साङ्ख्यदर्शन में उपमाओं का प्रयोग

पुरातन षड् दर्शन-शास्त्रों में से एक, साङ्ख्य-दर्शन का मुख्य विषय मोक्ष की सत्ता और उसका स्वरूप प्रमाणित करना है । क्योंकि यह विषय कठिन है, दर्शन अनेकों उपमाओं के आधार पर विषय को प्रमाणित करता है । ये उपमाएं उपयुक्त तो है हीं, पर उनमें काव्य का रस भी निहित है । कुछ ऐसी ही उपमाओं का इस लेख में आस्वादन कीजिए ! 

  • प्रधानसृष्टिः  परार्थं  स्वतोऽप्यभोक्तृत्वादुष्ट्रकुङ्कुमवहनवत् ॥३।५८॥

क्योंकि मूल प्रकृति, या प्रधान, स्वयं भोग करने में अशक्त है, इसलिए वह दूसरे (जीव) के लिए है, जिस प्रकार ऊँट कुमकुम (दूसरे के लिए) ढोता है।

ऊँट पर कुमकुम लादा जाता है । ऊँट को कोई सञ्ज्ञान नहीं होता कि उसकी पीठ पर क्या है और उसे वह कहां ले जा रहा है । वह तो जिधर उसका चालक ले जाता है, वहीं और वैसे ही चलने लगता है । बिल्कुल यही दशा प्रकृति की है – वह परमेश्वर और, सीमित भाग में, जीव के कहने पर नाचती है; अपने लिए उसका कोई प्रयोजन नहीं है । भारतीय दर्शन में यह एक स्वतःसिद्ध सिद्धान्त है कि इस सृष्टि में कोई भी वस्तु या घटना निरर्थक नहीं है । इसलिए, यदि प्रकृति अपना कोई अभिप्राय सिद्ध नहीं कर रही, तो वह किसी और का अभिप्राय सिद्ध कर रही होगी ।

  • अचेतनेत्वेऽपि  क्षीरवच्चेष्टितं  प्रधानस्य ॥३।५९॥

प्रधान के अचेतन होते हुए भी, उसमें जो चेष्टा दीखती है, वह दूध के समान होती है ।

प्रकृति में हम पाते हैं कि पृथिवी सूर्य का चक्कर लगा रही है, सूर्य नक्षत्र का, नक्षत्र एक-दूसरे से दूर-दूर भाग रहे हैं, पत्थर लुड़क रहा है, नदी बह रही है, बादल बरस रहा है, आदि, आदि । इससे यह संशय हो सकता है कि प्रकृति में भी किसी प्रकार की मेधा है जिसके अनुसार वह सारे कार्य कर रही है, और उसे किसी जीव के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है । परन्तु यह केवल भ्रम है । कपिल बताते हैं कि दूध में तो आपको कोई संशय नहीं है कि वह अचेतन है ? सो, उसी का दृष्टान्त लीजिए – जब दूध का अग्नि के साथ संयोग होता है, तो उसमें उफनने की क्रिया उत्पन्न होती है । इससे वह चेतन-सा प्रतीत होने लगता है ! परन्तु वास्तविकता यही है कि वह निर्जीव वस्तु है और संयोग के कारण उसमें चेष्टा उत्पन्न हुई है । इसी प्रकार प्रत्येक प्राकृतिक वस्तु में ऊर्जा (या अग्नि के विभिन्न रूप) के कारण ही क्रिया उत्पन्न होती है; इससे उसको सजीव या प्रज्ञावान् मानना मूर्खता है ।

वस्तुतः, दूध प्रकृति का ही अंश है; इसलिए यह दृष्टान्त और भी सटीक है ।

  • विविक्तबोधात्  सृष्टिनिवृत्तिः  प्रधानस्य  सूदवत्  पाके ॥३।६३॥

जीव का प्राकृतिक शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध हो जाने पर, प्रधान अपने सृजन-कार्य से निवृत्त हो जाती है, जिस प्रकार एक पाचक पाक के सिद्ध हो जाने पर निवृत्त हो जाता है ।

