सांख्यदर्शन में भोग

पूर्व में मैंने ’योगदर्शन में कर्माशय और भोग’ नाम से एक लेख लिखा था, जहां पर पुण्य और पाप के अनुसार भोग-प्राप्ति समझाई थी । यही हम सामान्यतया समझते हैं । जो हम नहीं समझते है, वह है क्लेशों के दूर हो जाने पर क्या स्थिति होती है, अर्थात् आत्मा की यथार्थ स्थिति । सांख्य इस विषय को कुछ खोल कर लिखता है । अवश्य ही इन विचारों से आपको आश्चर्य होगा, परन्तु कुछ चिन्तन करने पर, सम्भवतः आप इन्हें समझ सकें । स्मरण यह रहना चाहिए कि ये जो वर्णन हैं, वे जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त आत्माओं के वर्णन हैं, न कि साधारण मानवों के । 

पहले हम एक दृष्टि पुनः योगदर्शन पर डाल लेते हैं, जहां कि पतञ्जलि मुनि ने साधारण मानवों के विषय में भोग व कर्म व्यवस्था का विवरण दिया था । उन्होंने कहा – 

क्लेशमूलः  कर्माशयो  दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ योगदर्शनम् २।१२ ॥

जिन कर्मों के मूल में क्लेश हैं, अर्थात् क्लेश से प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं, वे कर्माशय उत्पन्न करते हैं । ये कर्माशय ही पुण्य और पाप होते हैं, जो कि इस जन्म अथवा भविष्य के जन्मों में झेलने पड़ते हैं ।

ये कर्म किस प्रकार वेदनीय = भोग्य होते हैं, इसके विषय में महर्षि कहते हैं –

सति मूले  तद्विपाको  जात्यायुर्भोगाः ॥ योगदर्शनम् २।१३॥

अर्थात् मूल में क्लेश के रहते, कर्माशय के विपाक होते हैं – जाति (योनि जिसमें प्राणी उत्पन्न हो), आयु (जीवन की दीर्घता) और सांसारिक भोग । सो, अर्थापत्ति से यह भी समझना चाहिए कि जब क्लेश से युक्त होकर कर्म नहीं किया जाता, तो उसका फल नहीं होता अर्थात् जाति नहीं होती (जन्म नहीं होता), आयु नहीं होती और सुख-दुःख-रूपी भोग भी नहीं होते । 

मुख्य रूप से, साधारण और जीवनमुक्तों के कर्मों में यही भेद होता है – जीवनमुक्तों के ज्ञान में अविद्या-मूलक क्लेश नहीं होते, वे यथार्थ देखते और जीते हैं । तो यह अविद्या है क्या ? अविद्या वह है जिसके कारण हम अपने को अपने शरीर के समतुल्य समझते हैं – समतुल्य क्या, अपने स्वरूप को भूलकर, हम शरीर की ही चाकरी में लगे रहते हैं, उसके सुख-दुःख के अनुसार अपने जीवन को ढाल देते हैं । ये सुख-दुःख रूपी भोग कैसे उत्पन्न होते हैं ? सो पतञ्जलि कहते हैं – 

ते  ह्लादपरितापफलाः  पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥योगदर्शनम् २।१४॥

अर्थात् वे उपर्युक्त विपाक फलरूप में आनन्दित करते हैं या दुःख देते हैं, पुण्य या अपुण्य कर्म के हेतु से । यदि हमारा कर्म धार्मिक था, तो हम सुख अनुभव करते हैं, और यदि पापयुक्त, तो दुःख । यहां पुनः यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ये दोनों प्रकार के कर्म क्लेशमूलक होने पर ही ऐसा होता है । 

तो फिर जब कर्म क्लेशमूलक नहीं होते, तब क्या होता है ? इस विषय को सांख्य में अति स्पष्टता से कहा गया है –

चिदवसानो  भोगः ॥साङ्ख्यदर्शनम् १।६९॥

अर्थात् भोग चित् पर रुकता है, जहां ’चित्’ का अर्थ बुद्धि है । परन्तु यह कैसे सम्भव है ? हमने तो पढ़ा है कि भोग जीवात्मा करता है, न कि शरीर । ऊपर पतञ्जलि मुनि ने यही कहा । बल्कि सभी व्याख्याकारों को इस वाक्य को मानने में इतनी बाधा हुई कि उन्होंने ’चित्’ का अर्थ ’जीवात्मा’ ही किया है । परन्तु यह अर्थ कपिल के अगले कुछ सूत्रों से संगत नहीं है । ये सूत्र इस प्रकार हैं –

