अष्टाध्यायी में अधिकार

अष्टाध्यायी में सूत्रों का अधिकार उन सूत्रों के कार्यक्षेत्र को निर्धारित करते हैं, जिसके कारण उस सूत्र को बार-बार पढ़ना नहीं पड़ता और ग्रन्थ में लघुत्व आ जाता है । इन अधिकारों में कई स्थानों पर एक विचित्र बात देखने को आती है । एक अधिकार के समाप्त होने से पहले ही दूसरा अधिकार प्रारम्भ हो जाता है जिसके कारण पहला अधिकार निरर्थक प्राय हो जाता है । ऐसा माना गया है कि जिस प्रकार एक अधिकारी के स्थानान्तरित होने से पहले ही दूसरा अधिकारी अपना स्थान ले लेता है, इसी प्रकार पाणिनि ने किया है । परन्तु पहला अधिकार कई बार दूसरे अधिकार के बहुत दूर तक जाता है, केवल अगले सूत्र तक नहीं । इसमें पाणिनि का क्या अभिप्राय है, इसका थोड़ा उत्तर महाभाष्य में मिलता है । यह लेख उस उत्तर को आगे ले जा रहा है ।

पहले हम अधिकार के दो उदाहरणों को देखते हैं जिससे संशय स्पष्ट हो जायेगा । “प्राग्घिताद्यत् (४।४।७५)” में ’हित’ अर्थात् “तस्मै हितम् (५।१।५)” से पहले-पहले जो-जो अर्थ हैं, उन पर यत् का अधिकार स्थापित किया गया है । सो, “तत्र साधुः (४।४।९८)” अर्थ में यत् प्रत्यय का योग होगा, जैसे – शरणे साधु इति शरण्यः देवः । अब, “प्राक् क्रीताच्छः (५।१।१)” पर, अर्थात् ५।१।४ जहां तक यत् का अधिकार था, उससे ४ सूत्र पहले ही, छ प्रत्यय का अधिकार स्थापित किया जाता है, जो कि “तेन क्रीतम् (५।१।३६)” से पूर्व-पूर्व जाता है । इसलिए, ४।४।७५ का अधिकार वास्तव में ४।४।१४४ तक ही माना जाता है, ५।१।५ तक नहीं ।

स्वयं छ का अधिकार ५।१।३५ से पूर्व ही समाप्त हो जाता है ! “प्राग्वतेष्ठञ् (५।१।१८)” से ठञ् का अधिकार प्रारम्भ हो जाता है, जो कि ५।१।११३ तक जाता है । इसका निष्कर्ष यह निकाला गया है, कि वस्तुतः छ का अधिकार ५।१।१७ तक ही है, ५।१।३५ तक नहीं, और उसके बाद ठञ् का हो जाता है ।

तो क्या महाविद्वान् पाणिनि, जिन्होंने व्याकरण के सूक्ष्म नियमों को जानकर, उनको गणितीय व्यवस्था में पिरोया, इतनी भी गणित नहीं कर पाए कि वे यत् का अधिकार ४।४।१४४ तक दें और छ का अधिकार ५।१।१७ तक ? यह मानना तो बहुत कठिन है ! अवश्य ही इस प्रकार का अधिकार देने में उनका कोई विशेष प्रयोजन होगा …

पहले-पहल इस विषय से सम्बद्ध प्रश्न महाभाष्य में “प्राग्दीव्यतोऽण् (४।१।८३)” पर उठाया गया पाया जाता है, जहां पूछा गया है कि, ’प्राक्’ कहकर अधिकार करने से अच्छा, आचार्य पाणिनि अण् प्रत्यय की अनुवृत्ति ही दे देते । सो, उसका उत्तर निर्धारित किया गया कि ’प्राक्’ के द्वारा स्थापित अधिकार अर्थ के लिए है, अण् प्रत्यय के लिए नहीं । इसलिए आगे जिन-जिन अर्थों में अन्य प्रकृतियों के साथ अन्य प्रत्यय कहे गए हैं, वहां-वहां अण् बाधित हो जाता है । दिए गए तर्क के अनुसार, यदि अर्थानुसारी अधिकार नहीं होता, और प्रत्ययानुसारी अधिकार अथवा अनुवृत्ति होती, तो अपवाद विषय में अण् की भी उपस्थिति विकल्प से माननी पड़ती । फिर ५।१।१ पर पुनः यह विषय उठाया जाता है, परन्तु वहां पर भी कुछ भी नया नहीं कहा गया है – प्राक्-विषयक अधिकार में अर्थ की प्रधानता को ही पुनः दोहराया है । अर्थ के ग्रहण से क्या विशेष प्रयोजन है, इस पर प्रकाश नहीं डाला गया है । इसीलिए आज भी हम उसका महत्त्व समझ नहीं पाए हैं, उल्टा प्रत्यय के आधार पर ही अधिकार का ग्रहण कर रहे हैं – क्योंकि ५।१।१ पर नया प्रत्यय आ गया, इसलिए हम कह रहे हैं कि यत् का अधिकार ५।१।४ पर न समाप्त होकर, ४।४।१४४ पर ही समाप्त हो गया; क्योंकि ५।१।१८ पर एक नया प्रत्यय आ गया, इसलिए हम कह रहे हैं कि छ का अधिकार ५।१।३५ नहीं, अपितु ५।१।१७ पर ही समाप्त हो रहा है । सो, सोच बदल कर अर्थानुसारी अधिकार ग्रहण करने का प्रयास करते हैं ।

