अष्टाध्यायी के सूत्रों में समास और स्थानिवदादेश

इस लेख में मैं अष्टाध्यायी के सूत्रों की दो विशेषताओं पर लिख रही हूं । सम्भवतः ये विशेषताएं वैयाकरणों को ज्ञात हों, परन्तु मैंने जहां तक पढ़ा या सुना है, ये विषय निम्नलिखित प्रकार से ज्ञात नहीं हैं । मेरी आचार्या अमृतवर्षिणी जी ने पहले विषय की खोज की है, जबकि दूसरा शोध-कार्य मेरा है । हमने अपने कथन को यथासम्भव परखा है, परन्तु अन्य वैयाकरण भी अवश्य परखें और यदि त्रुटि पाएं, तो मुझे अवश्य अवगत कराएं । 

सूत्रों में पदों का समस्त होना या न होना

अष्टाध्यायी में जब एक से अधिक दशाओं के अनुसार कोई कार्य करना होता है, तो कभी तो वे दशाएं समस्त-रूप में दी गईं हैं, और कभी उन्हें ’च’, आदि, से जोड़ा जाता है । 

यथा – “अनुदात्तङित  आत्मनेपदम् (१।३।१२)” – अर्थात् जो धातु उपदेश में अनुदात्तेत् या ङित् हों, उनसे आत्मनेपद-संज्ञक प्रत्यय हों । यहां ’अनुदात्तेत्’ और ’ङित्’ दो दशाएं हैं जिनके अनुसार आत्मनेपद संज्ञा का निर्धारण होगा । इनका समास इस प्रकार हुआ है – अनुदात्तश्च ङश्च अनुदात्तङौ (द्वन्द्वसमासः) ॥ अनुदात्तङौ इतौ यस्य, स अनुदात्तङित् (द्वन्द्वगर्भ-बहुव्रीहिः) ॥ इस सूत्र के उदाहरण हैं पाणिनि के धातुपाठ में पढ़े – ’एध̲ वृद्धौ’ जिसमें अन्तिम अकार अनुदात्त है और इत् होता है, और ’शीङ् स्वप्ने’ जिसमें अन्तिम ’ङ्’ इत् होता है । सूत्रानुसार इनमें आत्मनेपद प्रत्यय लगकर इनके एधते, शेरते, आदि आत्मनेपदी लकार-रूप बन जाते हैं ।

दूसरा उदाहरण है – “एकाच  उपदेशेऽनुदात्तात् (७।२।१०), अनुवृत्तिः – नेट्” – अर्थात् जो धातु उपदेश में एकाच् हो और अनुदात्त हो, उससे उत्तर इडागम न हो । यहां पर एकाच् और अनुदात्त का समास हो सकता था, जिससे सूत्र बनता – “एकाचनुदात्तादुपदेशे”, जहां ’एकाचनुदात्तः’ में पूर्ववत् द्वन्द्वगर्भ-बहुव्रीहिः होता । परन्तु पाणिनि को यह इष्ट नहीं था । क्यों ? इसका उत्तर जानने से पहले, इस सूत्र के भी उदाहरण देख लेते हैं – ’डुदा̲ञ् दाने’ धातु में, ’डु’ को न गिनते हुए, ’दाञ्’ में केवल एक अच् है – ’आ’ । वह ’आ’ अनुदात्त भी है । इसलिए उसपर यह सूत्र लग जाता है, और उसके ’दास्यति’ आदि रूप बन जाते हैं । 

सूत्रों की व्याख्या यदि आप ध्यान से पढ़ें, तो आपको इन सूत्रों में भेद सम्भवतः स्पष्ट दिखे । वह यह है – पहले सूत्र में ’अनुदात्तेत्’ और ’ङित्’ – ये दो दशाएं अलग-अलग धातुओं पर लगती हैं, परन्तु दूसरे सूत्र में ’एकाच्’ और ’अनुदात्त’ – ये दोनों दशाएं एक ही धातु पर लगती हैं । इस प्रकार समस्त पदों के बीच हमें ’अथवा’ जोड़ना होता है, जबकि भिन्न-भिन्न पदों में हमें समुच्चयार्थक ’च’ जोड़ना होता है । इस भेद की पुष्टि के लिए निम्नलिखित अन्य सूत्र भी देखिए ।