अकर्तुरपि  फलोपभोगोऽन्नाद्यवत् ॥साङ्ख्यदर्शनम् १।७०॥

अर्थात् जीवात्मा, अकर्ता होते हुए भी, कर्म के फल का उपभोग करता है, अन्नादि के समान । जिस प्रकार पाचक खाना गृह के सदस्यों के लिए बनाता है, और वे उस अन्न को न बनाने पर भी, उसका उपभोग करते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा भी कर्ता नहीं है, परन्तु कर्मों के फल का उपभोग करता है । यह क्या ? पुनः हमारी सारी मान्यताओं के विरुद्ध कपिल कुछ कह गए – जीवात्मा कर्ता नहीं है ! इस सूत्र का अर्थ क्या है, यह अगले दो सूत्रों से स्पष्ट होगा –

अविवेकाद्वा  तत्सिद्धेः  कर्तुः  फलावगमः ॥साङ्ख्यदर्शनम् १।७१॥

अथवा यह समझना चाहिए कि अविवेक से कर्ता के सिद्ध होने के कारण, कर्ता को फल की प्राप्ति होती है । यह अविवेक वही है जिसे पतञ्जलि ने अविद्या अथवा क्लेश कहा । इसलिए अर्थ हुआ – जब कर्म के मूल में अविद्या/अविवेक क्लेश हो, तब कर्ता को फल प्राप्त होता है । परन्तु पिछले सूत्र में ही तो कपिल ने जीवात्मा को अकर्ता कहा, अब यहां कर्ता बोल रहे हैं ! क्या वे अपने ही वाक्य का खण्डन कर रहे हैं ? सो, यहां ’वा’ कह कर उन्होंने पहले ही स्पष्ट किया है कि, पिछले सूत्र की तुलना में, यह दूसरी प्रकार से विषय की प्रस्तुति है । इस दूसरे प्रकार से ही प्रायः हम सब अवगत हैं । वास्तव में पहला प्रकार अधिक निकटता से वस्तु-स्थिति को कहता है, परन्तु उसको समझने में अधिक कष्ट होता है, इसलिए हम दूसरे प्रकार को ही अपना लेते हैं, और सभी प्रवचनकर्ता भी उसी को कहते हैं । अगला सूत्र देखकर हम पुनः इस सूत्र को समझने के लिए लौटेंगे – 

नोभयं  च  तत्त्वाख्याने ॥साङ्ख्यदर्शनम् १।७२॥

अर्थात् तत्त्वाख्यान (जिसे पतञ्जलि ने विवेकख्याति कहा है – योगदर्शनम् २।२६) हो जाने पर, दोनों कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहते । तत्त्वाख्यान का अर्थ है यथार्थ ज्ञान का प्रकाश । जैसा हमने ऊपर देखा, हमारा मुख्य क्लेश है अविद्या जिसके कारण हम अपने शरीर को स्वयं समझने लगते हैं । अब यदि भोग शरीर में था, तो क्या जिस व्यक्ति को तत्त्वाख्यान हो गया है, उस जीवन्मुक्त व्यक्ति को कांटा चुभने पर दर्द नहीं होता क्योंकि अब वह अपने को शरीर से पृथक् देखने लगा है ? यदि होगा, तो उसका भोक्तृत्व तो नष्ट नहीं हुआ । यदि नहीं हुआ तो सूत्र १।६९ में ’चित्’ का अर्थ ’बुद्धि’ होगा !

