अष्टाध्यायी में स्थानिवत्त्व

‘अष्टाध्यायी के सूत्रों में समास और स्थानिवदादेश’ नामक लेख में मैंने अष्टाध्यायी के सूत्र “स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ (१।१।५५)” पर टिप्पणी की है, जिससे कि सूत्र में भासित क्लिष्टता दूर हो जाती है । मैंने सूत्र को सरलता से समझने का एक प्रकार दिया है । इस सूत्र के आगे के ३ सूत्र भी इससे सम्बद्ध हैं । अवश्य ही उन में भी क्लिष्टता है, जो कि सरल विवरण की अपेक्षा रखती है । सो, उन सूत्रों की व्याख्या इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं । 

वैसे तो मैं अपने उपर्युक्त लेख का निष्कर्ष पुनः नीचे दे रही हूं, तथापि यदि संशय हो, तो उपर्युक्त लेख भी पढ़ लें ।

पूर्वलिखित व्याख्या पर सिंहावलोकन

अष्टाध्यायी के अतिदेश प्रकरण में पहला सूत्र है – स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ (१।१।५५), जिसका अर्थ है कि, जिस सूत्र में अल्विधि का प्रकरण न हो, वहां विधीयमान आदेश स्थानिवत् हो । यथा – ’प्रकृत्य’ शब्द बनाने में ’प्र+क्त्वा’ में “समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७)” सूत्र से क्त्वा को ल्यप् आदेश हुआ, जो ल्यप् स्वयं कृत्-प्रत्यय के रूप में निर्दिष्ट नहीं है । परन्तु क्त्वा के कृत् होने से, ल्यप् भी कृद्वत् हो गया, और ’प्रकृत्य’ शब्द कृदन्त ही कहलाया । 

दूसरी ओर जहां भी अल्विधि होती है, वहां आदेश स्थानिवत् नहीं होता । जैसे – ’द्यौः’ की सिद्धि में “दिव औत्, अनु०-सौ अङ्गस्य (७।१।८४)” से, सु परे रहते, ’दिव्’ अङ्ग के अन्त्य वकार को औकारादेश होता है -> दि + औ । यहां ’औत्’ अल् है, सो वह ’व्’ के स्थानिवत् नहीं हुआ, इसलिए यहां “हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्, अनु०-लोपः (६।१।६६)” की प्रवृत्ति नहीं हुई और हल् ’व्’ के परे सु का लोप नहीं हो सका ।

पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी की अष्टाध्यायी पर प्रथमावृत्ति भाष्य से प्रतीत होता है कि ’अल्विधि’ में चार प्रकार का समास सम्भव है – 

(१) अला विधिः – अल् के द्वारा विधि 

(२) अलः विधिः – अल् से परे विधि 

(३) अलः विधिः – अल् के स्थान में विधि और 

(४) अलि विधिः – अल् के परे रहते विधि । 

परन्तु यह पतञ्जलि-, और इस कारण से पाणिनि-, सम्मत नहीं है, क्योंकि महाभाष्य में पतञ्जलि लिखते हैं, “यत्र  प्राधान्येनालाश्रीयते, तत्रैव  प्रतिषेधः  स्यात् ।  यत्र  विशेषणत्वेनालाश्रीयते, तत्र  प्रतिषेधो  न  स्यात् ।” अर्थात् जहां प्रधानता से अल् का आश्रय हो, वहां (स्थानिवत्त्व का) प्रतिषेध हो जायेगा, जहां विशेषण के रूप में अल् विहित है, वहां नहीं होगा । या मेरे शब्दों में – किस प्रकार से विधि हुई हो (अला/अलः/अलि), यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्व है तो इस बात का कि अल् के स्थान में कोई नया अल् आया है क्या? या किसी अल् का लोप हुआ है क्या? यदि हां, तो वह अल्विधि है । फिर उस नए अथवा लुप्त अल् को पूर्व अल् के बराबर मानना, उसका स्थानी मानना, बुद्धिपरक नहीं है, क्योंकि जिस कारण से अलों की अदला-बदली की गई है, वह कार्य न हो सकेगा । इसलिए पाणिनि ने स्पष्टतया उसका निषेध कर दिया । यही यह सूत्र कह रहा है । पतञ्जलि आगे स्पष्ट कर देते हैं कि यदि स्थानी अल् स्वयं प्रत्यय, प्रातिपदिक आदि रूप में विशेषित हो, तो वह स्थानिवत् हो जाए । अर्थात् अल्-प्रत्यय के स्थान में आने वाला अल् भी प्रत्यय ही होगा, आदि, आदि ।

