साङ्ख्यदर्शन का एक संक्षिप्त परिचय

प्राचीन भारत के दार्शनिक विचार के प्रणेताओं षड्दर्शनों में से एक है साङ्ख्यदर्शन । अन्य दर्शनों के समान, दर्शनकार कपिल महर्षि इस ग्रन्थ का लक्ष्य मोक्ष बताते हैं । योग, न्याय और वैशेषिक दर्शनों के अनेक सिद्धान्त इस दर्शन में प्रायः उन्ही शब्दों में पाए जाते हैं । इससे इन सबका मतैक्य स्पष्ट होता है । साङ्ख्य में, मोक्ष को लक्षित करके, प्रकृति, जीव व ईश्वर के गुण, कर्म व सम्बन्ध पर विस्तृत विचार किया गया है । निष्कर्षों को सिद्ध करने के लिए न्याय में बताई तर्क करने की पद्धति का प्रयोग किया गया है । इसलिए न्यायदर्शन के विद्यार्थियों को इस दर्शन में तर्क के प्रकारों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए । इस लेख में मैं साङ्ख्य का एक संक्षिप्त परिचय दे रही हूं और उसकी कुछ प्रमुख मान्याताओं पर प्रकाश डाल रही हूं ।

साङ्ख्य का अर्थ यहां ’सङ्ख्या से सम्बद्ध’ न होकर, ’सम्यक् ख्यानम्’ अर्थात् ’विशेष विचार’ है । इसके रचयिता महर्षि कपिल हैं । जबकि ग्रन्थ में तो इनके विषय में कुछ नहीं दिया है, परन्तु पुराणों में इनका और इस ग्रन्थ का कुछ वर्णन मिलता है । इससे इनका काल तो पुराणों से भी प्राचीन, अर्थात् अति-प्राचीन स्थापित होता है । दर्शन में छः अध्याय हैं । इस कारण यह षडध्यायी के नाम से भी प्रख्यात है । उदयवीर शास्त्रीजी ने, अपने गहन अन्वेषण से, ग्रन्थ के ७६ सूत्रों को प्रक्षिप्त बताया है । उनको छोड़ ग्रन्थ में ४५१ सूत्र हैं । इसके मुख्य विषय हैं – सृष्टि के कारण, जीव का बन्धन और मोक्ष-प्राप्ति के उपाय ।