समस्तपद वाले सूत्र

ईदूतौ च सप्तम्यर्थे (१।१।१८), दाधा घ्वदाप् (१।१।१९), तिङ्शित् सार्वधातुकम् (३।४।११३), अजाद्यतष्टाप् (४।१।४), ऋन्नेभ्यो ङीप् (४।१।५), ससजुषो रुः (८।२।६६), रषाभ्यां नो णः समानपदे (८।४।१)

असमस्तपद वाले सूत्र

युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्यपि मध्यमः (१।४।१०४), विभाषा गुणेऽस्रियाम् (२।३।२५), धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् (३।१।२२), अचित्ताददेशकालाट्ठक् (४।३।९६), एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८।२।३७) 

वैसे, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि जो असमस्त पद एक ही विभक्ति में पाए जाते हैं, वे विशेषण-विशेष्य भाव लिए होते हैं, अर्थात् वे सभी एक ही वस्तु को वर्णित करते हैं, जबकि जो समस्त पद हैं उनमें इतरेतर अथवा समाहार द्वन्द्व का प्रयोग हुआ है । सो, वे अलग-अलग पदार्थों को कहते हैं । तथापि सम्भवतः यह विश्लेषण स्पष्टतः किया नहीं गया है । प्रतीत होता है कि इन सूत्रों के अर्थ, बहुत काल से, परम्परानुसार किए जा रहे हैं । इसीलिए यह ध्यान देने योग्य विषय है । कई सूत्रों में क्यों किसी दशा को जोड़ा जा रहा है, और क्यों किसी सूत्र में अलग-अलग लिया जा रहा है, यह स्पष्ट करने में यह ज्ञान हमारा मार्गदर्शन करेगा, और हमें परम्परा या भाष्य का आश्रय नहीं लेना पड़ेगा । 

स्थानिवदादेश पर टिप्पणी

अष्टाध्यायी के अतिदेश प्रकरण में पहला सूत्र है – स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ (१।१।५५), जिसका अर्थ है कि, जिस सूत्र में अल्विधि का प्रकरण न हो, वहां विधीयमान आदेश स्थानिवत् हो । यथा – ’प्रकृत्य’ शब्द बनाने में ’प्र+क्त्वा’ में (समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७) सूत्र से) क्त्वा को ल्यप् आदेश हुआ, जो ल्यप् स्वयं कृत्-प्रत्यय के रूप में निर्दिष्ट नहीं है । परन्तु क्त्वा के कृत् होने से, वह भी कृद्वत् हो गया, और ’प्रकृत्य’ शब्द कृदन्त बना । इस सूत्र में अल्विधि का निषेध है । पतञ्जलि के महाभाष्य के अनुसार ’अल्विधि’ में चार प्रकार का समास सम्भव है – 

(१) अला विधिः – अल् के द्वारा विधि 

(२) अलः विधिः – अल् से परे विधि 

(३) अलः विधिः – अल् के स्थान में विधि और 

(४) अलि विधिः – अल् के परे रहते विधि । 

पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी ने अपने प्रथमावृत्ति भाष्य में चारों प्रकारों के अनेक उदाहरण दिए हैं, क्योंकि यह विषय कठिन प्रतीत होता है । उन्होंने सूत्र की टिप्पणी में लिखा है, “अल्विधि में स्थानिवत् नहीं होता, इसके उदाहरण देना यद्यपि द्वितीयावृत्ति का विषय है, तथापि उसको भी यहां समझना इसलिए अनिवार्य हो गया है कि अगला सूत्र “अचः … (१।१।५६)” अनल्विधि (के स्थानिवत् न होने) का अपवाद है । अतः यहां अल्विधि में स्थानिवत् किस प्रकार नहीं होता, यह बता देना आवश्यक है । यह बात अध्यापक धीरे से समझा दें । हम तो समझा ही देते हैं । छात्र समझ लेता है, और प्रसन्न हो उठता है । कोई न समझे तो जाने दें ।” इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि उन्होंने इसे एक कठिन विषय माना है । मेरे अनुसार, इस विषय में कोई भी कठिनता नहीं है, अपितु यह सूत्र बुद्धिसम्मत ही है । वह कैसे, यह मैं आगे दर्शाती हूं ।

