सामान्यतोदृष्ट अनुमान के सांख्यदर्शन से कुछ उदाहरण

सामान्यतोदृष्ट अनुमान सम्यक्तया समझा नहीं जाता है । अनुमान के अन्य भेदों – पूर्ववत् और शेषवत् – का आधार कार्य-कारण सम्बन्ध है । इसलिए उनको समझने में विशेष कष्ट नहीं होता । परन्तु सामान्यतोदृष्ट में वह सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता । इस कारण से इसके प्रयोग में त्रुटि हो जाती है । सांख्यदर्शन में सभी प्रकार के प्रमाणों के अनेक उदाहरण प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए सामान्यतोदृष्ट के भी यहां सुन्दर उदाहरण दिखाई पड़ते हैं । इस लेख में उन्हीं में से कुछ को प्रस्तुत किया गया है । 

उदाहरणों को देखने से पहले, थोड़ा अनुमान प्रमाण विषय का पुनरवलोकन आवश्यक है, इसलिए पहले संक्षेप में इसके सब विभागों पर दृष्टि डाल लेते हैं । प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण बताने के उपरान्त, महर्षि गौतम ने अनुमान को परिभाषित किया –

अथ  तत्पूर्वकं  त्रिविधमनुमानं  पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं  च ॥न्यायदर्शनम् १।१।५॥ अनु०- प्रत्यक्षम्॥

अर्थात् प्रत्यक्ष किए हुए (सम्बन्ध) से अनुमान किया जाता है और वह तीन प्रकार का होता है – पूर्ववत्, शेषवत् व सामान्यतोदृष्ट । गौतम इन तीन प्रकारों को पुनः परिभाषित तो नहीं करते, पर इनकी व्याख्या हमें न्यायदर्शन के सबसे प्राचीन वात्स्यायन के भाष्य में प्राप्त होती है जो कि सारांश में इस प्रकार है –

    २) पूर्ववत् – कारण (cause) को जानकर, कार्य (effect) को जान लेना । जैसे – अग्नि को देखकर उसके आसपास तापमान अधिक होगा, ऐसा जान लेना ।

    (२) शेषवत् – कार्य से कारण को जानना । जैसे – धूम से अग्नि का ग्रहण हो जाना क्योंकि जहां धूम है, वहां उसके कारण अग्नि का होना आवश्यक है ।

    (२) सामान्यतोदृष्ट – यह दो वस्तुओं के बीच में वह सम्बन्ध है, जो कार्य-कारण का तो नहीं है, परन्तु सामान्य रूप से पाया जाता है । वात्स्यायन यहां उदाहरण देते हैं – एक वस्तु, जैसे कोई व्यक्ति अथवा सूर्य, को एक स्थान में देखकर अन्य स्थान में देखने से उसके अथवा हमारे चलने का ज्ञान होना । यह उदाहरण दोषपूर्ण है, क्योंकि यहां स्थानान्तरण द्वारा उसके कारण – चलन – का अनुमान लगाया जा रहा है, जहां यह कार्य-कारण का सम्बन्ध अच्छी प्रकार ज्ञात हैं । इसलिए यह शेषवत् का ही उदाहरण है । वस्तुतः, इस प्रमाण का सही उदाहरण है – जिस वस्तु का जन्म हुआ है, उसका अन्त अवश्यम्भावी है । यहां कार्य-कारण सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है, तथापि इस तथ्य को कोई भी विचारशील मनुष्य अमान्य नहीं कर सकता, क्योंकि यह सम्बन्ध सामान्य रूप से सृष्टि में दृष्टिगोचर होता है । इसीलिए इस प्रकार के सम्बन्ध को ‘सामान्यतोदृष्ट = साधारणतया देखा गया’ कहा जाता है ।