  • सर्वप्रथम तो ग्रन्थ मोक्ष के ऊपर ही विचार करता है कि क्यों हम मोक्ष की इच्छा भी करें । श्रुति के प्रमाण से इस पद के सर्वोत्कृष्ट होने से[1], जिसमें दुःख का सर्वथा अभाव होता है[2], इसे वाञ्छित बताया गया है । जहां मोक्ष में दुःख का अत्यन्त अभाव होता है[3], वहीं वहां किसी विशेष आनन्द की प्राप्ति को मानना कपिल ने मूर्खता बताया है[4] । उनके अनुसार, मुक्ति केवल कठिनाइयों की समाप्ति है, और कुछ भी नहीं[5] । वस्तुतः, दुःख का अभाव ही बहुत आनन्दपूर्ण होता है ! मोक्ष में आत्मा को कृत्कृत्यता प्राप्त हो जाती है । इसलिए इस परम पद के लिए अत्यन्त पुरुषार्थ करना चाहिए[6] । 
    परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने पर, जैसे प्रकृति जीव के लिए ’नाचना’ बन्द कर देती है[7], और प्रधान, अर्थात् मूल प्रकृति, की सृष्टि उसके लिए बन्द हो जाती है । जीव जीता रहता है, और उसके पूर्व कर्मों का फल उसे मरण-पर्यन्त प्राप्त होता रहता है[8] । परन्तु उसके वर्तमान कर्म निष्काम हो जाते हैं और फल देना बन्द कर देते हैं । उसका शरीर चक्र के समान बस चलता रहता है । इसको जीवन्मुक्त दशा कहते है[9] । मोक्ष में न तो किसी स्वर्ग आदि विशेष स्थान की प्राप्ति होती है, न ही जीवात्मा-रूपी एक भाग ब्रह्म-रूपी भागी से जाकर जुड़ जाता है[10] । यह अद्वैतवाद के मुख्य सिद्धान्त का खण्डन है ।
  • मोक्ष के उपदेश से यह भी सिद्ध होता है कि जीवात्मा स्वभाव से बद्ध नहीं है[11], क्योंकि स्वभाव का कभी नाश नहीं होता[12] । प्रत्युत, जीवात्मा स्वभाव से मुक्त ही है । यही नहीं नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव वाली है[13] । अन्यत्र कपिल दोहराते हैं कि असङ्गोऽयं पुरुष इति ॥ १।१५ ॥ अर्थात् जीवात्मा असङ्ग है, उसका प्रकृति से संयोग ऊपरी है, और वह शरीर आदि से भिन्न है[14] । वस्तुतः वह प्रकृति से चिपकता नहीं है । अहङ्कार व बुद्धि से जुड़ता अवश्य है, परन्तु उनसे भी सूक्ष्म होने के कारण, उनसे अलग ही रहता है । इस ’सङ्ग’ को ऐसा माना जा सकता है, जैसे पशु रस्सी से बन्धा होता है[15] ।
    कपिल आत्मा को निर्गुण बताते हैं[16], जो प्रकृति से योग होने पर, अविवेक के कारण, अपने में प्रकृति के गुण देखने लगती है[17] ।
  • तर्कों और प्रमाणों द्वारा साङ्ख्य ने पूर्णतया स्थापित कर दिया कि मूल प्रकृति ही संसार का उपादान कारण है[18] । क्या ईश्वर या जीव इसका उपादान कारण हो सकते हैं? – इस पर विचार करके इन्हें असिद्ध ठहराया गया है । “ईश्वरासिद्धेः (१।५७)” – इस प्रसिद्ध सूत्र से उन्होंने बताया कि ईश्वर को जगत् के उपादान रूप में सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि ईश्वर को बद्ध मानें या मुक्त, या अन्य किसी अवस्था में, अचेतन प्रकृति में वे नहीं बदल सकते[19] । जीव के परिछिन्न होने से, वह भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का उपादान कारण नहीं हो सकता[20] ।
    मूल प्रकृति में सत्त्व, रज और तम (जिनको कि प्रकृति के पृथक्-पृथक् तत्त्व ही मानना पड़ेगा[21]) का बराबर में होना बताया है । जब इनकी मात्राओं में भेद उत्पन्न होता है, तो अन्य विकार उत्पन्न होते हैं, जिनका क्रम इस प्रकार है – महत्, अहङ्कार, पञ्च तन्मात्र, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय व मन, पञ्च स्थूलभूत । जीवात्मा को मिलाकर ये २५ तत्त्व बनते हैं[22] जिनका कि अनुमान से ज्ञान किया जा सकता है (देखिए मेरा पूर्व लेख – सृष्टि-तत्त्वों का अनुमान से ज्ञान) ।
