साङ्ख्यदर्शन के कुछ सिद्धान्त

भारतीय दार्शनिक विचारों के प्रणेता, साङ्ख्य-दर्शन, के विषय में मैंने पूर्व भी कई लेख लिखे हैं । जहां न्यायदर्शन प्रमाणों और ऊहा के अन्य अवयवों को निर्धारित करता है, वस्तुतः सांख्य ही उनका प्रयोग करते हुए प्रमेयों को स्थापित करता है । ऐसा करते हुए, उसके रचयिता, महर्षि कपिल, अनेक सिद्धान्तों को अपने ग्रन्थ में ग्रथित करते जाते हैं, जो कि सभी को जानने और प्रयोग करने योग्य हैं । उनमें से कुछ मैंने आपके लिए चुने हैं । आशा है आपको पसन्द आयेंगे ! 

इनमें से मुझे जो सबसे प्रिय है, वह है –

                        मूले  मूलाभावादमूलं  मूलम् ॥१।३२॥

अर्थात् मूल में मूल का अभाव होने के कारण मूल बिना मूल वाला होता है । इस प्रकार यह परिभाषा बताती है कि किसी भी वस्तु को मूल तभी माना जाना चाहिए, जब उसके मूल में कुछ न हो । यह वाक्य सृष्टि के मूल उपादान कारण प्रकृति के सन्दर्भ में कहा गया है, परन्तु सभी विषयों के लिए उपयुक्त है । यहां तक कि वृक्ष के मूल को भी यह परिभाषित करता है ! किसी भी विषय में जब हम इस पद का प्रयोग करने वाले हों, तब हमें इस परिभाषा को ध्यान में रखना चाहिए । जैसे – यदि किसी वंश के मूल मानव को निर्धारित करना है, तो हमें उसको ढूढ़ना होगा जिससे पहले वंश का नाम ही नहीं था । जहां से यश प्रारम्भ हुआ, वहीं से वंश का नाम पड़ जायेगा, जैसे रघुवंश, यादव वंश, आदि ।

एक और अत्यन्त सुन्दर सिद्धान्त कपिल मुनि ने दिया है –

                  नाशः  कारणलयः ॥१।८६॥

अर्थात् नाश का अर्थ है अपने कारण में लीन हो जाना । इसका अत्यन्त गम्भीर अर्थ है कि कोई भी वस्तु अपनी सत्ता पूरी तरह कभी नहीं खोती, वह केवल अपने कारण या कारणों में लीन हो जाती है । यहां भी सन्दर्भ सृष्टि में उत्पन्न पदार्थों का है, जहां कपिल का कहना है कि कोई भी प्राकृतिक पदार्थ पूर्णतया नष्ट नहीं किया जा सकता, उसका कुछ-न-कुछ अवशेष बचता ही है । अन्ततः, वह मूल-प्रकृति में परिवर्तित हो जाना है । यह सिद्धान्त अन्य स्थितियों में भी लगता है क्योंकि कोई भी वस्तु अपनी छाप कहीं-न-कहीं छोड़कर जाती है । हम जब बहुत परिश्रम करते हैं, परन्तु लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते, तो उदास होकर समझते हैं कि हमारा सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया, नष्ट हो गया । तब हम यह भूल जाते हैं कि अवश्य ही उस परिश्रम से कुछ-न-कुछ फल निकला है, और कुछ नहीं तो हमने बहुत कुछ सीख लिया है । यह शिक्षा अवश्य ही भविष्य में किसी-न-किसी रूप में हमारे काम आती है ।

इसका एक प्रकार से उल्टा सिद्धान्त भी देखने योग्य है –

                        नावस्तुनो  वस्तुसिद्धिः ॥१।४३॥

अर्थात् बिना किसी वस्तु के कोई वस्तु उत्पन्न नहीं होती । शून्य से कुछ भी सम्पादित नहीं किया जा सकता । यदि कोई वस्तु जान पड़ती है, तो उसकी उत्पत्ति में अवश्य ही कोई-न-कोई कारण वस्तु की सत्ता अवश्य रही होगी । यह वाक्य सांख्य के सत्कार्यवाद के नाम से प्रसिद्ध है, और ग्रन्थ में अनेकों प्रकार से बताया गया है । जैसे –