यह उपमा भी विलक्षण है ! जब तक भृत्य भोजन तैयार नहीं कर लेता, वह पाकशाला में लगा रहता है, परन्तु जैसे ही खाना बन जाता है, उसका कार्य समाप्त हो जाता है । उसी प्रकार, जब तक जीव अपने को अपना शरीर मानता रहता है, उसके लिए भोग उपस्थित करता रहता है, तब तक कारण प्रधान भी आत्मा के लिए कार्य पर कार्य उपस्थित करती रहती है । परन्तु, जैसे ही जीव को प्रकृति से कोई सरोकार नहीं रहता, तो जैसे वह ’पक’ जाता है । अब पाक सिद्ध हो जाने पर, पाचक (प्रकृति) के लिए कुछ भी करने को नहीं रहता !

  • अन्यसृष्ट्युपरागेऽपि  न  विरज्यते  प्रबुद्धतत्त्वस्येवोरगः ॥३।६६॥

जबकि एक आत्मा को बोध हो जाने पर, वह प्रधान से विरक्त हो जाता है, तथापि अन्य का सृष्टि से राग-द्वेष बना रहने से, प्रकृति सृष्टि-कार्य से (पूर्णतया) विरक्त नहीं होती, जिस प्रकार तथ्य को जानने वाले का सांप ।

धुंधले प्रकाश में, कभी-कभी रास्ते में पड़ी रस्सी सांप जैसी प्रतीत होने लगती है, और पथिक को डराती है । परन्तु समीप से परीक्षण करने पर, कोई पथिक जान लेता है कि यह तो रस्सी है, सांप नहीं; इससे डरने की कोई आवश्यकता नहीं । उसका यह तत्त्व जान लेने से, उसके लिए तो रस्सी का स्वरूप  स्पष्ट हो जाता है, परन्तु उसी पथ पर उसके बाद आने वालों के लिए तो वह रस्सी अब भी सांप का भय उत्पन्न करती रहती है । 

ठीक इसी प्रकार, सृष्टि के विभिन्न रूप जीवों को लुभाते या डराते रहते हैं । जब कोई एक धीर जान लेता है कि यह शरीर मैं नहीं हूं, उसके लिए प्रकृति के सारे कार्य समाप्त हो जाते हैं, उन कार्यों से उसके सारे राग और द्वेष नष्ट हो जाते हैं । लेकिन केवल उसके जान लेने से सभी को यह ज्ञान नहीं हो जाता । वह उपदेश देकर दूसरे को बता सकता है कि, “यह सांप नहीं, रज्जु है” परन्तु इस बात को समझना तो दूसरे व्यक्ति के हाथ में ही है । 

इस उपमा में निर्जीव और सजीव में संशय दोनों ओर है – रज्जू और सांप में और शरीर और आत्मा । यही इस उपमा की सुन्दरता है । इसी कारण यह विषय को समझाने में अतिसमर्थ है ।

  • नर्तकीवत्  प्रवृत्तस्यापि  निवृत्तिश्चारितार्थ्यात् ॥३।६९ ॥

अब मेरी एक अतिप्रिय उपमा ! प्रधान नर्तकी के समान नाचती है – जो उसमें रुचि ले रहे होते हैं, प्रवृत्त होते हैं, उनके लिए; और जिन्होंने अपना अर्थ = लक्ष्य प्राप्त कर लिया हो, उनसे वह निवृत्त हो जाती है – जैसे, वे नृत्यांगण से उठ कर चले गए हों !

यह ३।६३ का ही तथ्य प्रस्तुत कर रहा है, परन्तु उपमा बहुत ही सुन्दर है । जिसको प्रकृति के नृत्य में आनन्द आ रहा होता है, उसके लिए वह नाचती ही रहती है, परन्तु जो उससे विरक्त हो जाता है, उदासीन हो जाता है, उसके लिए जैसे यह नाच बन्द हो जाता है । वह किस रूप में संसार को देखता है, यह हमारी कल्पना के परे है, परन्तु होगा अवश्य ही एक विलक्षण दृश्य !