  • परमात्मा के विषय में साङ्ख्य कहता है – ईश्वर सर्ववित् और सर्वकर्ता है[23] । उसमें आनन्द है जो कि जीवात्मा में नहीं पाया जाता[24] ।
  • साङ्ख्य ने तीन प्रमाण गिनाए हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान व शब्द । इस प्रकार, न्याय में दिए चार प्रमाणों के उपमान प्रमाण को कपिल ने अनुमान के अन्तर्गत ही मान लिया है । प्रत्यक्ष के अन्तर्गत उन्होंने योगियों के इन्द्रियातीत ज्ञान को भी माना है[25] । न्यायदर्शन में केवल इन्द्रियों से उपलब्ध ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना गया है । परन्तु कपिल ने किसी भी विषय से जुड़ कर प्राप्त ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है[26] । 
    अनुमान के लिए कपिल ने एक सुन्दर परिभाषा दी है – प्रतिबन्ध को देखकर जो प्रतिबद्ध का अनुमान लगता है[27] । विमान की ध्वनि विमान से प्रतिबद्ध है । इसलिए उसे सुनकर, विमान का अनुमान होता है ।
    शब्द की परिभाषा तो उन्होंने आप्तोदेश ही माना है[28], परन्तु शब्द बोध कैसे कराता है, उसका उन्होंने एक सुन्दर दृष्टान्त दिया है – जिस प्रकार लोहा तपने पर अग्नि-रूप हो जाता है, उसी प्रकार शब्द अन्तःकरण को अपने विषय से जैसे उज्ज्वलित कर देता है [29]
  • वेदों पर बृहत् चर्चा करके, वेदों को अपौरुषेय और स्वतःप्रमाण स्थापित किया गया है[30] । उनकी वेदों पर श्रद्धा इस वाक्य से स्पष्ट होती है कि, प्रत्यक्ष में वेद-वचन से कुछ विपरीत दिखने पर भी, श्रुति ही को सही मानना चाहिए[31] ।
  • साङ्ख्य का एक प्रमुख सिद्धान्त (axiom) है कि किसी भी वस्तु की उत्पत्ति अवस्तु = शून्य से नहीं हो सकती – नावस्तुना वस्तुसिद्धिः ॥ १।४३ ॥ नासदुत्पादो नृशृङ्गवत् ॥ १।७९ ॥ इस सिद्धान्त को ’सत्कार्यवाद’ कहा जाता है । इसलिए जगत् मिथ्या नहीं है, परन्तु सत्य है, सत्तावाला है । सत्कार्यवाद को इस सूत्र से भी माना जाता है – उभयथाप्यसत्करत्वम् ॥१।५९॥ – अर्थात् दोनों ही मुक्त या बद्ध अवस्थाओं में ईश्वर ’सत्करत्वम्’ = अचेतन जगत् का उपादान कारण नहीं हो सकता ।
    इसी से सम्बद्ध एक वाक्य है – मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ॥ १।३२ ॥ – मूल का मूल ढूढ़ना व्यर्थ है क्योंकि जिसका कोई मूल = कारण न हो, उसी को मूल कहा जाता है । इससे कपिल ने अनावस्था दोष को दर्शाया है । प्रकृति के मूल में एक ही तत्त्व हो सकता है, वह अनन्तता तक विकृत नहीं हो सकती ।
  • साङ्ख्य एक ’उपादान नियम’ का प्रतिपादन करता है[32] कि जिसमें जैसी शक्ति है, वह वैसे ही कार्य उत्पन्न कर सकता है[33] । जैसे, हम देखते हैं कि पीपल के पेड़ से पीपल का पेड़ ही उत्पन्न हो सकता है, अशोक का नहीं या मनुष्य को नहीं । इसीलिए असत् से सत् नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि यदि ऐसा हो सकता तो सब काल में और सब स्थान में कुछ भी उत्पन्न हो सकता[34]। इस प्रकार यह नियम सत्कार्यवाद का ही एक दूसरा रूप है । इस नियम से कार्य से कारण का अनुमान होता है, क्योंकि कार्य पूरी तरह कारण के गुण नहीं त्यागता[35] ।