पहले देखते हैं यत्-प्रकरण । यह तो बहुत ही अद्भुत है ! इसमें ५।१।१ में पाणिनि छ का अधिकार बैठाते हैं, और फिर अगले ही सूत्र में पुनः यत् को स्थापित कर देते हैं – उगवादिभ्यो यत् (५।१।२), जहां से यत् की अनुवृत्ति ५।१।४ तक ही मानी गई है, जहां तक ४।४।७५ का अधिकार जाना था ! यही ज्ञापक है कि पाणिनि को अर्थानुसारी अधिकार इष्ट है, न कि प्रत्यय-सम्बन्धी, क्योंकि ऐसा नहीं होता तो वे या तो ५।१।२-४ सूत्र पिछले अध्याय में ही डाल देते, या फिर ५।१।१ का अधिकार ५।१।४ के बाद डालते । इससे वे यह ज्ञापित करा रहे हैं कि ५।१।२-४ सूत्र उनको प्राक्-क्रीतात् अर्थों और प्राक्-हितात् अर्थों में इष्ट हैं । इसका प्रयोजन निम्न प्रकार है ।

“विभाषा हविरपूपादिभ्यः (५।१।४)” में हवि-विशेषों और अपूप आदि शब्दों से यत् होता है, और विकल्प से छ भी । क्योंकि इसके पूर्व कोई भी अर्थ-वाक्य नहीं दिया गया है, इसलिए यहां ५।१।५ से लेकर ५।१।१७ तक के अर्थों को लिया गया है । इससे “तस्मै हितम् (५।१।५)” अर्थों में अपूप आदि में पठित ’सूप’ से बना – सूपाय हितम् सूप्यः सूपीयो वा । परन्तु ये सूत्र प्राक्-हितात् अर्थों में भी है ! सो, “तत्र साधुः (४।४।९८)” अर्थ (सूपे साधुः) में भी ’सूप्य’ और ’सूपीय’ का प्रयोग होगा । इस प्रकार जो यत् ५।१।२-४ सूत्रों में पढ़ा गया है, वह प्राक्-हितात् अर्थ में भी है और प्राक्-क्रीतात् में भी । 

५।१।४ में पढ़ा गया ’अपूप’ “गुडादिभ्यष्ठञ् (४।४।१०३)” में भी पढ़ा गया है, जो कि “तत्र साधुः” के अन्तर्गत है । इससे संशय होता है कि क्या ५।१।४ का छ-युक्त ’अपूपीय’ “तत्र साधुः” अर्थों में भी होगा की नहीं ? सो, ४।४।१०३ एक विशेष अर्थ “तत्र साधुः” से सम्बद्ध होने के कारण , इस अर्थ में तो ’आपूपिक’ ही बनेगा, परन्तु अन्य अर्थों में, जैसे “भवे छन्दसि (४।४।११०)” अर्थ में ’अपूप्य’ और ’अपूपीय’ दोनों प्रयोग बनेंगे ।

वस्तुतः, ५।१।२-४ में कोई नए अर्थ दिए ही नहीं गए हैं, केवल कुछ प्रकृतियों पर कुछ नियम दिए गए हैं । इन सूत्रों को ४।४।७५ के अधिकार में रखने का केवल यह ही प्रयोजन है कि इनमें बताए नियम दोनों प्राक-हितात् और प्राक्-क्रीतात् अर्थों में लगें ।