                          नासदुत्पादो  नृशृङ्गवत् ॥१।७९॥

अर्थात् असत् (सत्ताहीन, अभाव) से कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता, जिस प्रकार मानव के सींग नहीं होता । उपमा का अर्थ है कि सींग निकलने के लिए भी कुछ पदार्थ आवश्यक होते हैं; क्योंकि मानव में वे नहीं होते, इसलिए उसमें कभी भी सींग नहीं पाया जाता ।

यह वाक्य वस्तु ही नहीं, अपितु दशाओं, स्थितियों, आदि, पर भी लागू होता है । जैसे – जब कोई छात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, तो उसकी बुद्धि और परिश्रम उस सफलता में कारण होते हैं; यदि वह बुद्धिहीन होता, या उसने परिश्रम न किया होता, तो सफलता होनी असम्भव थी । इसलिए सर्वदा प्रयासरत रहना परमावश्यक है ।

अन्धविश्वासों को टटोलता हुआ यह अगला सूत्र है –

                        नान्धदृष्ट्या  चक्षुष्मतामनुपलम्भः ॥१।१२१॥

अर्थात् यदि अन्धे की दृष्टि को कुछ न उपलब्ध हो, इसका यह अर्थ नहीं है कि जिनके चक्षु हैं, उनको भी वह अनुपलब्ध हो । इसका अर्थ है कि मूढ़ व्यक्तियों को कुछ समझ में न आ रहा हो, तो उसके कारण ज्ञानी की बात को नकारा नहीं जा सकता । यह वाक्य इस सन्दर्भ में कहा गया है कि योगियों को समाधि में परमात्मा दिख जाते हैं । तो जो हम मूढ़ परमात्मा को देखने में असमर्थ हैं, उनको योगी की बात माननी ही चाहिए । आजकल भूमि के सपाट होने का पुनः अन्धविश्वास प्रारम्भ हो रहा है और अमेरिका देश में इसके लिए बड़ी गोष्ठियां भी हो रही हैं । इन मूर्खों के कारण विद्वत्-समाज द्वारा बताया गया सिद्धान्त कि ’भूमि गोलाकार है’ को नकारना नहीं चाहिए । इस वाक्य का यही उपदेश है ।

सामान्यतोदृष्ट अनुमान प्रमाण को परिभाषित करता हुआ यह अगला वाक्य बताता है कि कैसे हम संसार को समझते जाते हैं –

                        अनादावद्ययावदभावाद्भविष्यदप्येवं ॥१।१२३॥

जिसका अनादि काल से आज तक अभाव है, उसका भविष्य में भी ऐसा ही होगा, ऐसा माना जा सकता है । इस सूत्र के द्वारा कपिल ने बताया है कि अनादि काल से जीवात्माएं मुक्त होती आई हैं, तो भविष्य में ऐसा सम्भव न होगा, इसको मानने में कोई कारण नहीं है । इस अनुमान प्रमाण द्वारा ही हम यह समझते हैं कि जहां धुंआ है, वहां आग अवश्य होगी । अनादि काल से मनुष्यों ने यह सम्बन्ध पाया है, तो आज यह पलट जाएगा, इसको मानने का कोई आधार नहीं बन पड़ता । इसी प्रकार, एक-दूसरे से सीखते हुए, एक-दूसरे से ज्ञान बांटते हुए,हम पदार्थों के अन्तःसम्बन्धों को समझने लगते हैं ।

