अष्टाध्यायी के कुछ अनुसन्धान-योग्य विषय

महर्षि पाणिनि की अपूर्व कृति अष्टाध्यायी को सभी संस्कृतज्ञ और अनेकों अन्य भारतीय और विदेशी जानते हैं । अष्टाध्यायी में संस्कृत भाषा के नियमों को इतने छोटे आकार में पिरो दिया गया है, कि उसके आने पर संस्कृत व्याकरण के बड़े-बड़े ग्रन्थ लुप्तप्राय हो गये । आज भी विश्व में किसी भी अन्य भाषा की व्याकरण इतने व्यवस्थित, संक्षिप्त और पूर्ण रूप में नहीं है । इसीलिए संस्कृत एकमात्र ऐसी मानवी भाषा है जिसे कम्प्यूटर में आसानी से डाल दिया गया है । कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के महाभाष्य ने इन नियमों के स्पष्टीकरणों, उदाहरणों, आदि,से संवर्धित किया । परन्तु अभी भी यह अद्भुत ग्रन्थ अपने अन्दर अनेकों रहस्य समेटे हुए है । यह लेख अष्टाध्यायी की कुछ ऐसी विशिष्टताओं पर प्रकाश डालने की चेष्टा करता है ।

१)    अष्टाध्यायी के छोटे आकार का प्रथम कारण तो उसके आरम्भ में आने वाले चौदह प्रत्याहार सूत्र हैं, जिनमें वर्णमाला के अक्षरों को बड़े विचित्र क्रम में रखा गया है । यह क्रम ही पाणिनि की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है । इस क्रम में पाणिनि ने वर्णों के एक प्राकृतिक नियम को उजागर किया है । ये इतने महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं कि अनन्तर काल में इनके विषय में एक कथा जुड़ गई ! कथा कुछ इस प्रकार है कि पाणिनि अपने गुरु के द्वारा मूढ़ कहे जाने पर इतने क्षुब्ध हो गये, कि वे पढ़ने और तप के लिए हिमालय चले गये । उनके परिश्रम से प्रसन्न होकर एक दिन शिवजी उनके सामने प्रकट हुए । तपस्वी की अभिलाषा जानकर, उन्होंने अपना डमरू १४ बार बजाया । हर बार एक प्रत्याहार सूत्र निकला । उन्होंने पाणिनि को आदेश दिया कि इन सूत्रों को लेकर अपनी व्याकरण रच । वह व्याकरण इतनी प्रसिद्ध होगी कि उसके सामने अन्य कोई टिक नहीं पायेगी । और ऐसा ही हुआ । जबकि इस कहानी में सत्य का अंश तो कम ही प्रतीत होता है, फिर भी इस कारण से ये सूत्र माहेश्वर-सूत्र के नाम से भी प्रसिद्ध हो गये ।

    इतने महत्त्वपूर्ण माने जाने पर भी, इनके ऊपर बहुत कम विचार हुआ है । इनमें से कुछ विचारणीय विषय हैं –

क)     सूत्रों के अन्तिम इत्-सञ्ज्ञक वर्णों – जैसे ’अ इ उ ण्’ में ’ण्’ – के चयन का क्या महत्त्व है ? यदि उनका कोई महत्त्व नही था तो पाणिनि सरल क्रम का प्रयोग कर सकते थे – क्, ख्, ग्, घ्, आदि । उन्होंने क्यों इतने अजीब से क्रम का अवलम्बन लिया ? उसमें भी ’ण्’ दो बार क्यों आता है? एक बार ’अ इ उ ण्’ में, दूसरी बार ’ल ण्’ में । इस विषय पर महाभाष्य में चर्चा हुई है, परन्तु वह यहीं तक सीमित रही कि उससे अष्टाध्यायी के सूत्र पढ़नें में कोई कठिनाई नहीं होती, क्योंकि कहां पर कौन सा णकार लेना है, यह स्पष्ट है । परन्तु उससे अधिक मौलिक प्रश्न तो यह है, कि पाणिनि को दुबारा एक वर्ण का प्रयोग करने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? ऐसा तो था नहीं कि १४ व्यञ्जन उनके पास थे नहीं !