सरल भाषा में ’अल्विधि’ वह है जिसमें आदेश अल् हो । ऊपर जो हमने क्त्वा को ल्यप् में बदला, तो सूत्र था – समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७) । यहां स्पष्ट रूप से, आदेश ल्यप् है, जो कि अल् नहीं है । दूसरी ओर देखिए यह सूत्र – धिन्विकृण्व्योर च (३।१।८०), अनु० उः सार्वधातुके धातोः प्रत्ययः परश्च – कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते, धिवि और कृवि धातुओं से ’उ’ प्रत्यय होता है, और उनको अकार अन्तादेश भी हो जाता है । इसके कारण धिवि के धिनोति रूप बनाने की प्रक्रिया इस प्रकार होती है –

धि + नुम् + व् + तिप् -> धिन् + अ (प्रकृत् सूत्र से और अन्त्य वकार के स्थान में) + उ (प्रत्यय) + तिप् -> धिन् + ओ + ति (अतो लोपः ॥६।४।४८॥ से अकार के लोप होने से और उ की वृद्ध्युपरान्त) -> धिनोति ।

यहां ’उ’ प्रत्यय है, सो अल्विधि के अन्तर्गत नहीं आता, जबकि वह अल् ही है । इसलिए उसपर प्रत्यय पर होने वाली गुणवृद्धि, आदि, सभी प्रक्रियाएं होती हैं । परन्तु अकार आदेश है – वह अलादेश है । यदि वह वकार के स्थानिवत् हो जाता, तो “अतो लोपः” से उसका लोप सम्भव नहीं था ।

अब हम चार समासों के अनुसार उदाहरणों की परीक्षा करते हैं । ये सभी प्रथमावृत्ति में १।१।५५ के उदाहरण ही हैं ।