जनों में भेद का कारण बताते हुए कपिल कहते हैं –

                        व्यक्तिभेदः  कर्मविशेषात् ॥३।१०॥

कर्मों के विशेषता के कारण, व्यक्तियों में भेद होता है । यह वाक्य सूक्ष्मशरीर के सन्दर्भ में है, जहां कपिल बता रहे हैं कि प्राण, ज्ञानेन्द्रिय, सूक्ष्मभूत, मन और बुद्धि का बना सूक्ष्मशरीर आत्मा के कर्म के अनुसार प्राप्त होता है । बुद्धि में सत्त्व-रज-तम की मात्रा हमारे कर्म के अनुसार होते हैं, जिनसे हमारा स्वभाव निर्धारित हो जाता है – हम शान्त स्वभाव के हैं कि क्रोधी, धैर्यवान् हैं कि चंचल, इत्यादि । जहां यह नए शरीर के लिए तो लागू होता ही है, वहीं कर्म स्थूल शरीर भी निर्धारित करते हैं – हम किस योनि में उत्पन्न होंगे, वह कर्म पर ही निर्भर है । यही नहीं, इस जन्म में भी हमारे कर्म हमको अन्य जनों से भिन्न बना देते हैं । यदि हम ज्ञान में परिश्रम करते हैं, तो विदुषी हो जाते हैं; यदि हम शरीर से परिश्रम करते हैं, तो बलवती हो जाते हैं, इत्यादि । इस प्रकार यह वाक्य अनेक स्तरों पर खरा उतरता है ।

जीवों के दुःखों का विश्लेषण करते हुए कपिल कहते हैं –

                        समानं  जरामरणादिजं  दुःखम् ॥३।५३॥

अर्थात् सभी जीवों में वृद्धावस्था और मरण आदि से उत्पन्न दुःख समान हैं । ’आदि’ शब्द से द्वन्द्वों से पीड़ा (भूख-प्यास, गर्मी-शीत, आदि), व्याधि व अन्य शारीरिक कष्ट निर्दिष्ट हैं । सभी जीव इन कष्टों से पीड़ित रहते हैं । जितना जीव क्षुद्र होता है, उतना ये कष्ट झेलने में असमर्थ होता है और शीघ्र मर जाता है । इसलिए वृद्ध पशु केवल मनुष्य के सान्निध्य में दिखते हैं, क्योंकि मनुष्य अपनी बुद्धि के प्रयोग से उनका उपचार करने में सक्षम होता है । जंगल में तो वार्धक्य सम्भव ही नहीं ! इस प्रकार, जीवन से दुःख का नित्य सम्बन्ध है ।  

परन्तु जीव के विषय में कपिल एक तथ्य को प्रबलता से स्थापित करते हैं –

          असङ्गोऽयं  पुरुष  इति ॥१।१५॥

अर्थात् इस जीवात्मा का किसी भी वस्तु से संग नहीं होता । शरीर से तो हम जुड़े हैं, परन्तु उससे यह नहीं समझना चाहिए कि कहीं भी प्रकृति आत्मा को छू भी सकती है ! वस्तुतः आत्मा प्रकृति से सूक्ष्म होती है, सो प्रकृति की पकड़ के बाहर होती है । जो यह शरीर में हम बन्धे हैं, सो वह सम्बन्ध दूर से है, जैसे बछड़ा रस्सी से खूंटे से बन्धा हो – प्रकृति हमारे स्वभाव को परिवर्तित नहीं कर सकती । पतञ्जलि ने योगदर्शन में इसी बात को इस प्रकार कहा है – द्रष्टा दृशिमात्रः  शुद्धोऽपि  प्रत्ययानुपश्यः ॥योगदर्शनम् २।२०॥ अर्थात् जीवात्मा केवल दर्शक होता है और संसार को शरीर के करण से अनुभव करता रहता है, तथापि सर्वथा शुद्ध रहता है – प्रकृति से अछूता रहता है । इस बात को हम सामान्यतः भूल जाते हैं और आत्मा को ही कलुषित मानने लगते हैं ।