  • साङ्ख्य का अन्य एक सिद्धान्त है कि कोई भी परिणाम निरर्थक नहीं है । फिर, क्योंकि निर्जीव प्रकृति के परिणाम उसके लिए तो हुए नहीं हैं, और न ही परमेश्वर उनका भोग करता है । इसलिए यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जीवात्मा के लिए ही उत्पन्न हुआ है[36] ।
  • कार्य और कारण में भेद बताने के लिए कपिल कहते हैं कि कार्य वह होता है, जिसमें ये गुण होते हैं[37] –
  • हेतुमत् – उसका कारण विद्यमान होता है । मूल कारण का कारण नहीं होता, जैसे ऊपर कहा गया ।
  • अनित्य – क्योंकि उसका आदि होता है, इसलिए वह अन्त वाला भी होता है । मूल कारण अनन्त होता है क्योंकि, अन्त में, कार्य अपने कारणों में बदल जाता है, उसका सर्वथा नाश नहीं होता[38] । यह भी सत्कार्यवाद के अन्तर्गत समझना चाहिए, क्योंकि जैसे असत् से सत् नहीं बनता, वैसे ही सत् कभी भी असत् नहीं हो सकता ।
  • सक्रिय – कार्य में क्रिया होती है क्योंकि वह सीमित परिमाण का होता है, जबकि मूल कारण में क्रिया के लिए आवश्यक आकाश (=अवकाश) नहीं होता । क्योंकि आकाश कार्य तो है, परन्तु क्रियावान् नहीं, इसलिए मानना पड़ेगा कि यहां स्थूलभूतों से उत्पन्न कार्यों के विषय में ही कहा गया है, उनसे पूर्व कहे महत्, अहंकार, आकाश, आदि पर यह लक्षण नहीं घटता ।
  • अनेक – जिन कारणों के संयोग से एक कार्य उत्पन्न होता है, इन्हीं कारणों के पुनः संयुक्त होने से, उसका जैसा एक अन्य भी बन सकता है – और बनता है ! सो, कार्य अनेक होते हैं । पुनः आकाश और उससे पूर्व के कार्यों पर यह नहीं घटता ।
  • आश्रित – कार्य अपने कारणों पर आश्रित होता है ।
  • जीव के बन्धन पर बहुत तर्क करने के बाद, यह स्थापित किया जाता है, कि कर्म जीव के बन्धन का कारण नहीं हैं, क्योंकि कर्म अन्य वस्तु (शरीर/प्रकृति) के धर्म हैं[39]। यह बहुत ही विचित्र वाक्य है ! हम तो सुनते आए हैं कि जीव अपने कर्मानुसार दुःख-सुख का भोग करते हैं । और साङ्ख्य इस तथ्य को भी मानता हुआ दिखाई देता है[40] । तथापि जहां एक ओर जीव कर्म का कर्ता होता है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति, विशेषकर अहङ्कार, उससे वह कर्म करवाता है[41] (विस्तृत विवरण के लिए, मेरे पिछले मास के लेख, ’कर्ता कौन’ को पढ़िए) ।
  • प्रधान में अविवेक को जन्म-रूपी बन्धन का कारण दर्शाया गया है[42] । मूल प्रकृति में अविवेक, अर्थात् शरीर और अन्य भोगों के प्रति राग-द्वेष[43], के कारण ही आत्मा बन्धन में आता है[44] । अतः, इस अविवेक को दूर करने से मोक्ष-प्राप्ति होती है और मोक्ष के बाद पुनः जन्म नहीं होता[45] । पुनरावृत्ति मानने में दोष भी हैं, ये भी उन्होंने दर्शाया है (६।१८-१९) । 
    तथापि, इस वचन को अन्य दो वचनों के परिपेक्ष में समझना चाहिए, जहां एक कहता है कि अनादि काल से आजतक सब आत्माओं की मुक्ति होने से संसार का अभाव नहीं हुआ है, इसलिए भविष्य में भी नहीं होगा[46] । दूसरा वचन कहता है कि जैसा इस काल में नहीं है, वैसे ही सारे कालों में संसार का अत्यन्त उच्छेद मानना युक्तियुक्त नहीं है[47] । यह तभी सम्भव है जब मुक्तात्माएं पुनर्जन्म लें, नहीं तो एक समय ऐसा होना निश्चित है जब सभी आत्माएं मुक्त हो जाएंगी । ऋषि दयानन्द के उपदेशानुसार हमें ’अनावृत्ति’ से ’लम्बे काल तक के लिए’ ही समझना चाहिए । 