“तस्मै हितम् (५।१।४)”, जहां पर ५।१।२ से आई यत् की अनुवृत्ति समाप्त हुई, उससे अगले ही सूत्र में पुनः यत् पढ़ा गया है – “शरीरावयवाद्यत् (५।१।६)”, जिसके कारण ’दन्तेभ्यो हितं दन्त्यम् औषधम्’ बना । इस यत् की अनुवृत्ति ५।१।७ तक जाती है । अब पाणिनि ने ५।१।२ से यत् की अनुवृत्ति ५।१।७ तक ही क्यों न दे दी ? तो, इसका उत्तर है कि “तस्मै हितम्” में वैसे तो छ प्रत्यय ही प्राप्त होगा, केवल ५।१।६-७ के अपवाद-विषयों में यत् प्राप्त होगा । इस यत् का प्राक्-हितात् अर्थों से कोई सम्बन्ध न होने के कारण, प्राक्-हितात् यत् के अधिकार को बनाए रखने का कोई अर्थ नहीं बनता है । इसलिए ५।१।५ से नया प्रकरण आरम्भ हो गया । पुनः हम प्रत्यय की अपेक्षा अर्थ की प्रधानता को पाते हैं ।

इसी प्रकार हम “प्राक् क्रीताच्छः (५।१।१)” को समझ सकते हैं, जिसका अधिकार “तेन क्रीतम् (५।१।३६)” से पूर्व तक जाता है, जबकि छ की अनुवृत्ति “प्राग्वतेष्ठञ् (५।१।१८)” पर ही समाप्त हो जाती है । यहां पर भी हम पाते हैं कि “प्राग्वतेष्ठञ् (५।१।१८)” के बाद, अगले ही सूत्र में ५।१।६१ तक ठञ् का अपवाद ठक् कर दिया गया । फिर “तेन क्रीतम् (५।१।३६)” तक केवल नियम ही नियम हैं, कोई अर्थ-वाक्य है ही नहीं । यह बिल्कुल वही स्थिति है जो हमने पूर्व उदाहरण में देखी । और उसी के समान, ये सभी नियम दोनों प्राक्-क्रीतात् और प्राक्-वतेः अर्थों में लगेंगे । जैसे – “कंसाट्टिठन् (५।१।२५)” से “तस्मै हितम् (५।१।५)” अर्थ (कंसाय हितम्) में भी ’कंसिक’ ही बनेगा, जिस प्रकार “तेन क्रीतम् (५।१।३६)” अर्थ (कंसेन क्रीतम्) में बनता है । यह प्रकरण “शाणाद्वा (५।१।३५)” तक चलेगा, जिसमें ’द्विशाण्यम्’ आदि जो शब्द बनते हैं, वे प्राक्-क्रीतात् अर्थों में भी बनेंगे । जैसे – सूत्र “तदस्य तदस्मिन् स्यादिति (५।१।१६)” में ’द्वौ शाणौ अस्य अस्मिन् वा स्यादिति द्विशाण्यं, द्विशाणम् वा’ बनेगा । अगले सूत्र – “तेन क्रीतम् (५।१।३६)” –  से अर्थ-वाक्य प्रारम्भ हो गया, और उसके अन्तर्गत दिए नियम केवल उस अर्थ में लगेंगे, इसलिए उसके आगे प्राक्-क्रीतात् अर्थों को ले जाना व्यर्थ हो जाता है । 

इस प्रकार दो अधिकारों के बीच में आने वाले सूत्र नियमार्थक हैं और वे दोनों पक्षों के अर्थों में यथासम्भव लगेंगे ।

पाणिनि के सूत्रों की रचना अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है, इसमें हमें संशय नहीं करना चाहिए । चाहे वार्तिक और महाभाष्य में हमें कुछ रहस्यों के उत्तर न मिलें, या संकेतमात्र मिलें, हमें श्रम करके इन सूत्रों को समझना ही पड़ेगा । वार्तिक और महाभाष्य में सभी उत्तर उपलब्ध हों, यह किसी भी प्रकार से नहीं कहा जा सकता । बहुत सारे स्थान अभी भी ऐसे हैं, जहां संशय बने हुए हैं । इनके चलते, हम शब्दों के प्रयोगों को पूर्णतया समझ नहीं पायेंगे । इसलिए उत्तर खोजने ही होंगे…