सांख्य के कुछ सूत्रों के अर्थ में भेद

सांख्यदर्शन के तीसरे अध्याय में जीव और ईश्वर के सम्बन्ध के विषय में कुछ सूत्र आते हैं जिनका प्रचलित अर्थ कुछ सम्यक् नहीं प्रतीत होता । वे अर्थ कहीं प्रसंग-विरुद्ध तो कहीं अटपटे लगते हैं । क्योंकि यह विषय महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इस लेख में उनपर चर्चा कर रही हूं ।

जीवों की विभिन्न योनियों की चर्चा करने के बाद, कपिल मुनि बताते हैं कि सबसे उत्तम योनि – देव योनि – भी जरा, मृत्यु, आदि, से बाधित होने के कारण हेय अथवा त्याज्य है । उससे आत्मा के सब दुःख नष्ट नहीं होते । उस मोक्षरूपी कृतकृत्यता को प्राप्त करने के लिए कुछ और आवश्यक है । उस संदर्भ में वे कहते हैं –

न  कारणलयात्   कृतकृत्यता  मग्नवदुत्थानात् ॥साङ्ख्य० ३।५४॥

जिसका शब्दशः अर्थ है “कारणलय से कृतकृत्यता नहीं होती, जिस प्रकार डूबा हुआ ऊपर आ जाता है ।” क्योंकि यह वाक्य अत्यधिक स्पष्ट नहीं है इसीलिए यहां संशय होता है । क्योंकि कृतकृत्यता केवल जीवात्मा की होती है, इसलिए यह तो स्पष्ट है कि यहां उसी की चर्चा है । परन्तु वह कारण में तो लय होता नहीं क्योंकि वह कार्य ही नहीं है । तो ‘कारणलय’ के क्या अर्थ किए जाएं ? अब कारण तो प्रकृति के कार्यों का ही होता है । सो, ‘लय’ के अर्थ जीव के, वस्तुतः मनुष्य के ही, प्रकृति के अध्ययन में, उसके साक्षात्कार में लीन होने का अर्थ होगा । इसलिए सूत्रार्थ किया जाता है – गर्मी से त्रस्त व्यक्ति पानी में गोता लगाकर आनन्द अनुभव करता है, परन्तु बाहर निकलकर पुनः गर्मी उसको सताती है । इसी प्रकार, मूल प्रकृति के साक्षात्कार/अनुसन्धान में लीन व्यक्ति सुख का अनुभव करता है, परन्तु उसमें से उसको निकलना ही पड़ता है । तब उसका सुख भी समाप्त हो जाता है । सो, यह कृतकृत्यता नहीं हो सकती, जिसमें कि सभी सुखों का सर्वथा और दीर्घकालपर्यन्त नाश होना है । 

यहां यह अटपटा लगता है कि कपिल अचानक प्रकृति में तल्लीन होने की बात कैसे करने लगे ? न इससे पहले, न इसके बाद कहीं भी उन्होंने इस विषय की चर्चा की है । और किसी भी विषय में तल्लीन होने पर मनुष्य  को सुखानुभूति होती है । तो उन्होंने मूल प्रकृति को ही क्यों चुना ? कोई अशास्त्रीय व्यक्ति भी प्राकृतिक विषयों में तल्लीन होने में दुःखों का नाश नहीं समझता । तो, कपिल किसको क्या समझा रहे हैं ?

वस्तुतः, यहां अर्थ इस प्रकार है – जिस प्रकार एक व्यक्ति जल में डुबकी लगाने पर डूबा नहीं रह पाता, उसे उबरना ही पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा के शरीर का उसके कारण में लय होने पर, अर्थात् मृत्यु होने पर, कृतकृत्यता नहीं प्राप्त होती क्योंकि वह पुनः शरीर धारण करता है । यह अर्थ पूर्व सूत्रों के प्रसंग से भी जुड़ता है, जहां नया शरीर धारण करके संसार में पुनरावृत्ति की चर्चा की गई थी (आवृत्तिस्तत्राप्युत्तरोत्तरयोनियोगाद्धेयः ॥३।५२॥) । और हम पाते हैं कि मनुष्य की सामान्य सोच यही होती है कि मृत्यु आत्मा का अन्तिम पड़ाव है । इसीलिए तो संसार में कितनी ही सभ्यताओं के कितने ही पन्थ केवल एक जीवन होता है, उसमें जो कर लिया, बस उतना ही या तो अनन्तकाल के लिए स्वर्ग ले जायेगा अथवा नर्क – ऐसी मान्यता रखते हैं । सो, यह संशय सम्भव ही नहीं अपितु सामान्य है ! इसका निराकरण करना कपिल मुनि के लिए अनिवार्य था । सो, उन्होंने यह सूत्र रचा ।