अब इस अतिदेश सूत्र से सम्बद्ध अगला सूत्र देख लेते हैं, जो कि किञ्चित् क्लिष्ट है – अचः  परस्मिन्  पूर्वविधौ, अनु०- स्थानिवदादेशः (१।१।५६) – अर्थात् जब स्थानी अच् के ऊपर कोई अल्विधि होती है, और उसके अनन्तर पिछले वर्ण से आदिष्ट अच् के पूर्व वर्ण पर यदि कोई विधि होने लगती है, तो आदिष्ट अल् स्थानिवत् हो जाता है ।

इसको प्रथमावृत्ति में दिए उदाहरण द्वारा समझते हैं । ’पटयति’ की निष्पत्ति में “पटुमाचष्टे” वाक्य से प्रारम्भ करने पर ’पटु अम् णिच्’ बना । अब “सनाद्यन्ता धातवः (३।१।३२)” से इसकी धातु संज्ञा होने पर, सुपो धातुप्रातिपदिकयोः (२।४।७१)” से अम् का लुक् हो गया – पटु इ । तब “णाविष्ठवत् प्रातिपदिकस्य (वा० ६।४।१५५)” से णिच् परे रहते, इष्ठन् के समान, “टेः (६।४।१५५)” से, अंग के टि का लोप हो जाएगा – पट् इ । अब पर णित् इ के कारण “अत उपधायाः (७।२।११६)” से पूर्व पट् के अकार को वृद्धि प्राप्त होने लगी, स्थानी उ के लोप हो जाने के कारण । जैसा हमने ऊपर देखा, वर्ण-लोप भी अल्विधि के अन्तर्गत है । सो, यहां प्रकृत् सूत्र से उकार लुप्त हो जाने पर भी स्थानिवत् वर्तमान मानकर पट् के अकार की वृद्धि नहीं हुई और, ’पाटयति’ नहीं, प्रत्युत इष्ट रूप ’पटयति’ ही बना । अगले पद ’अवधीत्’ की निष्पत्ति में भी, बीच के वर्ण के लोप होने के कारण, पर वर्ण के कारण पूर्व किसी वर्ण पर विधि पाते हैं । तृतीय उदाहरण ’बहुखट्वकः’ में जो स्वर-निर्देश में इस सूत्र की प्रसक्ति दिखाई है, मेरे अनुसार वह सही नहीं है, क्योंकि इसके अगले ही सूत्र में स्वर-कार्य में अच् के स्थानिवत् माने जाने का पुनः प्रतिषेध किया गया है । इससे कुछ यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृत् सूत्र की प्रसक्ति तब होती है, जब बीच का अच् लुप्त हो जाता है । तब, पर के कारण पूर्व पर कोई विधि होने लगती है, जो कि अनिष्ट है । इसके लिए लुप्त अच् को स्थानिवत् मानना आवश्यक हो जाता है । यह बुद्धि-सम्मत ही लगता है – जिस प्रकार “नेत्र उन्मीलयति” में, सन्धि द्वारा ’नेत्रे’ का ’नेत्र’ हो जाने पर, पुनः ’नेत्र’ के अकार की ’उन्मीलयति’ के उकार से सन्धि नहीं की जाती – उसी तरह एक स्थान पर एक प्रक्रिया लगाने पर, पुनः वहीं पर पहली प्रक्रिया के कारणदूसरी प्रक्रिया लगाना व्याकरण के नियमों के साथ खेलना होगा ।