वात्स्यायन की इस गलत व्याख्या के फलस्वरूप उनके आगे की पीढ़ियां इस प्रमाण का प्रयोग ठीक से न कर सकीं । परन्तु यह प्रमाण वात्स्यायन से पूर्ववर्ती ग्रन्थों में अनेक प्रकरणों में पाया जाता है । सम्भवतः, वात्स्यायन के प्रभाव के कारण ही उन ग्रन्थों में वह इस रूप में समझा भी नहीं जाता रहा हो । आज हम सांख्यदर्शन से उद्धृत ऐसे कुछ उदाहरण देखेंगे ।

ग्रन्थ का दूसरा ही सूत्र है –

न  दृष्टात्  तत्सिद्धिर्निवृत्तेऽप्यनुवृत्तिदर्शनात् ॥१।२॥ अनु०- त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिः

अर्थात् दृष्ट उपायों से तीन प्रकार के दुःखों की पूर्णतया निवृत्ति नहीं होती, क्योंकि (एक समय में सभी दुःखों की) निवृत्ति हो जाने पर भी, (अनन्तर अन्य नए दुःखों की) अनुवृत्ति (=आगमन) देखी जाती है ।

यहां ‘दर्शन’ शब्द के प्रयोग से प्रतीत होता है कि यहां दिया हेतु – निवृत्ते अपि अनुवृत्तिदर्शनात् – प्रत्यक्ष प्रमाण का उदाहरण है, परन्तु पुनः देखें तो ज्ञात होता है कि यह सामान्य रूप से आने-जाने वाले दुःखों का कथन है । सामान्यतया देखा जाता है कि कभी भी दुःखों का अन्त नहीं होता । हम कभी सोचते हैं कि केवल गरीबी ही हमारा अकेला दुःख है, यह नष्ट हो जाए तो हमारे शेष सभी दुःखों का अन्त हो जाएगा । परन्तु जब धन की प्राप्ति हो भी जाती है, तब पाते हैं कि हमें ऐसी बीमारी ने घेर लिया जिसका कोई उपचार ही नहीं है ! तो इन दो घटनाओं में कोई कार्य-कारण सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता, परन्तु जीवन के अनुभव से इस सत्यता का ज्ञान होता है कि जीवन कभी पूर्णतया कष्टरहित नहीं होता । यह सत्य सभी के जीवन में दृष्टिगोचर होता है और सदियों से ऐसा ही पाया गया है । इसलिए इसे सबके लिए सब समय मानने में कोई आपत्ति प्रस्तुत नहीं होती । इसी को सामान्यतोदृष्ट प्रमाण कहते हैं ।

एक स्थल पर अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति को समझाते हुए, कपिल मुनि कहते हैं –

अचाक्षुषाणामनुमानेन  बोधो  धूमादिभिरिव  वह्नेः ॥१।२५॥

अर्थात् जो इन्द्रियों से ग्रहण न हो रहा हो, उसका अनुमान से बोध किया जा सकता है, जैसे धुंए से अग्नि का ।

इस प्रकार भूमिका बांधकर, कपिल अगले सूत्र में सृष्टि के सभी तत्त्वों को गिनाते हैं –

सत्त्वरजस्तमसां  साम्यावस्था  प्रकृतिः, प्रकृतेर्महान् … तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि … ॥१।२६॥

अर्थात् सत्त्व, रज और तम गुणों की साम्यावस्था प्रकृति (नामक अनादि-अनन्त प्रारम्भिक पदार्थ) है । इस प्रकृति से महत् नामक तत्त्व उत्पन्न होता है, आदि आदि, और अन्त में ५ तन्मात्राओं से ५ स्थूलभूतों की उत्पत्ति होती है । 

आगे के कतिपय सूत्रों में वे प्रत्येक तत्त्व को अनुमान प्रमाण से सिद्ध करते हैं, परन्तु बहुत ही संक्षेप में, यथा –

स्थूलात्  पञ्चतन्मात्रस्य ॥१।२७॥ अनु०- अनुमानेन बोधः (१।२५-सूत्रतः)

अर्थात् (पञ्च) स्थूलभूतों (elements – आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी) से पञ्च तन्मात्रों का अनुमान होता है । 