अगला सूत्र कहता है –

अकार्यत्वेऽपि  तद्योगः  पारवश्यात् ॥३।५५॥

इसका शाब्दिक अर्थ है – कार्य न होते हुए भी, उसका योग होता है, परवशता के कारण ।

अब यहां पूर्व सूत्र के प्रचलित अर्थ लिए जाएं तो कोई सम्बद्ध अर्थ नहीं बनता – प्रकृति में तल्लीन व्यक्ति किसका कार्य नहीं है ? उसका किससे योग परवशता के कारण होता है ? आदि आदि । इन प्रश्नों के अर्थ सम्भव न होने के कारण, ‘अकार्य’ शब्द देखकर किसी ने ईश्वर की कल्पना की तो किसी ने आत्मा की, और अर्थ बनाया – जगत् ईश्वर का कार्य न होते हुए भी, उसका ईश्वर से सम्बन्ध है क्योंकि वह ईश्वर के पराधीन है; अथवा प्रकृति किसी का कार्य नहीं होते हुए भी, परवश होने के कारण उसका आत्मा से संयोग हो जाता है । दोनों ही अर्थों का सम्बन्ध कृतकृत्यता से नहीं है, जिसका सन्दर्भ चल रहा है । और न ही अगले सूत्र से है, जिसमें कि ईश्वर के गुणों का वर्णन किया गया है । और न ही ईश्वर प्रकृति से संयुक्त होता है, न प्रकृति अकार्य है । इस प्रकार दोनों अर्थ हेय हैं ।

अब यदि पिछले सूत्र के मेरे अर्थ लें, तो अनायास ही इस सूत्र के भी अर्थ निकल आते हैं, जो कि अगले सूत्र से भी सम्बन्ध रखते हैं – जीवात्मा का प्रकृति का कार्य न होने पर भी, उसका संयोग प्रकृति से होता है, आत्मा व प्रकृति की परवशता के कारण । पिछले सूत्र में हमने अर्थ देखा था कि जीवात्मा पुनः पुनः शरीर धारण करता है । तो प्रश्न उठता है कि क्या जीव प्रकृति का कार्य है कि वह इस प्रकार पुनः पुनः प्रकृति से उत्पन्न होता रहता है, जैसे कि सूर्यादि उत्पन्न होते रहते हैं ? अथवा, यदि वह प्रकृति से भिन्न है, तो उसे कौन प्रकृति से जोड़ता है ? वह स्वयं तो अपने को जोड़ता हुआ नहीं प्रतीत होता । तो फिर उसे कौन जोड़ता है ? इन प्रश्नों के उत्तर सूत्र में प्राप्त होते हैं – जीवात्मा प्रकृति का कार्य नहीं है, तथापि उसका प्रकृति से जो पुनः पुनः संयोग होता रहता है, वह किसी तीसरी सत्ता  की परवशता के कारण है, जिसका वर्णन अगले सूत्र में प्राप्त होता है –

स  हि  सर्ववित्  सर्वकर्ता ॥३।५६॥

भाषार्थ : वह अवश्य ही सब जानने वाला (विद ज्ञाने) अथवा सर्वत्र विद्यमान् (विद सत्तायाम्), सब का कर्ता है ।

प्रचलित अर्थ : प्रकृति जिसके वश में है (पूर्व सूत्र से), वह सत्ता सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सब जगत् की रचयिता है । यहां विशेषण तो सही हैं, परन्तु ईश्वर के ये गुण यहां क्यों कहे गए हैं, वह क्यों प्रकृति से अपने को, अथवा आत्मा को प्रकृति से बांधता है, इन प्रश्नों का उत्तर नहीं निकला । इसलिए पुनः यहां प्रासंगिकता पूर्ण नहीं हुई ।

मेरे अर्थों को आगे ले जाते हुए – जिसके वश में जीवात्मा है, वह ईश्वर (अगले सूत्र से अध्याहृत पद) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वकर्ता है । परमात्मा को जीवों के सारे कर्म जानने के लिए (जिसके अनुसार वह आत्मा को अगला जन्म देगा – सूत्र ३।४६-५१ में जिसकी चर्चा हुई थी), सर्वज्ञ व सर्वव्यापी होना ही पड़ेगा । यदि कोई भी ऐसी बात होगी जो उसके ज्ञान के बाहर होगी, तो उससे वह ब्रह्माण्ड व जीव का नियन्त्रण खो देगा, जीव के कर्म का फल देने में अक्षम हो जाएगा । यदि कोई एक भी ऐसा स्थान होगा, जहां उसकी पहुंच नहीं होगी, तो वहां किया हुआ जीव का कर्म उसे पुनः ज्ञात नहीं हो सकेगा । यदि वह ब्रह्माण्ड के किसी भी कर्म को करने में अक्षम होगा, तो पुनः जीव को कर्मफल नहीं दे पाएगा । इस प्रकार, जो भी जीव व प्रकृति पर नियन्त्रण रखेगा, उसमें ये तीन गुण अनिवार्यता से होने पड़ेंगे । इस प्रकार यह सूत्र पिछले सूत्र के विषय को ही आगे बढ़ाता हुआ, उसे स्पष्ट करता है ।