  • प्रकृतेराञ्जस्यात्  ससङ्गत्वात्  पशुवत् ॥३।७२॥

प्रकृति के लेप से, उसके संग से, जीव का बन्धन होता है, पशु के समान ।

जिस प्रकार पशु को रस्सी से बाँध दिया जाता है, तब वह स्वतन्त्र होते हुए भी, बद्ध हो जाता है, उसी प्रकार जीव स्वभाव से तो स्वतन्त्र है, परन्तु प्रकृति का यह शरीर जैसे उसे रस्सी की तरह बांधे हुए है । जब उसको इस सत्य का ज्ञान हो जाता है, और वह रस्सी से अपने को मुक्त कर लेता है, तब वह जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है, अपने स्वाभाविक स्वरूप में पहुंच जाता है ।

कहने को तो यह रस्सी, या शरीर, सरल बन्धन हैं, परन्तु पशु या आत्मा के लिए इनसे छूटना बहुत ही कठिन होता है । 

  • रूपैः  सप्तभिरात्मानं  बध्नाति  प्रधानं  कोशकारवद्विमोचयत्येकेन  रूपेण ॥३।७३॥

प्रधान जीवात्मा को सात प्रकार के रूपों से बांधती है, परन्तु, रेशम के कीड़े के समान, केवल एक रूप से मुक्त करती है ।

कपिल जैसे उपर्युक्त उपमा को ही आगे बढ़ाते हैं । रेशम का कीड़ा धागे की अनेकों परतों में बद्ध होता है । परन्तु निकलने के लिए वह एक द्वार का प्रयोग करता है – वह सारी परतों को नहीं काटता । इसी प्रकार जीव प्रकृति के सात रूपों – पञ्च महाभूत, मन और बुद्धि से निबद्ध है । परन्तु उसका निकलने का द्वार एक ही है – अपने और प्रकृति में विवेक करना । अपने से भिन्न प्रकृति के रूप को देख लेने पर, वह उसको बांधने में अक्षम हो जाती है । इसलिए इस एक ’द्वार’ को प्राप्त करने के लिए ही जीवात्मा को श्रम करना चाहिए, अन्य सभी श्रम निरर्थक हैं ।

  • चक्रभमणवद्धृतशरीरः ॥३।८२॥

जिस व्यक्ति ने प्रकृति का सही रूप देख लिया है, वह शरीर को धारण किए रहता है, जैसे चक्र घूमता रहता है ।

यह उपमा विज्ञान पर आधारित है । चक्र को घुमाने के लिए उसको गति प्रदान करने वाला डण्डा, मोटर, आदि, चाहिए होता है । उस डण्डे या मोटर के निवृत्त हो जाने पर, चक्र एकदम से रुक नहीं जाता, अपितु गति-संस्कार के कारण कुछ समय और घूमता रहता है । 

अगले सूत्र में कपिल बताते हैं कि जीवात्मा में भी संस्कारों का लेश शेष रहता है, जिसके कारण वह कुछ समय और शरीर में बद्ध रहता है । इस दशा को ’जीवन्मुक्त’ अवस्था कहते हैं । उपमा के बल पर, जरा से शब्दों में कपिल क्या-क्या कह गए !मैंने केवल तृतीय अध्याय से ही कुछ उपमाएं दी हैं । हम देख सकते हैं कि ये सभी न्यायदर्शन में दिए हुए उपमान प्रमाण के अन्तर्गत हैं । जो विषय अनुभव के परे हो, उसे उपमा द्वारा सरलता से समझाया जा सकता है, यह इन उपमाओं से स्पष्ट हो जाता है । आत्मा और प्रकृति का भेद, बन्धन का स्वरूप, उससे मुक्ति – ये सभी विषय अज्ञानी के लिए भी सुस्पष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार साङ्ख्य में अन्य प्रमाणों – प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द – के भी उदाहरण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । इसलिए न्यायदर्शन के छात्र के लिए साङ्ख्य पढ़ना भी अनिवार्य कोटि में होना चाहिए । चतुर्थ अध्याय में आख्यायिकाओं द्वारा विषय-प्रवेश कराया गया है । इसलिए वह अध्याय भी पढ़ने में रोचक है । अध्यात्म-विषय में रुचि रखने वाले अवश्य ही साङ्ख्यदर्शन को पढ़ें ।