इसको समझने के लिए विषय को और गहराई से परखते हैं । पहले प्रश्न पूछिए – क्या आत्मा खाना खाता है ? क्या आत्मा सुन्दर-सुन्दर वस्त्र व आभूषण पहनता है ? क्या आत्मा बच्चे को उत्पन्न करता है ? क्या आत्मा का उस बच्चे से कुछ निजी सम्बन्ध है ? यदि आपने इनमें से किसी भी प्रश्न का ’हां’ में उत्तर दिया, तो इस लेख को यहीं छोड़ दें, क्योंकि इन बातों को समझाने का अभिप्राय इस लेख का नहीं है; इन विषयों को जानने के लिए कुछ और पढ़ना पड़ेगा । यदि आपने सभी प्रश्नों का उत्तर ’न’ दिया, तो आप आगे का वक्तव्य समझ सकते हैं । जब आत्मा ने खाया नहीं, पहना नहीं, बच्चे का जन्म नहीं दिया, तो इन सब से उत्पन्न सुख व दुःख उसके कैसे हो सकते हैं ?! जो आपके पैर में कांटा लगा, तो उसको कष्ट आत्मा में कैसे हो सकता है ? वह दर्द तो वस्तुतः बुद्धि पर ही रुक जाता है, परन्तु अविवेक के कारण उस दर्द को हम अपने में अनुभव करते हैं । इसी प्रकार अन्य सभी सुख और दुःख को समझिए । जब आत्मा में शरीर से भिन्नता का विवेक उत्पन्न हो जाता है, तब भी कांटा चुभने से दर्द होता है, परन्तु तब आत्मा उसका उसी प्रकार निदान करता है, जैसे कि मोटरकार के ठुक जाने पर, उसको ठीक करता है ।

अब कर्म लेते हैं । कर्म के लिए प्रेरित तो आत्मा ही करता है, इसमें कोई संशय ही नहीं । शरीर अपने-आप तो उठकर कर्म नहीं करने लगता ! परन्तु हम कर्म करते क्यों हैं, क्या आपने कभी यह सोचा है ? यदि आप दिनभर के अपने कर्मों को देखें, तो पायेंगे कि उनमें से अधिकतर तो शरीर के लिए ही हैं – सोना, खाना बनाना, खाना-पीना, धनार्जित करना, मनोरञ्जन करना, अन्य लोगों से गपशप करना । अपनी आत्मा के लिए जो कर्म होता है, वह अध्यात्म कहाता है और उसमें मोक्षपरक ज्ञानार्जन और धारणा-ध्यान-समाधि विशेष हैं । अन्य जो पतञ्जलि ने अष्टाङ्ग-योग में गिनाए हैं, वे शरीर की इच्छाओं को दबाने हेतु, उनको वश में रखने के लिए हैं । अब यदि आप इन आध्यात्मिक कर्मों को देखें, तो आपको समझ आयेगा कि ये कर्म-फल व्यवस्था के अन्तर्गत ही नहीं हैं ! क्या वेद पढ़ने से कुछ पुण्य होता है ? लाभ होता है तो केवल इतना कि उसके अनुसार हम अपने बाकी शारीरिक कर्मों को वेदानुसार धार्मिक बनाने में समर्थ होते हैं । परन्तु स्वयं वेद पढ़ने के कर्म से कोई पुण्य नहीं होता । इसी प्रकार ध्यान लगाने से कोई पुण्य अथवा पाप की प्राप्ति नहीं होती – केवल विवेक की प्राप्ति होती है । इससे यह निकला कि जो कार्य आत्मा के लिए किए जाते हैं, वे ’अक्लिष्ट कर्म’ होते हैं, इसलिए उनका कोई फल ही नहीं होता ।

अर्थापत्ति से यहां एक और अर्थ निकला – जो शारीरिक कर्म हम करते हैं, वो वास्तव में शरीर तक ही सीमित हैं । तो फिर उनका फल आत्मा को क्यों लगे ? वस्तुतः उनका फल भी शरीर तक ही सीमित होता है, परन्तु शरीर को स्वयं मानने के कारण, वह भी हमें अपना लगता है । जिस दिन हमें विवेकख्याति हो जायेगी, उस दिन हमें अपना शरीर उस मोटरकार की तरह लगेगा जो हमें इधर-उधर ले जाती है । फिर जब हमें भूख लगेगी, हमें समझ में आयेगा कि शरीर को पैट्रोल की आवश्यकता है । तब जो हम भोजन करेंगे, उसमें हमें रस की अनुभूति नहीं होगी – हमें ऐसा ही लगेगा जैसे कि हम कार में पैट्रोल भर रहे हैं, अर्थात् कोई सुख की अनुभूति नहीं होगी । फिर जो हमारी शारीरिक-कार इधर-उधर दौड़ेगी, तो हम जानेंगे कि यह हम कर्म नहीं कर रहे, शरीर कर्म कर रहा है । जब वह कार कहीं ठोकर खायेगी तब हम जानेंगे कि कार को ठोकर लगी है – हमें उस कारण से कोई दुःख नहीं होगा । इस प्रकार फिर न तो भोक्तृत्व रहता है, न कर्तृत्व । वह आत्मा तब जीवन्मुक्त हो जाएगा और शरीर त्यागने पर मोक्ष प्राप्त करेगा । उसके लिए प्रकृति का नृत्य उसी क्षण से समाप्त हो जाता है –

