कुछ विशिष्ट संस्कृत शब्द

संस्कृत को दैवी-भाषा कहा जाता है । इस भाषा का कोई भी शब्द निरर्थक नहीं है, अपितु शब्दों के अर्थ उनके विभिन्न भागों से धागे में मोतियों की तरह जुड़े होते हैं । इस लेख में मैं आपको कुछ सरल, दैनिक प्रयोग के शब्दों के गूढ़ अर्थ, या उनके अन्य भाषाओं से अनोखे सम्बन्धों के विषय में बताती हूं । शब्दों की यौगिक व्युत्पत्तियों को दिखाकर, उनके अर्थों में चमत्कार को स्पष्ट करती हूं । संस्कृत-पण्डितों को तो ये सम्भवतः ज्ञात हों, परन्तु हिन्दी-भाषियों को तो ये अवश्य रुचिकर लगेंगे ।

प्रथमतया, यह जानना आवश्यक है कि शब्दार्थों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – यौगिक और लौकिक या रूढ़ी । यौगिक अर्थ वे होते हैं जो शब्द के मूल से उत्पन्न हों । सञ्ज्ञाओं के मूल ’प्रातिपदिक’ होते हैं, और क्रिया-पदों के मूल ’धातु’ होते हैं । शब्दों की व्युत्पत्ति में प्रवीण नैरुक्त प्रातिपदिकों को भी धातुओं से ही उत्पन्न मानते हैं । धातुओं के मुख्य अर्थ पाणिनि मुनि ने – हम सब पर महान उपकार करके – अपने धातु-पाठ में सङ्ग्रहीत किए । परन्तु धातुओं के इनसे भी अधिक अर्थ सम्भव हैं । इन अर्थों के योग से जो शब्दार्थ निकलते हैं, वे यौगिक कहलाते हैं । इसके विपरीत, जो शब्द एक अर्थ तक सीमित हों, या जिनका शब्द से कोई सीधा सम्बन्ध न दिखता हो, प्रयोग-मात्र से वह अर्थ ग्रहण होता हो, उसे लौकिक या रूढ़ी कहते हैं । उदाहरण के लिए, ऋग्वेद का पहला शब्द ’अग्नि’ । इसका ’आग’ अर्थ रूढ़ी है – एक अर्थ तक सीमित है । वेदों में, इस शब्द की एक व्युत्पत्ति ’अगि अग्रणे’ = आगे होने के अर्थ से है । सो, आग को इसलिए ’अग्नि’ कहते हैं क्योंकि वह सबसे पहले हवनकुण्ड में रखी जाती है, अन्य हवियों के डालने से पहले । इसका दूसरा अर्थ है ’राजा’, क्योंकि वह अपनी प्रजा में सबसे आगे होता है । इसका तीसरा अर्थ है ’परमात्मा’ क्योंकि सभी पदार्थों में वह प्रथम होता है, ब्रह्माण्ड में वह सबसे पहले चेतन होता है, आदि । और ’अग्नि’ शब्द को अन्य धातुओं से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है, जब इसके और अनेक अर्थ हो जायेंगे । ये सभी अर्थ व उनके प्रयोग यौगिक कहे जायेंगे ।

पहले कुछ सरल शब्द देखते हैं । ममता शब्द से हम प्रायः प्रेम का बोध करते हैं, वो भी अधिकतर मां का अपने शिशु के वात्सल्य से । वस्तुतः, यह शब्द ’मम + ता’ – दो भागों में है । पहला भाग ’अस्मद्’ मूल (जिससे ’अहम् = मैं’ बना है) का सम्बन्ध-कारक रूप है, जिसका अर्थ है – मेरा । ’ता’ जोड़ने से इसके अर्थ बन जाते हैं ’मेरापन’ । जिस भी पदार्थ को हम अपना समझते हैं, उससे हमें ’ममत्व’ या ’ममता’ है । इस प्रकार ’ममता’ सभी प्राणियों में है, केवल माताओं में नहीं ! और हमारी सबसे बड़ी ममता हमारे शरीर से है, जिससे हम अपने अस्तित्व का भेद ही नहीं कर पाते ! यही ममता योगदर्शन में दिए एक क्लेश ’अस्मिता’ (मैं-पन) में निहित है, और राग व द्वेष क्लेशों का कारण है; अपितु सभी क्लेशों के मूल, अविद्या, का यही मुख्य अंश है । गीता में योगी को ’निर्मम’ कहा गया है – 

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी… मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ भगवद्गीता १२।१३ ॥