अग्रिम  सूत्रों  का  विवरण

अब अगले दो सूत्र प्रकृत् सूत्र के अपवाद हैं और कुछ विशेष प्रकरणों में स्थानिवत्-कार्य का निषेध करते हैं । जैसे – “न पदान्तदिर्वचनवरेयलोपस्वरसवर्णानुस्वारदीर्घजश्चर्विधिषु, अनु०- अचः परस्मिन् पूर्वविधौ, स्थानिवदादेशः (१।१।५७)” में, पूर्वसूत्र की स्थिति उत्पन्न होने पर भी, पदान्त में, दिर्वचन होने पर, वरे प्रत्यय होने पर, यलोप, स्वर, सवर्ण, या अनुस्वार होने पर, दीर्घ, जश्त्व अथवा चर्त्व प्राप्त होने पर, आदिष्ट अच् स्थानिवत् नहीं होता । इससे अगला सूत्र इस सूत्र के ’द्विर्वचन’ का एक विशिष्ट स्थिति में अपवाद प्रस्तुत करता है – “द्विर्वचनेऽचि, अनु०- अचः परस्मिन् पूर्वविधौ,[1] स्थानिवदादेशः (१।१।५८)” अर्थात् १।१।५७ की द्विर्वचन-विधि में, यदि पर-निमित्त द्विर्वचन-प्रत्यय अजादि हो, तब भी आदिष्ट अच् स्थानिवत् हो जायेगा ।

पूर्णतया समझने के लिए, इन दोनों सूत्रों के एक-एक उदाहरण देख लेते हैं ।

पदान्तविधि में अस्थानिवत्त्व –

“कौ स्तः” वाक्य बनाने में, पहले अदादिगणस्थ ’अस् भुवि’ धातु का प्रथम पुरुष का द्विवचनीय रूप बनाना है । सो, अस् शप् तस् प्राप्त हुआ, जहां “अदिप्रभृतिभ्यः शपः, अनु०- लुक् (२।४।७२)” से शप् प्रत्यय का लुक् हो गया  – अस् तस् । लुक् होने के कारण, “न लुमताङ्गस्य (१।१।६२), अनु० – प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्” से प्रत्यय का लक्षण भी शेष नहीं रहा । तब तस् के सार्वधातुक और अपित् होने के कारण, वह “सार्वधातुकमपित्, अनु०- ङित् (१।२।४)” से ङित् हो गया । फिर “श्नसोरल्लोपः, अनु०- सार्वधातुके, क्ङिति (६।४।१११)” से अस् के अ का लोप हो गया – स् तस् । अन्त्य स् का विसर्जनीय होकर, स्तः  प्राप्त हो गया । यह अलोप अल्विधि है । ’कौ’ की सिद्धि की यहां आवश्यकता नहीं है । अब “कौ स्तः” में वैसे तो सन्धि नहीं प्राप्त है, तथापि यदि हम यहां अ को स्थानिवत् मानें तो ’काव्स्तः’ रूप बनने लगता है, जो कि अनिष्ट है । तब प्रकृत् सूत्र ने स्थानिवत्त्व का निषेध कर दिया क्योंकि ’कौ’ पद है और यह सन्धि पदान्त में हो रही है । 