इस अर्थ के द्वारा अगला सूत्र भी उपपन्न हो जाता है –

ईदृशेश्वरसिद्धिः  सिद्धा ॥३।५७॥

भाषार्थ : इस उपर्युक्त प्रकार के ईश्वर की सिद्धि सिद्ध है ।

प्रचलित अर्थ : इस प्रकार के ईश्वर की सिद्धि इस शास्त्र में दृढ़ता से की गई है । अथवा इस प्रकार के ईश्वर की सत्ता सिद्ध = अनिवार्य है । वस्तुतः, यह सिद्धि  पूरे शास्त्र में ऊपर ही हुई है, अन्यत्र नहीं । और उपर्युक्त सिद्धि-वचन को पुनः बताना कि ऐसा ईश्वर सिद्ध है, इसमें पुनरुक्ति का दोष आता है । इसलिए दोनों ही व्याख्याएं दोषपूर्ण हैं । 

इस वचन को समझने के लिए एक छोटी बात पर ध्यान देना अनिवार्य है – वाक्य का दूसरा पद ‘सिद्धा’ क्यों है ? यदि ईश्वर को सिद्ध बताना था, तो कहा जाता – “ईदृशेश्वरः सिद्धः” वाक्य बनता । सिद्धि को सिद्ध कहना तो स्वयं पुनरुक्ति है ! इसलिए यह समझ में आता है कि यहां ‘सिद्धा’ पद किसी अन्य शब्द का विशेष्य है । स्त्रीलिंग में होने के कारण उसका विशेष्य, जिसकी अनुवृत्ति चली आ रही है, वह भी स्त्रीलिंग में होगा । अब जब हम प्रसंग पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि यहां आत्मा की कृतकृत्यता का प्रसंग चल रहा है । सो, उसी ‘कृतकृत्यता’ का यहां भी विषय है, वही यहां विशेष्य है ! ऐसा समझ लेने पर आगे का काम कुछ आसान हो जाता है और अर्थ बनता है – उपर्युक्त ईश्वर की प्राप्ति हो जाने पर, आत्मा की कृतकृत्यता सिद्ध हो जाती है । इस प्रकार, सूत्र ३।५४ से जो हम आत्मा की कृतकृत्यता कैसे हो, यह प्रश्न पूछ रहे थे, उसका उत्तर हमें इस सूत्र में मिल गया – उस महान ईश्वर को ढूढ़ों जो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी व संसार का रचयिता है, जिसने तुम्हें शरीर से संयुक्त किया – उसी में तुम्हारे जीवन की सिद्धि है । 

यह व्याख्या सही है, इसका एक अन्य संकेत यह भी है कि यहां पर कृतकृत्यता का विषय समाप्त हो जाता है, और अगले सूत्र से प्रकृति की सार्थकता पर चर्चा प्रारम्भ हो जाती है । यदि प्रचलित व्याख्याओं को मानें, तो उनमें कृतकृत्यता पाने का मार्ग इस प्रकरण में प्राप्त नहीं होता, जो कि इस प्रसंग को निरर्थक बना देता है ।

सांख्य के उपर्युक्त चार सूत्रों की प्रचलित व्याख्या में हम विषय को पग-पग पर अकारण बदलते पाते हैं, जो कि प्रसंगानुकूल भी नहीं प्रतीत होता । जब हम प्रसंगानुसार सूत्रों के अर्थों को केवल आगे-पीछे के सूत्रों के शब्दों को देखकर करते हैं, तो ज्ञात होता है कि कपिल हमें एक अपूर्व शिक्षा दे रहे हैं – जीवात्मा का शरीर से योग सर्वशक्तिमान् ईश्वर करते हैं, इस विषय में आत्मा का कोई हस्तक्षेप सम्भव नहीं है । उन ईश्वर को जानकर ही आत्मा कृतकृत्य होकर जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता है । यहां कपिल ईश्वर के गुणों का प्रतिपादन करके अपनी आस्तिकता को भी स्थापित करते हैं । फिर उनको अनीश्वरवादि कहना, जैसा कि वेदान्ती आदि मतानुयायी करते हैं, कितना अन्याय है ! अवश्य ही आधा पढ़ा होना, न पढ़ने से अधिक घातक है !