    इस अविवेक के कारण हम इस शरीर को अपना रूप समझने लगते हैं । इसके निवारण के लिए विवेक-ख्याति में यज्ञ, आदि, परोपकार-कर्म या बौद्धिक ज्ञान या युक्तियां कारण नहीं होते[48], अपितु परमात्मा का साक्षात्कार ही कारण है[49] । यह पूर्णतया वेद के कथन के अनुसार है – तमेव विदित्वाति मृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ यजु०३१।१८ ॥ साक्षात्कार करने का मार्ग, योगदर्शनानुसार, कपिल ने ध्यान, धारणा, समाधि, अभ्यास और वैराग्य, आदि, के द्वारा चित्त की वृत्तियों के निरोध से बताया है[50] । कुछ सूत्र तो योगदर्शन से ही उद्धृत लगते हैं ! परन्तु कपिल ने एक नया उपाय भी बताया है – यथार्थ को ढूढ़ते जाओ, और “मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं” – ऐसा सोचते हुए भोगों को त्यागते जाओ[51] । जो लोग इस विवेक-ख्याति से अन्य किसी मार्ग से परमात्मा की प्राप्ति बताते हैं, उनको कभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती[52] ।
    शरीर के अभाव में यह विवेक कैसे उत्पन्न होता है, यह स्पष्ट नहीं किया गया है । कपिल के अनुसार तो मोक्ष से पुनरागमन नहीं होता, परन्तु यदि हम यह माने कि मोक्ष विवेक-ख्याति हो जाने पर होता है, और मोक्ष से इस संसार में पुनरागमन होता है, तो स्पष्टतः यह अविवेक परमात्मा ही हममें उत्पन्न करते हैं (इसका कुछ संकेत उपर्युक्त बिन्दु २ पर १।१९ सूत्र से भी प्राप्त होता है, जहां योग का कारण परमात्मा को ही माना जा सकता है) । इसीलिए उसका निवारण भी अन्ततः उनके ही हाथ में है !
  • कर्म के अनुसार जीव को योनि और भोग प्राप्त होते हैं[53] । पूरी सृष्टि की विचित्रता ही कर्मों की विचित्रता के कारण है – विभिन्न आत्माओं को विभिन्न भोग प्राप्त कराने के लिए[54] । इन असंख्य भोगों से धर्माधर्म की भी सिद्धि मानी गई है[55] । यदि धर्माधर्म न होते तो इतने सारे प्रकार के भोग बनाने की आवश्यकता ही क्या थी ?! ये धर्म वास्तव में अन्तःकरण के धर्म हैं, और प्रकृति के गुणों से ही जनित हैं[56] । इन गुणों के अनुसार ही हमारा व्यक्तित्व होता है – सात्त्विक जनों में प्रीति की अधिकता, राजसिक में अप्रीति और तामसिक में विषाद पाया जाता है[57] । इस प्रकार ऊंची योनियों में सत्त्व गुण की मात्रा अधिक होती है, नीची में तम की, और बीच वालियों में रज की[58] । शरीर के कारण ही हमें सुख-दुःख की संवेदना होती है[59] । शरीर के सुख-दुःख में हम अपने को हुए सुख-दुःख का अभिमान करते हैं[60] ।
  • मोक्षार्थी के लिए सांसारिक सुख भी दुःख तुल्य होता है[61] ।
  • हमारे कर्तव्य कर्म वे हैं, जो हमारे आश्रम के लिए विहित हैं[62] ।
  • जीवों का अनेक होना भी स्थापित किया गया है[63] और अद्वैतवाद का कड़ा खण्डन किया गया है[64] । जगत् मिथ्या नहीं हो सकता, इसके लिए तर्क दिए गए हैं[65] ।
  • आजकल के वैज्ञानिक जो गणित के बल पर दृष्ट को असत्य स्थापित करने की चेष्टा करते हैं (जैसे Quantum Physics के अनुसार एक अणु एक समय में दो स्थानों पर, या उनमें से किसी एक स्थान पर हो सकता है, जिसके कारण दर्पण में आपका प्रतिबिम्ब क्षण- क्षण बदलता रहना चाहिए), उनके लिए कपिल कहते हैं – जो प्रमाण से दृष्ट है, उसका कल्पना से विरोध नहीं हो सकता[66] ।