  • अला विधिः (अल् के कारण विधि)– यहां ’महोरस्केन’ की सिद्धि के सम्बद्ध अंश में दर्शाया गया है कि – महोरस् + क + टा में (ससजुषो रुः ॥८।२।६६॥ से) स् को रुत्व हो जाता है, जो कि (खरवसानयोर्विसर्जनीयः ॥८।३।१५॥ अनु० रः पदस्य संहितायाम् ॥ से) विसर्जनीय हो जाता है -> महोर + : + क + इन -> (सोऽपदादौ ॥८।३।३८॥ अनु० विसर्जनीयस्य कुप्वोः संहितायाम् ॥ से) इस विसर्जनीय को पुनः सकारादेश हो जाता है -> महोरस्केन । यह सकार अल्विधि के अन्तर्गत आया । इसलिए स्थानिवत् विसर्जनीय नहीं हुआ । यदि होता, तो “अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवायेऽपि (८।४।२), अनु० रषाभ्यां नौ णः समानपदे” से ’इन’ के नकार को णकार प्राप्त था, क्योंकि विसर्जनीय भाष्यवचन से अट् के अन्तर्गत गिना जाता है । यह ’अला विधि’ का उदाहरण इसलिए माना गया है कि क्योंकि “अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवायेऽपि (८।४।२)” में ’अट्’ के अन्तर्गत विसर्जनीय के व्यवधान के कारण ’न्’ को ’ण्’ प्राप्त है । वैसे, संस्कृत् नियमों के अनुसार तो ’अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवाय’ में सप्तमी विभक्ति है । सो, यह ’अलि विधिः’ = अल् के व्यवधान में विधि होनी चाहिए । यदि हम ’अला विधिः’ मान भी लें, तो यह सूत्र तो लगा ही नहीं ! इस सूत्र के न लगने का कारण ’स्’ का स्थानिवत् न होना था । इस सूत्र के कारण वह स्थानिवत् नहीं हुआ, यह किस तर्क से संगत हुआ ?! जब यह विधि लगी ही नहीं, तो १।१।५५ सूत्र प्रवृत्त ही नहीं हुआ ।
    मेरे अनुसार यहां विसर्जनीय का अलादेश ’स्’ हो रहा है, इसलिए ये अल्विधि है । यदि सकार कभी ’स्’ और कभी विसर्जनीय हो, तो ८।४।२ सूत्र जैसे सन्धि-नियम व्यर्थ हो जायेंगे । सो, ’स्’ का विसर्जनीय होना सम्भव ही नहीं है !
  • अलः विधिः (अल् से परे विधि) – यहां ’द्यौः’ की सिद्धि में “दिव औत्, अनु० सौ अङ्गस्य (७।१।८४)” से, सु परे रहते, ’दिव्’ अङ्ग के अन्त्य वकार को औकारादेश होता है -> दि + औ । अभी तक तो यहां पञ्चमी विभक्ति कहीं भी नहीं आई । सो, कहा गया है, कि – यदि औ स्थानिवत् वकार होता तो “हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्, अनु० लोपः (६।१।६६)” से हल् के परे सु का लोप् होने लगता । इसलिए यह अलः विधिः है । पुनः, विधि जब लगी ही नहीं, तो इसे ’अलः विधिः’ द्यौः बनाने में कैसे मानें ? जहां ६।१।६६ सूत्र लगता होगा, और उसके बाद लोप को स्थानिवत् न माना गया हो, तब वहां हम ’अलः विधिः’ कह सकते हैं । सो पुनः, यह भी ’अलः विधिः’ का उदाहरण है ही नहीं ।
    मेरे अनुसार, ७।१।८४ में औत् अलादेश है । इसलिए अल्विधि के अन्तर्गत है और इसीलिए वह वकार के स्थानिवत् नहीं माना गया । यह बुद्धिसंगत भी है, क्योंकि यदि औकार वकार के स्थानिवत् होने लगा, तो अजन्त और हलन्त विधियों में भारी संकर उत्पन्न हो जायेगा !
  • अलः विधिः (अल् के स्थान में विधि) – ’द्युकामः’ की सिद्धि में भी कुछ ऐसा ही प्रकरण है । दिव् + काम + सु में “दिव उत् (६।१।१२७)” से अपदान्त दिव् के अन्त्य वकार को उकार आदेश हो जाता है । इसे ’अलः विधिः’ इसलिए माना गया है कि, यदि उकार वकार के स्थानिवत् होता, तो “लोपो व्योर्वलि (६।१।६४)” से उकार लोप पाता, और ’व्योः’ में षष्ठी विभक्ति है । पुनः, जो विधि शब्द के बनने में लगी ही नहीं, क्योंकि उकार वकार के स्थानिवत् था ही नहीं, तो उसे उकार के स्थानिवत् न होने में कैसे कारण मानें ? यह तो उलटी गंगा हो गई !
    मेरे अनुसार, समाधान उपर्युक्त ही है – उत् अल् है । इसलिए वह अल्विधि के अन्तर्गत आ गया । पुनः यदि उकार वकार का स्थानिवत् होने लगा तो ६।१।६४ जैसे कितने अन्य सूत्रों में हमें ध्यान रखना पड़ेगा कि यह अल् वास्तव में किस अल् के स्थान में आया हुआ है । वस्तुतः, अलों को बदलने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा !
  • अलि विधिः (अल् को परे मानकर विधि) – ’क इष्टः’ इस वाक्य की सिद्धि में “वचिस्वपियजादीनां किति, अनु० – सम्प्रसारणम् (६।१।१५)” से यज् धातु से क्त जुड़ने पर, यकार का इकार सम्प्रसारण हो जाता है । यदि यह इकार यकार के स्थानिवत् होगा, तो “हशि च, अनु० अतः रोः उत् संहितायाम्  (६।१।११०)” से पूर्व पद ’क रु’ के रेफ को  उकारादेश होने लगेगा, जो नहीं होता । पुनः, यहां ’हशि’ के सप्तमी में होने के कारण ’अलि विधि’ बताई गई है । यह सही नहीं है । हां, ’किति’ अवश्य कारण है सम्प्रसारण का, परन्तु इत् अक्षर अल्विधि के अन्तर्गत नहीं होते ।
    वस्तुतः, “इग्यणः सम्प्रसारणम् (१।१।४४)” से जो यकार का इकार हुआ, वह इकार ही अल्विधि है, और उसके होते, इकार को स्थानिवत् यकार कभी नहीं मानना चाहिए । हां, यदि ’इ’ प्रत्यय-विशेष होता तो वह अवश्य स्थानिवत् होता, परन्तु तब भी यकार रूप में नहीं, अपितु कृदन्त आदि गुणों के कारण ।