ख)    इसी प्रकार, स्वयं वर्णों का क्रम अद्भुत है । और यहां भी ’ह’ दो बार पढ़ा गया है – एक बार ’ह य व र ट्’ में, दूसरी बार ’ह ल्’ में । ’ह’ के दो बार पढ़े जाने से, ’हल्’ प्रत्याहार के दो अर्थ निकलते हैं – एक में सारे व्यञ्जन आ जाते हैं, दूसरे में केवल ’ह’ । ऐसा ही प्रयोग एक दूसरे स्थान पर मिलता है । प्रातिपदिकों से लगने वालें प्रत्ययों का एक प्रत्याहार है – ’सुप्’ । परन्तु ’सुप्’ अन्तिम प्रत्यय भी है ! इस से हम ऊहा कर सकते हैं कि यह पाणिनि का style है, जिसका कोई विशेष प्रयोजन अवश्य होगा । 

    इस विषय पर भी महाभाष्य में चर्चा है, परन्तु पुन: वह सूत्रों में दोनों ’ह’ के प्रयोग दिखाने तक सीमित है । वे प्रयोग – कुछ उलट-पलट कर – एक ’ह’ से भी प्राप्त किए जा सकते थे । फिर पाणिनि ने क्यों ऐसा संशय उत्पन्न करने वाला प्रयोग किया ? उसका रहस्य “आर्धधातुकस्येड् वलादेः (७।२।३५)” में होना चाहिए, जहां पाणिनि ने ’हल्’ का प्रयोग न करके ’वल्’ का प्रयोग किया है, अर्थात् पहला ’ह’ छोड़ दिया है, केवल दूसरा ’ह’ ग्रहण किया है । इस ’वल्’ का बहुत कम प्रयोग दिखाई पड़ता है, जबकि ’हल्’ तो अनेकों सूत्रों में आता है । 

    अब वर्णों के अद्भुत क्रम को देखें, तो उसका एक भाग तो समझ में आता है । ’अ, इ, उ, ऋ, लृ’ तो अपने प्राकृतिक क्रमानुसार हैं । फिर ’ए, ओ’ गुण-संञ्ज्ञक होने से पहले रखे गए – ’ए, ऐ, ओ, औ’ के क्रम में नहीं । ’ऐ, औ’ वृद्धि-संञ्ज्ञक होने से एक-साथ रखे गए । उनके बाद, ’ह, य, व, र, ल’ के क्रम में, ’ह’ को छोड़कर, अन्य वर्णों के क्रम का महत्त्व इस प्रकार हैं – ’इ, ए, ऐ’ की सन्धि होने पर यकार आता है । अत: क्रम में ’य’ पूर्व आया, फिर ’उ, ओ, औ’ का ’व’, फिर ’ऋ’ का ’र’, फिर ’लृ’ का ’ल’ । अर्थात्, ’य व र ल’ पूर्वोक्त स्वरों के क्रमानुसार सन्धि-वर्ण हैं । बाकी बचे हुए ’अ’ और ’ह’ का इसी प्रकार कोई स्वर-सम्बन्ध होना चाहिए । उच्चारण करके देखें तो ’अ’ में अधिक हवा डाल कर उच्चारण करें तो वह ’ह’ हो जाता है । इसीलिए यहां ’ह’ रखा गया है ! इस प्रथम हकार के प्रयोग के उदाहरणों से इस तथ्य को सिद्ध-असिद्ध करना आवश्यक है । 

    वस्तुत:, किस logic से उन्होंने उन वर्णों को १४ सूत्रों में क्रमबद्ध और विभक्त किया, यह विश्लेषण करने योग्य है, क्योंकि इसमें ही वर्णों के परस्पर सम्बन्ध की कुञ्जी छिपी हुई है ।