यहां ऐसी व्याख्या की जाती है कि स्थूलभूत कार्य हैं । कार्य से हम उनके कारणों का अनुमान कर सकते हैं । इसलिए प्रत्येक स्थूलभूत अपने कारण – तन्मात्र – को प्रमाणित करता है । इस प्रकार यह शेषवत् प्रमाण का उदाहरण हुआ । परन्तु सर्वदा ही कार्य कारण का परिचय नहीं देते, यथा – छपी पुस्तक के पन्ने से हम यह पता नहीं कर सकते कि किसने यह पुस्तक लिखी, या यह किस पुस्तक का पन्ना है; वह जानने के लिए हमें पुस्तक के आरम्भिक पन्नों को देखना पड़ेगा । इसी प्रकार, यहां पूर्णतया अस्पष्ट है कि हम इन कार्यों के तन्मात्र नामक कारण क्यों मानें ? सम्भव है कि कारण पदार्थ ५ से अधिक हों, अथवा न्यून और मिश्रण द्वारा ५ स्थूलभूतों को जन्म देते हों । तो कपिल ने इतने संक्षेप से कैसे कह दिया ? और यह न समझने के कारण हम तन्मात्र को भी ठीक से नहीं समझ पाते । 

इस विषय में मेरा एक मत है, सुधी जनों को सही लगे तो ग्रहण करके अन्यों को भी पढ़ाएं । हमारी ५ भिन्न-भिन्न इन्द्रियां (senses) हैं । जिस विषय का एक इन्द्रिय ग्रहण करती है, उसका अन्य चार ग्रहण नहीं कर पातीं । यह प्रत्यक्ष से प्रमाणित है और इसलिए इसमें किसी को भी सन्देह नहीं है । इस तथ्य का अर्थ यह हुआ कि संसार के सब पदार्थों को सबसे पहले हम ५ में विभाजित कर सकते हैं – ५ स्थूलभूत । इसलिए कपिल ने इन पांचों के लिए कोई प्रमाण ही नहीं प्रस्तुत किया । परन्तु ऐसा समझने से स्थूलभूतों के विषय में हमारे ज्ञान की वृद्धि हुई – अब हम समझ गए कि जल का अर्थ केवल पानी नहीं है, अपितु सभी वे रस जिनका स्वाद रसना ले सके ‘जल’ हैं । इसी प्रकार वायु सभी प्रकार की वाष्प है, अग्नि सभी प्रकार की ऊर्जा है, पृथिवी सभी प्रकार के अन्य पदार्थ हैं, विशेष रूप से जिनमें गन्ध हो, जैसे esters नाम के हाइड्रोकार्बन ।

यही नहीं, प्रत्येक इन्द्रिय, जैसे लीजिए घ्राणेन्द्रिय, केवल एक गन्ध नहीं, अपितु सभी गन्धों को सूंघने में सक्षम है । इसका अर्थ हुआ कि सब गन्धों में कुछ एक सामान्य पदार्थ है जिसे कि वह इन्द्रिय ग्रहण कर रही है । इस लक्षण वाली वस्तु को ‘तन्मात्र’ संज्ञा दी गई है, जिसका अर्थ है – केवल वह = केवल जिसमें गन्ध का अणु हो, वह । यह तथ्य इसी प्रकार है जैसे भारतीय दार्शनिकों ने परमाणु का चिन्तन किया था (जिसको पश्चिमी सभ्यता ने अपने ग्रीस देश की खोज बता दिया!) । तन्मात्र को हम गन्ध का परमाणु कह सकते हैं । सो, क्योंकि प्रत्येक गन्ध नासिका द्वारा ग्रहण होती है, इसलिए हम गन्ध-तन्मात्र का अनुमान कर पाते हैं । जैसा हम सरलता से समझ सकते हैं, यह न तो पूर्ववत् अनुमान है, न शेषवत् । बचा सामान्यतोदृष्ट ! सो, यह सामान्यतोदृष्ट इसलिए है कि यह सामान्य रूप से देखा जाता है कि सभी गन्ध एक ही नाक से ग्रहण होती हैं । आज तक किसी ने नासिका से देखा नहीं ! इसलिएयह अनुमान सम्यक् है कि गन्ध में कुछ ऐसा पदार्थ होगा जिसको केवल नाक ही ग्रहण कर पाती है । वही गन्ध-तन्मात्र कहा गया । इसी प्रकार शृंखला के अन्य घटकों को भी समझना चाहिए । वे सभी सामान्यतोदृष्ट के उदाहरण हैं ।