अर्थात् परमात्मा को वही भक्त प्रिय है जो किसी भी जीव से द्वेष नहीं करता, अपितु मैत्री और करुणा भाव रखता है, और जो किसी भी व्यक्ति या वस्तु से अपनत्व का भाव नहीं रखता, आदि । इस प्रकार यहां ’निर्मम’ का अर्थ, ’ममता करने वाले’ का उल्टा है, और ’क्रूर’ न होकर यौगिक है – ’अपनेपन के भाव से रहित’ । ’क्रूर’ इसका रूढ़ी अर्थ है,जिसका शब्द से सीधा सम्बन्ध नहीं है ।

इसी प्रकार, ’पङ्कज’ का अर्थ हम यदि हिन्दी में करने निकलें, तो दूर नहीं जा पायेंगे, ’कमल’ पर रुक जायेंगे । परन्तु संस्कृत में पुनः हम इसे दो में विभाजित कर सकते हैं – पङ्क (कीचड़) + ज (जन्म लेने वाला) । क्योंकि कमल का फूल कीचड़ में अच्छा उगता है, इसलिए उसको पङ्कज कहा गया । अब यह जानकर, क्या हम अपने बेटे का नाम पङ्कज रखेगें ? बुरा न मानें, केवल हास्य में !

’शक्ति’ शब्द देखिये । आप इसको power के रूप में समझते हैं, मुख्यतः शारीरिक शक्ति के रूप में । वास्तव में, ’शक्’ धातु का अर्थ है ’सकना’ – किसी भी क्रिया को कर सकना । इसमें क्तिन् प्रत्यय लगकर जो शक्ति बना, उसका अर्थ बना ’कर सकने की क्षमता’ या ’क्षमता’ ही । इसलिए ’उसमें शक्ति है’, यह वाक्य संस्कृत में अधूरा माना जायेगा, क्योंकि उसका अर्थ केवल शारीरिक शक्ति नहीं समझा जायेगा; आपको बताना पड़ेगा ’बोलने की शक्ति’, ’समझने की शक्ति’, आदि । 

अब अंग्रेज़ी के थोड़े ऐसे शब्द देखते हैं, जो देखने में संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, लेकिन, वास्तव में, इस दैवी भाषा से ही निष्पन्न हैं । एक आधुनिक शब्द -juggernaut, जिसका अर्थ है कोई बड़ी भारी वस्तु जिसको रोकना कठिन है, जैसे हिटलर की सेना । क्या आप सोच सकते हैं यह किस शब्द का अपभ्रंश है ? यह शब्द निकला है ’जगन्नाथ’ से ! ब्रिटिश राज के समय, अंग्रेजों ने पुरी के जगन्नाथ की रथ-यात्रा को देखकर यह शब्द बनाया ।

’अग्नि’ शब्द को हमने ऊपर देखा । क्या आपको ज्ञात है कि ’ignite, igneous, ignition’ – ये सभी शब्द लैटिन की ’इग्नायर’ धातु से बने हैं, जो कि ’अग्नि’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है ’जलाना’ ।

एक और अनोखा सम्बन्ध – ‘mirage’, जिसको हिन्दी में ’मृगतृष्णा’ के नाम से जाना जाता है, वह संस्कृत के ’मरीचिः’ शब्द से निकला है ।

एक बहुत ही विचित्र सम्बन्ध ! संस्कृत का शब्द है ’अहोरात्रः’ जो कि ’अहन् = दिन’ और ’रात्रिः = रात’ के समास से बना है, जिसका अर्थ है २४ घण्टे का एक दिन । इसके नाम पर ज्योतिष-शास्त्र का एक भाग था । क्योंकि यह शब्द इतना बड़ा था, ज्योतिषियों ने इसके आगे का ’अ’ और पीछे का ’त्र’ काट के ’होरा’ कर दिया, और शास्त्र का नाम हो गया ’होराशास्त्र’ । यह शब्द ग्रीस देश पहुंचा तो इसका रूप बदलकर बना ’होरोस्’, जिसका अर्थ हुआ ’समय’ । इसी से ’horoscope = ज्योतिष से भविष्यानुमान’ शब्द निष्पन्न हुआ । और उससे भी अधिक परिचित शब्द, अंग्रेज़ी का hour = घण्टा शब्द निकला । है न अचम्भे की बात कि एक कृत्रिम शब्द भी भारत से विदेश पहुंच गया !

हिन्दी की ओर लौटते हुए, आपने ’दुविधा’ शब्द सुना होगा, जिसका अर्थ सभी जानते हैं – क्या करें, इस विषय में शंका होनी । यह निकला है संस्कृत के ’द्विविधा’से, जिसका अर्थ है ’दो प्रकार से होना’, जिसका प्रकारान्तर से वही अर्थ बन जाता है – जिस विषय में दो या उससे अधिक मार्ग उपलब्ध हों, वहां ’दुविधा’ हो जाती है ।

’पश्चात्तापः’ शब्द से हम अपने किए पर पछताना समझते हैं । संस्कृत में इसका रोचक अर्थ है – पश्चात् + तापः = बाद में जलना !