२)    अष्टाध्यायी का एक और बहुत रोचक अंश है अन्तिम ३ पादों का संग्रह – ८।२।१ से ८।४।६७ तक, जिसे ’त्रिपादी’ कहा जाता है । इस त्रिपादी की विशेषता यह है कि यहां पर हर सूत्र अपने से पूर्व वाले सूत्रों के लिए असिद्ध है (पूर्वत्रासिद्धम् (८।२।१) – उनके अनुसार इस सूत्र का कार्य वास्तव में हुआ ही नहीं, हुआ तो उनको दिख नहीं रहा । यह कैसा अद्भुत प्रयोग है ! क्या विश्व के किसी भी अन्य ग्रन्थ में ऐसा प्रयोग दृष्टिगोचर होता है ? और विश्व तो क्या, भारत में भी ऐसा संयोजन न तो पाणिनि से पूर्व, और न ही पाणिनि के उपरान्त दृष्टिगोचर होता है । यह त्रिपादी पाणिनि की कुशाग्र बुद्धि का परिचायक है । और इसी कारण से, यहां बहुत अनुसन्धान की आवश्यकता है ।

    इस भाग में अधिकतर सूत्र सन्धि से सम्बन्धित हैं – ८।२।१०८ से लेकर ८।४।६७ तक । इससे जैसे यह बात सिद्ध होती है कि सन्धि होने पर भी वस्तुत: शब्द की मूल सत्ता या आकार पर कोई आंच नहीं आती । यही न्यायदर्शन आदि ग्रन्थों में शब्द के नित्यत्व विषय में कहा गया है । परन्तु, ’संहिता’ विषय के ये ही सूत्र हों, यह सही नही है ! संहिता के दो और बड़े प्रकरण हैं – ६।१।७० से ६।१।१५१ तक, और ६।३।११३ से ६।३।१३८ तक । तो क्या वे सन्धियां नित्य हैं ? यदि ऐसा नहीं, तो उन अंशों और इस अंश में क्या भेद है कि वे त्रिपादी में नहीं हैं ?

    त्रिपादी के सभी सूत्रों के क्रम पर भी अनुसन्धान होना चाहिए । क्या कुछ सूत्र आगे-पीछे किए जा सकते हैं, या हर सूत्र “पूर्वत्रासिद्धम् (८।२।१)” से बद्ध है ? यहां अन्तिम सूत्र का मैं उदाहरण देती हूं – “अ अ (८।४।६७)” । इस सूत्र में पूरे ग्रन्थ में प्रयुक्त विवृत्त स्वरों को संवृत्त reset किया जाता है, जिससे कि ग्रन्थ में प्रयुक्त ये technical स्वर लोक में न चले जायें । पाणिनि ने इस सीमा तक ग्रन्थ को वैज्ञानिक ढंग से लिखा है ! जैसे यहां अकार से सभी स्वर उपलक्षित हैं, उसी प्रकार अन्य सभी technical terms भी उपलक्षित हैं, जैसे कि गुण, वृद्धि, आदि । ग्रन्थ के बाहर उनके अर्थ लैकिक ही होंगे । 

    अब यह सूत्र इसलिए आवश्यक था कि पाणिनि ने अष्टाध्यायी में संस्कृत को संस्कृत के माध्यम से निबद्ध किया है । ऐसा करने के लिए उनको कई स्वरों, वर्णों, शब्दों, आदि, को नये अर्थ देने पड़े । ये technical terms अधिकतर प्रथम अध्याय में दिये गए हैं । जैसे – “अनुदात्तङित आत्मनेपदम् (१।३।१२)”, अर्थात् धातुपाठ में जो धातुएं अनुदात्त-इत् या ङ्-इत् हों, उनसे आत्मनेपद प्रत्यय होंगे । यहां अनुदात्त स्वर का, और ’ङ्’ वर्ण का, एक नया अर्थ कर दिया गया । इसी प्रकार विभक्तियों को नये अर्थ दिये गये हैं । “षष्ठी स्थानेयोगा (१।१।४८)”, “तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य(१।१।६५)”, “तस्मादिति उत्तरस्य(१।१।६६)” , आदि तो इस शृंखला में हैं ही, परन्तु “प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम् (१।२।४३)” में प्रथमा से उपसर्जन का निर्देश है । इसी प्रकार “तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् (३।१।९२)” में सप्तमी से उपपद का संकेत है ।

