिना बाहर से शब्दों को लाए हुए ! यही नहीं, कपिल के अर्थों में पूर्णता व स्पष्टता भी आ जाती है । इसलिए ये अर्थ मुझे उपादेय लगते हैं ।पुराने ग्रन्थों में यह शैली प्रायः पाई जाती है जिसमें बहुत अधिक ’तत्, एतत्, तस्मात्, एतस्मात्, तेन, एतेन’ (वह, यह, उसलिए, इसलिए) आदि शब्दों का प्रयोग होता है । ये सर्वनाम शब्द हम पूर्ववर्तियों में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं । फिर हम ग्रन्थ के अन्यत्र उपलब्ध भाग से, अथवा अन्य ग्रन्थों के वर्णन से अर्थों की पूर्ति करते हैं । सांख्य में भी ऐसे स्थल अनेकत्र पाए जाते हैं । इन सूत्रों की व्याख्या करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए कि सांख्यदर्शन जैसा कालजयी ग्रन्थ तभी कालजयी हो सकता है, जब उसके अर्थ सम्पूर्ण हों और अन्य ग्रन्थों से भिन्न हों । इसलिए मेरे मत में व्याख्याओं में प्रसंग से बाहर से लाए हुए शब्द बिल्कुल त्याज्य हैं ।