इसी प्रकार ईश्वर के विषय में कपिल ऊंचे स्वर में कहते है –

          स  हि  सर्ववित्  सर्वकर्ता ॥३।५६॥

वह परमेश्वर ही सब जानने वाला और सब करने वाला है (जो कि जीवात्मा का प्रकृति से योग कराता है) । वैदान्तिकों ने कपिल के विरुद्ध एक मन-गढ़न्त आरोप लगा दिया है कि कपिल अनीश्वरवादी हैं । उनका कपिल से विरोध इसलिए है कि कपिल ने स्पष्टतया अद्वैतवाद का विरोध किया है । अब, इस वाक्य को देखकर कौन कह सकता है कि कपिल अनीश्वरवादी थे ?! जबकि सम्पूर्ण ग्रन्थ में उन्होंने प्रमाणों से ही सृष्टि के विभिन्न आयामों को सिद्ध करने का प्रयास किया है, और ईश्वर के विषय में कम ही लिखा है, इस सूत्र में उनकी ईश्वर-भक्ति जैसे छलक आई है, और पाठक भी उससे भाव-विभोर हो जाता है । हम भूल जाते हैं कि सब कार्यों का करने वाला परमात्मा ही है और अपने को ज्ञानी और सुयोग्य कर्ता समझने लगते हैं, परन्तु क्या उसकी आज्ञा के बिना एक पत्ता भी हिल सकता है ?! ऐसे सर्ववित् और सर्वकर्ता को जानकर अपने-आप शीर्ष उसके नमन में झुक जाता है…

हमारे अज्ञान को दूर करने के लिए कपिल पुनः कहते हैं –

             अहङ्कारः  कर्ता  न  पुरुषः ॥६।५४॥

अहंकार ही कर्ता होता है, न तो पुरुष । यहां अहंकार का अर्थ है प्रकृति का वह विकार जिसके कारण हम इस शरीर को स्वयं मानने लगते हैं । उस अहंकार के कारण जो कुछ भी कार्य शरीर करता है, उसे हम अपना कर्म मानने लगते हैं, उसके अनुभवों को अपने अनुभव मानने लगते हैं । और जब तक यह मानते रहते हैं, तब तक उन कर्मों के फलों को भोगने के लिए भी विवश रहते हैं । जिस दिन यह सत्य हमें स्पष्ट हो जाता है कि यह शरीर हमसे भिन्न है, उसी दिन हमारी आंखें खुल जाती हैं । हम अपने पुरुषत्व को समझने लगते है कि हम वह आत्मा हैं जो इस शरीर-रूपी पुर में केवल वास करते हैं, द्रष्टा हैं । कर्म करने वाला तो कोई और ही है !

सांख्यदर्शन में महर्षि कपिल ने कई प्रकार से हमें सृष्टि के परम सत्यों से सचेत करने का प्रयास किया है – प्रमाणों से, आख्यायिकाओं से, उपदेश द्वारा । उनके उपदेश ग्रन्थ में प्रासंगिक तो हैं ही, उनका हमारे दैनंदिन जीवन में भी विस्तृत प्रभाव-क्षेत्र है । इस ग्रन्थ को केवल शुष्क तर्क का ग्रन्थ न देखकर, एक आध्यात्मिक ग्रन्थ के रूप में भी देखना चाहिए । आध्यात्मिक उन्नति ही ग्रन्थ का मुख्य प्रयोजन है, जिसके लिए कपिल अन्त में कहते हैं – यद्वा  तद्वा  तदुच्छितिः  पुरुषार्थस्तदुच्छितिः  पुरुषार्थः ॥६।७०॥ – ऐसे या वैसे, किसी भी प्रकार इस शरीर के सम्बन्ध का उच्छेद करने के लिए ही पुरुषार्थ करो, और सब छोड़कर दिन-रात उसी में लगे रहो ! वही सत्य पुरुषार्थ है, वही सत्य पुरुषार्थ है !