मेरी कही बात नई नहीं है । महाभाष्य में पतञ्जलि उपर्युक्त का खण्डन करते हैं – अथ विधिग्रहणं किमर्थम् ? (पूर्वपक्षः) सर्वविभक्त्यन्तः समासो यथा विज्ञायेत । अलः परस्य विधिः अल्विधिः, अलो विधिः अल्विधिः, अलि विधिः अल्विधिः, अला विधिः अल्विधिरिति । (सिद्धान्तपक्षः) नैतदस्ति प्रयोजनम् । प्रातिपदिकनिर्देशोऽयम् । प्रातिपदिकनिर्देशाश्चार्थतन्त्रा भवन्ति, न काञ्चित् प्राधान्येन विभक्तिमाश्रयन्ति । तत्र प्रातिपदिकार्थे निर्दिष्टे यां यां विभक्तिमाश्रयितुं बुद्धिरुपजायते सा साश्रयितव्या । (पूर्वपक्षः) इदं तर्हि प्रयोजनम् – उत्तरपदलोपो यथा विज्ञायेत । अलमाश्रयते अलाश्रयः । अलाश्रयो विधिरल्विधिरिति । (सिद्धान्तपक्षः) यत्र प्राधान्येनालाश्रीयते, तत्रैव प्रतिषेधः स्यात् ।  यत्र विशेषणत्वेनालाश्रीयते, तत्र प्रतिषेधो न स्यात् । किं प्रयोजनम्? प्रदीव्य, प्रसीव्येति वलादिलक्षणेन इण्मा भूदिति ।

इस प्रकार महाभाष्य में पढ़े गए चार समास वस्तुतः पूर्वपक्ष के हैं, और पतञ्जलि ने उनका खण्डन किया है ।

यहां अन्त में एक और बात कही गई है कि – जिस विधि में अलों का प्रधानरूप से आश्रय लिया गया हो, वह अल्विधि है; जिसमें वे विशेषण हों, वह नहीं । यथा – प्रदीव्य और प्रसीव्य में ल्युट् का यकार “आर्धधातुकस्येड्वलादेः (७।२।३५)” के अन्तर्गत आ जाए, तो य् के पूर्व इट् का आगम हो जाए । परन्तु प्रकृत् सूत्र में वलादि आर्धधातुक का विशेषण है, इसलिए अप्रधान है । इसलिए वह प्रवृत्त नहीं हुआ और इट् का आगम नहीं हुआ । मेरा यहां प्रश्न है कि यकार तो वल् में पढ़ा ही नहीं गया है, तो इडागम इस सूत्र से क्योंकर होगा ?? और वलादि प्रवृत्त न हो, तो वह निरर्थक हो जाए ! सो, यह वाक्य मुझे स्वीकार नहीं है । दूसरी ओर, ७।२।३५ में वलादि इडागम का कारण है, परन्तु इडादेश अल् नहीं है । इसलिए यह सूत्र अल्विधि के अन्तर्गत नहीं आता । 

निष्कर्ष – जहां पर किसी अल्/प्रत्यय/धातु/प्रातिपदिक/आदि आदि पर अलादेश हो, वह अल् स्थानिवत् नहीं होगा । और यह अत्यन्त बुद्धिसंगत भी है, जैसा मैंने उदाहरणों में दर्शाया है ।

१।१।५५ के आगे के तीन सूत्र उसी से सम्बद्ध हैं । मेरे बताए प्रकार से समझने से आपको ये कठिन माने जाने वाले सूत्र भी सरलता से समझ में आ जायेंगे (देखें मेरे अन्य लेख ‘अष्टाध्यायी में स्थानिवत्त्व’) ।

किसी भी भाषा में कोई भी वाक्य, बिना सन्दर्भ और सामान्य-ज्ञान के, पूर्णरूपेण समझा नहीं जा सकता । यथा – कोई लड़के से बोले, “अष्टाध्यायी पढ़ ।” तो किसको यह वाक्य बोला गया ? क्या वह आरम्भ से पढ़े, या जहां तक पढ़ चुका है वहां से, या जो आचार्य ने पढ़ाया है उसे पढ़े ? इस प्रकार कई प्रश्न खड़े हो जाते हैं । अष्टाध्यायी में तो पाणिनि ने भाषा को ही सूत्रबद्ध किया है । तो उसमें सन्दर्भ और common-sense का प्रयोग न करना मूर्खता है । जबकि उन्होंने यथासम्भव अपने सारे प्रयोग – गणितीय रीति से – परिभाषित कर दिए हैं, तथापि कुछ अन्य प्रयोग व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं । कात्यायन, पतञ्जलि प्रभृति वैयाकरणों ने इनका बहुत स्पष्टीकरण किया है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि और स्पष्टीकरण सम्भव नहीं है ! और सामान्य-ज्ञान को तो कभी त्यागना ही नहीं चाहिए !