प्रथम अध्याय में ही एक अन्य प्रकार का सामान्यतोदृष्ट का उदाहरण देखने को मिलता है –

नासदुत्पादो  नृशृङ्गवत् ॥१।७९॥

अर्थात् अवस्तु से वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती (Nothing comes from nothing), जैसे मनुष्यों के सींग नहीं होते ।

मुख्य रूप से तो यह उपमान प्रमाण है (जो भी अनुमान प्रमाण का ही प्रभेद है!), जहां नरों के अचानक सींग न फूट पड़ने की उपमा द्वारा बिना कारण के कार्य वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकने का तथ्य समझाया गया है । परन्तु यहां जो ‘नृशृङ्ग’ का उपमान है, वह धगयान देने योग्य है । हमने सब मनुष्य देखे नहीं कि हम पूरे विश्वास से कह सकें कि किसी मनुष्य के कभी सींग नहीं हुए; और भविष्य में भी कैसे कहें कि किसी व्यक्ति के सींग निकलेंगे कि नहीं ? फिर भी किसी को इस विषय में कोई संशय नहीं है – क्योंकि यह सामान्यतोदृष्ट है ! पाश्चात्य न्याय में इस प्रमाण के प्रकार को Induction Logic कहा जाता है (यह भी भारत से ही गया है!) । अब यदि आप पुनः उपर्युक्त दो उदाहरणों को देखें, तो वहां भी इस समानता को पाएंगे । (नृशृंग, शशशृंग, आदि उपमाएं अनेक विषयों में प्रयोग की जाती है; सर्वत्र इन्हें सामान्यतोदृष्ट प्रमाण जानें ।)उपर्युक्त प्रकार से हम पाते हैं कि सामान्यतोदृष्ट प्रमाण प्राचीन ग्रन्थों में अनेक प्रकार के विषयों में और अनेक रूपों में प्रयुक्त हुआ है । न्याय के प्राचीनतम भाष्य की गड़बड़ी के कारण, इसका प्रयोग अनन्तर ग्रन्थों में लुप्तप्राय हो गया, और हमारा ज्ञान भी इस विषय में न्यून हो गया । वस्तुतः वात्स्यायन का भाष्य अनेक स्थलों पर दोषपूर्ण है । जैसे कि इसी प्रकरण में पूर्ववत् अनुमान के लिए वात्स्यायन ने उदाहरण दिया है  – मेघों के बड़े हो जाने पर हम अनुमान लगा सकते है कि वृष्टि होगी । इस उपपत्ति में सम्भावना है, न कि निश्चय । प्रमाणों में ऐसी अनिश्चितता होने लगे, तो वे प्रमाण ही न रहेंगे ! इस दूषित उदाहरण के कारण आज भी अधिकतर नैयायिक अनुमान को सत्य के निर्धारण में पूर्णतया उपयुक्त नहीं बता पाते । लौकिक भाषा में भी हम ‘अनुमान’ को ‘अन्देशा’ या ‘सम्भावना’ ही समझते हैं; जबकि इसका अर्थ ‘अनु = प्रत्यक्ष के पश्चात् होने वाला’ + ‘मान = अप्रत्यक्ष का निश्चित ज्ञान’ है, न कि सम्भावना । इस अज्ञान के कारण प्राचीन विद्या को समझने में बहुत दोष आए हैं । क्या यह कमी कभी पूरी हो पायेगी ??