अब कुछ वैदिक अर्थ । ’बन्धुः’, अर्थात् रिश्तेदार, ’बन्ध बन्धने’ धातु से निकला है । सो अर्थ बनता है कि जो हमसे बन्धा हो – रक्त के बन्धन से – वह हमारा बन्धु है ।

’सखा’, अर्थात् मित्र, बना है ’ख्या प्रकथने’ धातु से, और इसकी निष्पत्ति इस प्रकार हुई है – समान ख्यानो यस्यास्ति सः सखा, अर्थात् जिसका वर्णन व्यक्ति से मिले वह उसका सखा । वह कैसे? लोक में हम देखते हैं कि हमारा मित्र वही बनता है जिससे हमारा कुछ मेल हो, जिसके कुछ गुण हमसे मिलते हों । सो, कोई अन्य जब हम दोनों का वर्णन करेगा तो एक-साथ कर सकता है – इन दोनों मित्रों को चलचित्र बहुत पसन्द है, या कविता-पाठ बहुत पसन्द है, या बकवास करना नापसन्द है । इसलिए ’स (समान) + खा (ख्यान)’ ।

दूसरी ओर, शब्द है ’शाखा’, अर्थात् पेड़ की टहनी । निरुक्त बताता है कि इस शब्द को समझने के लिए भी इसके दो भाग करने चाहिए – शा + खा । ’शा’ निकला है ’शीङ् स्वप्ने’ धातु से जिसका अर्थ है लेटना । और ’खा’ बना है ’खम्’ से जिसका अर्थ है आकाश । सो, जो आकाश में लेटी होती है, वह शाखा होती है !

एक अन्य सरल शब्द – ’जगत्’ अर्थात् संसार । इसके तीन भाग हैं । ’ज’ ’जनी प्रादुर्भावे’ से आया है – जिसका प्रादुर्भाव होता है, जन्म होता है । ’ग’ ’गम्लृ गतौ’ से निकला है, अर्थात् जिसमें गति हो, बदलाव हो, परिणाम हो । ’त्’ निकला ’तिरस्’ से, जिसका यहां अर्थ है तिरोहित होना, नष्ट होना, लीन होना । सो, ब्रह्माण्ड स्वयं इन तीन अवस्थाओं से पार होता है । और यही नहीं, उसके अन्दर की प्रत्येक वस्तु इन अवस्थाओं को प्राप्त होती हैं । कितना बड़ा अर्थ इस छोटे-से शब्द में निहित है !

परन्तु, अन्त में, एक इससे भी सुन्दर शब्द – ’आयुः’, अर्थात् जीवन का परिमाण । इसके दो भाग इस प्रकार हैं – ’आङ्’ से ’आ’ का अर्थ है ’किसी सीमा से’ या ’किसी सीमा तक’; ’यु मिश्रणामिश्रणे’ से ’यु’ का अर्थ है ’मिश्रण होना’ या ’मिश्रण दूर होना’ । इन अर्थों से आयु का अर्थ कैसे निकला, क्या आप ऊहा कर सकते हैं ? उत्तर देखने से पहले, एक बार मस्तिष्क के घोड़े अवश्य दौड़ाएं ! जीव का शरीर-रूपी प्रकृति से मिश्रण (जन्म) से लेकर, इन दोनों के अमिश्रण (मृत्यु) तक का जो काल होता है, वह आयु कहाता है ।

इस प्रकार, संस्कृत में यदि आप शब्दों को खोलने लगें, उनके तल तक जाने लगें, तो जैसे भारतीय, नहीं नहीं, सनातन चिन्तन के दर्शन होने लगते हैं ! और वेद का यह मन्त्र चरितार्थ होने लगता है – 

    उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् ।

    उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥ ऋग्० १०।७१।४ ॥

तात्पर्य – जो व्यक्ति भाषा-ज्ञान से शून्य है, वह लिखे शब्द को देखते हुए भी नहीं समझता, और बोले हुए शब्द को सुनते हुए भी नहीं सुनता । परन्तु, जो इस विज्ञान से पूर्ण है, उसके लिए यह भाषा उसी प्रकार अपने रहस्य खोल देती है, जैसे कि गृहस्थ धर्म की कामना करती हुई, सुन्दर वस्त्रों से भूषित स्त्री अपने पति के लिए प्रकट करती है ।

इस भव्यता का जानकर, दैवी भाषा संस्कृत को अवश्य पढ़े । उसकी कठिनता से न डरें ! और कालीदास, बाण, आदि, के बड़े-बड़े शब्दों में न फंसकर, छोटे-छोटे शब्दों के अर्थ वैदिक प्रक्रिया से जानने का प्रयास करें । वहां जो काव्य आपको मिलेगा, उसके सामने भवभूति कुछ भी नहीं रहेगा !