मेरे अनुसार, सूत्रों की प्रवृत्ति वहीं होती है, जहां सारी निर्दिष्ट दशांए उपलब्ध हों, ऐसे नहीं कि कोई काल्पनिक दशा का सृजन करके उसपर सूत्र लगाने का प्रयास किया जाए । सो, जब “कौ स्तः” में पर के कारण पूर्व को सन्धि प्राप्त ही नहीं है, तो “अचः परस्मिन्० (१।१।५६)” की प्रवृत्ति हुई ही नहीं क्योंकि, इस सूत्र के लिए, जब मध्य के अच्, जिसपर कोई अल्विधि हुई हो, का पिछला अल् पूर्व अल् पर कोई कार्य करे, तब उसकी प्रवृत्ति होगी । अन्यथा अल्विधि होने के कारण “स्थानि० (१।१।५५)” से स्थानिवत्त्व वर्जित है ही । उपर्युक्त उदाहरण में लुप्त अ को बिना कारण ही स्थानिवत् मानकर सन्धि दिखाना, फिर इस सूत्र के कारण अ स्थानिवत् नहीं है ऐसा दर्शाना – यह गलत है – कारण और कार्य में संकर है । यह १।१।५५ का उदाहरण माना जा सकता है, जो १।१।५५ की आवश्यकता पर प्रकाश डाले । १।१।५७ के लिए यह उदाहरण उपयुक्त नहीं है, किसी अन्य उदाहरण को यहां लिया जाना चाहिए ।

अजादिद्विर्वचनविधि में स्थानिवत्त्व –

’आटिटत्’ ’अट गतौ’ के णिजन्त का लुङ् १।१ का रूप है – अट् णिच् तिप् । “अत उपधायाः, अनु०- ञ्णिति, वृद्धिः, अङ्गस्य (७।२।११६)” से अट् ने वृद्धि पाई, और “णिश्रिद्रुस्रुभ्यः कर्तरि चङ्, अनु०- च्लेः, लुङि, धातोः (३।१।४८)” से चङ् होगा – आटि चङ् तिप् । “णेरनिटि, अनु०- लोपः, आर्धधातुके, अङ्गस्य (६।४।५१)” से णिच् का लोप हो गया और लोप होने से प्रत्यय का लक्षण बना रहा – आट् चङ् तिप् । अब चङ् के परे रहते, आट् के द्वितीय एकाच् को द्वित्व प्राप्त हुआ – “चङि, अनु०- धातोरनभ्यासस्य, एकाचो द्वे प्रथमस्य, अजादेर्द्वितीयस्य (६।१।११)” से, परन्तु द्वितीय अच् तो है ही नहीं, क्योंकि णिच् के इकार का लोप हो गया था ! सो, यहां पर-चङ् से पूर्व-आट् पर कार्य होने से, और द्विर्वचन का प्रसंग होने से, प्रकृत् सूत्र की प्रवृत्ति हो जाती है और लुप्त इकार स्थानिवत् हो जाता है । तब ट् का इकार के साथ द्वित्व हो जाता है – आ टि ट् चङ् तिप् । अन्य सब कार्य करके आटिटत् रूप सिद्ध हो जाता है । यहां यह विलक्षणता है कि ६।४।५१ में अल्विधि नहीं थी, बल्कि प्रत्यय का लोप हुआ था । परन्तु, प्रकृत् सूत्र में ’अल्विधि’ की अनुवृत्ति नहीं है । सो, इस कार्य में कोई व्यवधान नहीं है । दूसरी बात यहां समझने की यह है कि चङ् का मुख्य प्रयोजन लुङ् के पूर्व अकार लाने का है, अर्थात् णिच् के अकार को भी निकालकर अकार लाना है । इसलिए इ का तो लोप कर दिया, परन्तु द्वित्व में हमें इकार रखना है, जिससे णिजन्त रूप भी स्पष्ट रहे । इसलिए इस सूत्र को बनाया गया है ।

जबकि ये सूत्र किञ्चित् कठिन हैं, विशेषकर १।१।५६, तथापि मेरे प्रकार से समझने से कुछ सरलता आ जाती है । यही नहीं, उदाहरणों में चूक भी पकड़ में आने लगती है । उपर्युक्त से हम देखते हैं, कि इस प्रकरण में दिए उदाहरण कई बार सही नहीं हैं । उनकी त्रुटि समझकर, हमें नए उदाहरणों का अन्वेषण करना चाहिए । मेरे प्रकार से समझने से पाणिनि के सूत्र बुद्धिसम्मत भी दिखने लगते हैं । इससे इनको याद रखने में कठिनता कम हो जाती है और केवल रटने का आश्रय नहीं लेना पड़ता ।