    ये अर्थ भी लोक में जाने इष्ट नहीं है । इस कारण से, पूर्व कहा गया सूत्र “अ अ (८।४।६७)” है । अब यह सूत्र तो अन्तिम ही हो सकता है, क्योंकि उससे पूर्व-पूर्व वे सारे technical terms लगेंगे ही । सो इस सूत्र को कहीं भी नहीं हिलाया जा सकता । परन्तु अन्य सूत्र ? क्या “भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि (८।३।१७)” वहीं आ सकता था, और कहीं नहीं ? यदि हां, तो क्यों ? यदि न, तो क्यों ? इस प्रकार हर सूत्र का विश्लेषण किया जाना चाहिए । अवश्य ही इस अनुसन्धान से अष्टाध्यायी ही नहीं, अपितु वर्णों और व्याकरण-नियमों के विषय में भी कुछ नवीन ज्ञान सामने आयेगा ।

३)    कई सूत्रों में अनेक पदों का इतरेतर-द्वन्द्व समास है, जैसे – “पञ्चद्दशतौ वर्गे वा (५।१।५९)” में ’पञ्चद्दशतौ’ में यह समास है । यह समास ठीक भी लगता है, क्योंकि दोनों पद ’च’ के अर्थ में हैं (“चार्थे द्वन्द्वः (२।२।२९)”) । परन्तु, कुछ सूत्रों में समाहार-द्वन्द्व पाया जाता है, जैसे – “पङ्क्तिविंशतित्रिंशच्चत्वारिंशत्पञ्चाशत्षष्टिसप्तत्यशीतिनवतिशतम् (५।१।५८)”, जहां ’पङ्क्ति, विंशति,’ आदि का समाहार-द्वन्द्व है । इस सूत्र और पूर्व सूत्र के पदों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । और समाहार-द्वन्द्व की दशाओं (२।४।२-१६) में यह शब्द नहीं बैठता है । बहुत खींचें तो “जातिरप्राणिनाम् (२।४।६)” में सङ्ख्या-जाति मानकर यह समास मान सकते हैं । तो प्रश्न उठता है कि बिल्कुल इसी प्रकार की सङ्ख्या-समाहार-जाति के लिए ५।१।५९ में फिर समाहार-द्वन्द्व क्यों न लगा ? वस्तुत:, यह प्रश्न जहां-जहां समाहार-द्वन्द्व का प्रयोग हुआ है, वहां उठाया जा सकता है । इसका कोई भी सन्तोषात्मक उत्तर मुझे नहीं मिला । जैसे हमने ऊपर भी देखा है, पाणिनि नियमों का उल्लंघन कभी नहीं करते थे । तो अवश्य ही यहां भी उन्होंने किसी नियम का पालन किया है । हमें केवल वह ढूढ़ निकालना है ! ढूढ़ने पर, समास और शब्दों के सम्बन्धों के विषय में हमें अवश्य कुछ नया ज्ञात होगा ।