क्योंकि साङ्ख्य में ईश्वर, जीव और प्रकृति की सत्ता को स्पष्टतया सिद्ध किया गया है, और माया जैसे किसी असत् पदार्थ से इस संसार की उत्पत्ति का खण्डन किया गया है, इसलिए यह दर्शन वेदान्तियों को सदा खटकता रहा है । “ईश्वरासिद्धेः (१।५७)” सूत्र को लेकर इसमें अनीश्वरवाद थोपने का प्रयास किया गया है । सूत्र के वास्तविक अर्थ और ईश्वर-परक सूत्रों की अवहेलना कि गई है । वस्तुतः, यह दर्शन सृष्टि की अनेक पहेलियों को तर्कों-सहित समझाता है । इसलिए यह प्रत्येक आत्म-चिन्तन करने वाले के लिए गम्भीरता से पढ़ने योग्य है । इसके तर्कों को समझकर, उसके निष्कर्षों का प्रचार करने योग्य है ।


[1] उत्कर्षादपि मोक्षस्य सर्वोत्कर्षश्रुतेः ॥१।५॥

[2] विवेकान्निःशेषदुःखनिवृतौ कृतकृत्यता नेतरात् ॥३।८४॥

[3] अत्यन्तदुःखनिवृत्त्या कृतकृत्यता ॥६।५॥

[4] दुःखनिवृत्तेर्गौणः ॥ विमुक्तिप्रशंसा मन्दानाम् ॥५।६३-४॥ नानन्दाभिव्यक्तिर्मुक्तिर्निर्धर्मत्वात् ॥५।७०॥

[5] मुक्तिरन्तरायध्वस्तेर्न परः ॥६।२०॥

[6] अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः ॥१।१॥

[7] नर्तकीवत् प्रवृत्तस्यापि निवृत्तोश्चारितार्थ्यात् ॥३।६९॥

[8] बाधितानुवृत्या मध्यविवेकतोऽप्युपभोगः ॥३।७७॥ संस्कारलेशतस्तत्सिद्धिः ॥३।८३॥

[9] चक्रभ्रमणवद् धृतशरीरः ॥३।८२॥ जीवन्मुक्तश्च ॥३।७८॥

[10] न देशादिलाभोऽपि ॥ न भागियोगो भागस्य ॥५।७५-६॥

[11] न स्वभावतो बद्धस्य मोक्षसाधनोपदेशविधिः ॥१।७॥

[12] स्वभावस्यानपायित्वादननुष्ठानलक्षणमप्रामाण्यम् ॥१।८॥

[13] न नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावस्य तद्योगस्तद्योगादृते ॥ १।१९ ॥

[14] शरीरादिव्यतिरिक्तः पुमान् ॥१।१०४॥

[15] प्रकृतेराञ्जस्यात् ससङ्गत्वात् पशुवत् ॥३।७२॥

[16] निर्गुणत्वमात्मनोऽसङ्गत्वादिश्रुतेः ॥६।१०॥ निर्गुणत्वात् तदसम्भवादहङ्कारधर्मा ह्येते ॥६।६२॥