नर्तकीवत्  प्रवृत्तस्यापि  निवृत्तिश्चारितार्थ्यात् ॥साङ्ख्यदर्शनम् ३।६९॥

जिस प्रकार जो रुचि लेते रहते हैं, उनके लिए नर्तकी का नाच चलता रहता है, परन्तु जो उदासीन हो जाते हैं, वे वहां से उठ कर चले जाते हैं, उसी प्रकार जो इस संसार में प्रवृत्त हैं, उलझे हुए हैं, उनके लिए यह सुख-दुःख आदि भोगों का चक्र चलता रहता है, और जिनको विवेक-ख्याति हो गई है, उनके लिए संसार का यह नाच जैसे बन्द हो जाता है ।

इस ज्ञान के प्रकाश में, अब हम परमात्मा के सर्वकर्ता होने के विषय को स्पर्श करते हैं । अब हम जान गए कि जीव वस्तुतः कर्म नहीं करता, उसे केवल कर्म करने का अहंकार होता है । बुद्धि बताती है शरीर ने किया, हम सुनते हैं हमने किया । बुद्धि कहती है शरीर को भूख लगी है, खाना खाओ, हम सुनते हैं हमको खाना खाना है । तो कर्म की प्रेरणा कहां से आई ? वस्तुतः उपर्युक्त शारीरिक कर्मों की प्रेरणा शरीर से ही आती है । खाना खाने जैसे तुच्छ काम से लेके अन्यों पर राज करने तक की सभी इच्छाएं शरीर की ही होती हैं, आत्मा तो उनका दास होती है ! तो फिर वस्तुतः कौन कर्म कर रहा है ? परमात्मा ही हमारे शरीरों में इच्छाएं उत्पन्न करते हैं और हमें उन चेष्टाओं को पूर्ण करने के लिए समर्थ करते हैं, और हां, प्रेरित भी करते हैं । इन शरीर के अनुसार इच्छाओं के कारण ही केंचुए को केवल मिट्टी खाने में अच्छी लगती है, जबकि आप उसे छूना भी नहीं चाहते, खाना तो दूर की बात है ! इस व्यवस्था के कारण, जहां एक ओर कर्म करने में हम स्वतन्त्र हैं, वहीं हम वस्तुतः दास भी हैं । जिस दिन हमें विवेक-ख्याति हो जायेगी, उसी दिन हमें वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त होगी ! इसलिए कपिल ने कहा –

         स  हि  सर्ववित्  सर्वकर्ता ॥ साङ्ख्यदर्शनम् ३।५६॥

वह परमात्मा ही सब जानने वाला और सब करने वाला है ।

            अहङ्कारः  कर्ता  न  पुरुषः ॥ साङ्ख्यदर्शनम् ६।५४॥

अहंकार ही कर्ता होता है, न कि जीवात्मा ।

इस प्रकार, जब तक हम इस शरीर को स्वयं मानते रहेंगे, शारीरिक-कार को स्वयं समझते रहेंगे, तब तक, उस अविवेक के कारण, कार के कर्म हमारे होते रहेंगे, उन कर्मों के पुण्य-अपुण्य हमारे होते रहेंगे, उनसे उत्पन्न सुख-दुःख रूपी विपाक हमारे होते रहेंगे । तब तक यही कहना सही होगा कि जीवात्मा कर्म करती है और उसके फल भोगती है । साधारण मनुष्यों को उपदेश देने वाले इसी बात को ऐसे ही कहेंगे क्योंकि उनका संसार अभी ऐसा ही है । जो गहन विचार, जो यथार्थताएं कपिल आदि ने प्रस्तुत की हैं, वे विरले ही समझ सकते हैं, और उनसे भी कम अनुभव करते हैं !