४)    प्रातिपदिकों, और विशेष रूप से, धातुओं को सूत्रों में अनेक रूपों से कहा गया है । जैसे – ’भू सत्तायाम्’ को “इन्धिभवतिभ्याम् च (१।२।६)” में ’भवति’ कहा गया है, जबकि “भूसुवोस्तिङ्गि (७।३।८८)” में उसी धातु को ’भू” कहा गया है । “दाधाघ्वदाप् (१।१।१९)” सूत्र में पाणिनि ने ज्ञापक दे दिया है कि धातुओं के रूप अनैकान्तिक हैं – ’दा’ से डुदाञ्, दाण्, दो, देङ् – इन सभी धातुओं का ग्रहण है । तो फिर, अन्य धातुओं को ग्रहण न हो जाए, इसलिए ’भवति’ कहने का प्रयोजन हो सकता है , जैसे – “श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि (६।४।१०२)” में एक ही धातु ’श्रु’ के दो रूप अलग-अलग दिए गए हैं – ’श्रु’ और ’शृणु’, जिससे कि स्पष्ट हो जाए कि दोनों ही रूपों में कार्य होगा । लेकिन ’भू’ के विषय में ऐसा कोई संशय हो नहीं सकता । विचित्रता के लिए ऐसा किया गया हो, यह भी सम्भव है (देखो जिज्ञासु भाष्य १।२।३५) । परन्तु, प्रयोजन वैचित्र्य ही है या कुछ और है – इस तथ्य को स्थापित करने के लिए, ऐसे सभी सूत्रों को परखना आवश्यक है ।

५)    जहां पाणिनि की अनेकों सञ्ज्ञाएं स्पष्ट हैं (जैसे – वृद्ध, कर्मप्रवचनीय, करण-कारक, इत्यादि), अनेकों बड़ी विचित्र हैं, जैसे – घ, घु, घि, भम्, इत्यादि । एक ओर, ये संक्षेपण के लिए तो हैं ही, फिर भी दूसरी ओर, वर्णों के चयन में अवश्य ही कुछ रहस्य है । जैसे, सुपों में ’भम्’ उनकी सञ्ज्ञा है, जो भकार के पूर्व नहीं हैं, जैसे – ’रामात्’ में ’राम’ भम् है, परन्तु ’रामाभ्याम्’ में नहीं । सो, यह पाणिनि ने उलट कर नाम दिया है – जिनके आगे भकार है, उनकी सञ्ज्ञा ’पद’; जिनके आगे भकार नहीं है, उनकी सञ्ज्ञा ’भम्’ । इसी प्रकार अन्य सञ्ज्ञाओं के भी अवश्य ही कुछ कारण होंगे, वे निरर्थक नहीं होंगी ।

६)    अष्टाध्यायी में कुछ संशयात्मक विषय भी हैं । जैसे – “आ कडारादेका सञ्ज्ञा (१।४।१)” से विधान है कि आगे के तीन पादों में जहां-जहां एक से अधिक सञ्ज्ञा का विधान हो, वहां-वहां जो अन्तिम सञ्ज्ञा लगती हो, उसे लेना है, और सब को त्यागना है । इसके बाद, “प्रागीश्वरान्निपाताः (१।४।५६)” से ’निपात’ सञ्ज्ञा की जाती है । फिर “प्रादय उपसर्गाः क्रियायोगे (१।४।५८)” पर ’उपसर्ग’ सञ्ज्ञा की जाती है । परन्तु महाभाष्य के अनुसार ’निपात’ सञ्ज्ञा भी होती है ! अगले सूत्र “गतिश्च (१।४।५९)” में तो स्पष्टतः ’च’ होने से “और गति सञ्ज्ञा भी” अर्थ हम मान सकते हैं । यदि इस ’च’ का योग पूर्व सूत्र से भी मानकर, वहां भी दो सञ्ज्ञाओं को सिद्ध करें, तो प्रश्न उठता है कि फिर पाणिनि ने इस प्रकरण को इस ’एका सञ्ज्ञा’ के अधिकार में रखा ही क्यों ?

    अष्टाध्यायी पर अनेकों वृत्ति, वार्तिक, भाष्य, आदि हैं । इनको हम व्याकरण-विषय और अष्टाध्यायी पर सम्पूर्ण समझते हैं, परन्तु अभी भी ऐसे कई विषय हैं, जिसपर अनुसन्धान करने की आवश्यकता है । यदि हम उत्तर न भी जानें, कम-से-कम हमें इन्हें एक स्थान में सूचित तो करना चाहिए । फिर वैयाकरण इन गुत्थियों को एक-एक करके सुलझा सकते हैं ।