[17] परधर्मत्वेऽपि तत्सिद्धिरविवेकात् ॥६।११॥ निःसङ्गेऽप्युपरागोऽविवेकात् ॥६।२७॥

[18] प्रकृतेराद्योपादानतान्येषां कार्यत्वश्रुतेः ॥६।३२॥

[19] मुक्तबद्ध्योरन्यतराभावान्न तत्सिद्धिः ॥ उभयथाप्यसत्करत्वम् ॥१।५८-९॥

[20] परिछिन्नं न सर्वोपादानम् ॥१।४१॥

[21] सत्त्वादीनामतद्धर्मत्वं तद्रूपत्वात् ॥६।३९॥

[22] सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः ॥१।२६॥

[23] स हि सर्ववित् सर्वकर्ता ॥ ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा ॥ ३।५६-५७ ॥

[24] नैकस्यानन्दचिद्रूपत्वे द्वयोर्भेदात् ॥५।६२॥

[25] योगीनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोषः ॥१।५५॥

[26] यत् सम्बद्धं सत् तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत् प्रत्यक्षम् ॥१।५४॥

[27] प्रतिबन्धदृशः प्रतिबद्धज्ञानमनुमानम् ॥१।६५॥

[28] आप्तोदेशः शब्दः ॥१।६६॥

[29] अन्तःकरणस्य तदुज्ज्वलितत्वाल्लोहवदधिष्ठातृत्वम् ॥१।६४॥

[30] न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात् ॥५।४६॥ निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम् ॥५।५१॥

[31] श्रुत्या सिद्धस्य नापलापस्तत्प्रत्यक्षबाधात् ॥१।११२॥

[32] उपादाननियमात् ॥१।८०॥

[33] शक्तस्य शक्यकरणात् ॥१।८२॥ कारणभावाच्च ॥१।८३॥

[34] सर्वत्र सर्वदा सर्वासम्भवात् ॥१।८१॥

[35] कार्यात् कारणानुमानं तत्साहित्यात् ॥१।१००॥

[36] संहतपरार्थत्वात् पुरुषस्य ॥ १।३१ ॥ संहतपरार्थत्वात् ॥१।१०५ ॥ विमुक्तमोक्षार्थं स्वार्थं वा प्रधानस्य ॥२।१॥ पुरुषार्थं करणोद्भवोऽप्यदृष्टोल्लासात् ॥२।३६॥ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं तत्कृते सृष्टिराविवेकात् ॥३।४७॥ स्वभावाच्चेष्टितमनभिसन्धानात् भृत्यवत् ॥३।६१॥

[37] हेतुमदनित्यं सक्रियमनेकाश्रितं लिङ्गम् ॥१।८९॥

[38] नाशः कारणलयः ॥१।८६॥

[39] न कर्मणान्यधर्मत्वादतिप्रसक्तेश्च ॥१।१६॥

[40] द्रष्टृत्वादिरात्मनः करणत्वमिन्द्रियाणाम् ॥२।२९॥ विचित्रभोगानुपपत्तिरन्यधर्मत्वे ॥१।१७॥ चिदवसानो भोगः ॥१।६९॥ भोक्तृभावात् ॥१।१०८॥ चिदवसाना भुक्तिस्तत्कर्मार्जितत्वात् ॥६।५५॥

[41] उपरागात् कर्तृत्वं चित्सान्निध्यात् ॥१।१३९॥ अकर्तुरपि फलोपभोगोऽन्नाद्यवत् ॥१।७०॥ अहङ्कारः कर्ता न तु पुरुषः ॥६।५४॥ निर्गुणत्वात् तदसम्भवादहङ्कारधर्मा ह्येते ॥६।६२॥ अहङ्कारकर्त्रधीना कार्यसिद्धिर्नेश्वरधीना प्रमाणाभावात् ॥६।६४॥

[42] प्रकारान्तरासम्भवादविवेक एव बन्धः ॥६।१६॥

[43] रागविरागयोर्योगः सृष्टिः ॥२।९॥

[44] प्रधानाविवेकादन्याविवेकस्य तद्धाने हानम् ॥ १।२२ ॥

[45] तत्र प्राप्तविवेकस्यानावृत्तिश्रुतिः ॥१।४८॥ न मुक्तस्य बन्धयोगोऽप्यनावृत्तिश्रुतेः ॥६।१६॥

[46] अनादावद्ययावदभावाद् भविष्यदप्येवम् ॥१।१२३॥

[47] इदानिमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः ॥१।१२४॥

[48] न दृष्टात्तत्सिद्धिर्निवृत्तेऽप्यनुवृत्तिदर्शनात् ॥१।२॥ युक्तितोऽपि न बाध्यते दिङ्मूढवदपरोक्षादृते ॥१।२४॥ नानुश्रविकादपि तत्सिद्धिः साध्यत्वेनावृत्तियोगादपुरुषार्थत्वम् ॥१।४७॥ न श्रवणमात्रात् तत्सिद्धिरनादिवासनाया बलवत्त्वात् ॥२।३॥ नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ ॥३।२३॥

[49] साक्षात् सम्बन्धात् साक्षित्वम् ॥ नित्यमुक्तत्वम् ॥१।१२६-७॥ ज्ञानान्मुक्तिः ॥३।२४॥ विविक्तबोधात् सृष्टिनिवृत्तिः प्रधानस्य सूदवत् पाके ॥३।६३॥ नैकान्ततो बन्धमोक्षौ पुरुषस्याविवेकादृते ॥३।७१॥

[50] तन्निवृत्तावुपशान्तोपरागः स्वस्थः ॥२।३४॥ ध्यान धारणाभ्यासवैराग्यादिभिस्तन्निरोधः ॥६।२९॥

[51] तत्त्वाभ्यासान्नेतिनेतीति त्यागाद्विवेकसिद्धिः ॥३।७५॥

[52] श्रुतिविरोधान्न कुतर्कापसदस्यात्मलाभः ॥६।३४॥

[53] व्यक्तिभेदः कर्मविशेषात् ॥३।१०॥

[54] कर्मवैचित्र्यात् सृष्टिवैचित्र्यम् ॥६।४२॥ कर्मवैचित्र्यात् प्रधानचेष्टा गर्भदासवत् ॥३।५१॥ कर्माकृष्टेर्वानादितः ॥३।६२॥

[55] न धर्मापलापः प्रकृतिकार्यवैचित्र्यात् ॥५।२०॥

[56] अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् ॥ गुणादीनाञ्च नात्यन्तबाधः ॥५।२५-२६॥

[57] प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योऽन्यं वैधर्म्यम् ॥ सां० १।९२ ॥

[58] ऊर्ध्वं सत्त्वविशाला । तमोविशाला मूलतः । मध्ये रजोविशाला ॥३।४८-५०॥

[59] पञ्चावयवयोगात् सुखसंवित्तिः ॥५।२७॥

[60] जपास्फटिकयोरिव नोपरागः किन्त्वभिमानः ॥६।२८॥

[61] तदपि दुःखशबलमिति दुःखपक्षे निक्षिपन्ते विवेचकाः ॥६।८॥

[62] स्वकर्म स्वाश्रमविहित कर्मानुष्ठानम् ॥३।३५॥

[63] जन्मादिव्यवस्थातः पुरुषबहुत्वम् ॥१।११४॥

[64] एवमेकत्वेन परिवर्तमानस्य न विरुद्धधर्माध्यासः ॥ अन्यधर्मत्वेऽपि नारोपात् तत्सिद्धिरेकवत् ॥ नाद्वैतश्रुतिविरोधो जातिपरत्वात् ॥१।११७-९॥ वामदेवादिर्मुक्तो नाद्वैतम् ॥१।१२२॥ नाद्वैतमात्मनो लिङ्गात् तद्भेदप्रतीतेः ॥५।५७॥ उपाधिश्चेत् तत्सिद्धौ पुनर्द्वैतम् ॥६।४६॥

[65] जगत्सत्यत्वमदुष्टकारणजन्यत्वाद् बाधकाभावात् ॥६।५२॥

[66] न कल्पनाविरोधः प्रमाणदृष्टस्य ॥२।२५॥