स्त्रीप्रत्यय और तद्धित

पाणिनि की अष्टाध्यायी के बाद, कात्यायन के वार्तिक और पतञ्जलि के महाभाष्य को संस्कृत व्याकारण के प्रमुख प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है । इन दो ग्रन्थों में पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या ही नहीं अपितु उनकी कुछ कमियों को भी पूरा किया गया है । इस प्रकार कहीं-कहीं इनमें पाणिनि सूत्रों के अपवाद भी प्राप्त होते हैं । यह भारतीय परम्परा के अनुसार ही है, जिसका स्वामी दयानन्द ने भी अनुमोदन किया कि – मनुष्य की कृति पूर्णता के समीप हो सकती है, परन्तु सौ प्रतिशत सम्पूर्णता तो, परमात्मा की कृति को छोड़, कहीं नहीं प्राप्त होती । इसी सन्दर्भ में, मैं स्त्री-प्रत्यय-प्रकरण में वार्तिक व महाभाष्य की एक कमी को उजागर कर पाणिनि के सूत्र का वास्तविक अभिप्राय रख रही हूं । आशा है विद्वद्जन, इसको धृष्टता मानने से पहले, मेरे अभिप्राय पर अवश्य विचार करेंगे ।

चतुर्थ अध्याय के प्रथम पाद का प्रथम सूत्र है – ङ्याप्प्रातिपदिकात् ॥४।१।१॥ – जिसका अर्थ है – इस सूत्र के अधिकार में कहे प्रत्यय ङी, आप् व प्रातिपदिकों से लगेंगे । यहां ङी से ङीप्, ङीष् व ङीन् का ग्रहण किया जाता है, और आप् से टाप्, चाप् व डाप् का (जो कि मुख्य स्त्री प्रत्यय हैं), क्योंकि ङी ङीप्, ङीष् व ङीन् में समान है, और इसी प्रकार आप् टाप्, चाप् व डाप् में । यह पाणिनि के प्रसिद्ध संक्षेपीकरण का उदाहरण है ।

अब प्रश्न उठता है कि ङ्यन्त और आबन्त स्त्री-शब्दों को प्रातिपदिक क्यों नहीं माना गया है ? इस विषय पर महाभाष्य पर लम्बा विवेचन किया गया है । प्रमुख भाग मैं यहां देती हूं । 

  • पहले तो यह बताया गया कि स्त्री-प्रत्ययों से अन्त होने वाले शब्द प्रातिपदिक नहीं कहलाते क्योंकि “अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् (१।२।४५)” से जो अर्थपूर्ण शब्द धातु न हों और बिना प्रत्यय के हों, उन्हें प्रातिपदिक कहा जाता है । परन्तु “कृत्तद्धितसमासाश्च (१।२।४६)” से केवल कुछ विहित प्रत्यय बताए गए हैं जिनके लगने पर भी तदन्त शब्द प्रातिपदिक कहाते हैं । ये हैं – कृदन्त, तद्धित और समस्त पद । स्पष्टतः यहां स्त्रीप्रत्यय नहीं गिनाए गए हैं । इसलिए स्त्रीप्रत्ययान्तों को प्रातिपदिक मानना आचार्य पाणिनि को इष्ट नहीं प्रतीत होता ।
  • तो फिर प्रश्न उठता है कि “यूनस्तिः (४।१।७७)” से स्त्री-प्रत्यय ’ति’ और “ऊङुतः (४।१।६६)” से स्त्री-प्रत्यय ’ऊङ्’ भी ४।१।१ में गिनाए जाने चाहिए थे, क्योंकि वे ङ्याप् में नहीं आते ।
    पहले का तो सरल उत्तर है – “तद्धिताः (४।१७६)” के अधिकार में पढ़े जाने से ’ति’ तद्धित है, फिर १।२।४६ से प्रातिपदिक है ।
    ऊङ् के विषय में पतञ्जलि कहते हैं कि ऊङ् का पूर्व प्रातिपदिक के अन्त से एकादेश हो जाता है । फिर अन्तादिवद्भाव से सम्पूर्ण की प्रातिपदिक सञ्ज्ञा हो जाती है । इससे प्रश्न उठता है कि तब तो ङ्याबन्त की भी इसी प्रकार प्रातिपदिक सञ्ज्ञा हो जानी चाहिए । इसके उत्तर में ङ्याप की सार्थकता अन्य सूत्रों में प्रकट करने का प्रयास होता है, जो भी खरा नहीं उतरता ।
  • इसलिए वार्तिक कहती है कि ४।१।१ में ङ्याप का ग्रहण निरर्थक है, क्योंकि प्रातिपदिकों में लिङ्ग निहित होता है । इसकी सत्यता में कई कठिन प्रमाण दिए गए हैं । मैं यहां कुछ सरल प्रमाण देती हूं –
  • “ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य (१।२।४७)” – यहां स्पष्टतः कहा गया है कि जब प्रातिपदिक नपुंसक हो तो ह्रस्व हो जाए ।
  • उससे अगला ही सूत्र “गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य (१।२।४८)” में उपसर्जन गो और स्त्री-प्रत्ययान्त प्रातिपदिक को भी ह्रस्व होना कहा गया है ।

इससे तो प्रमाणित हो गया कि स्त्री-प्रत्ययान्त भी प्रातिपदिक-सञ्ज्ञक हैं ।

यह तो विप्रतिषेध उत्पन्न हो गया ! 

इस विप्रतिषेध को हटाने के लिए पुनरवलोकन आवश्यक है – यह मानते हुए कि ङ्याप् अनर्थक नहीं हो सकते, क्योंकि पाणिनि को न तो शास्त्र में गौरव सहनीय था, न ही उनकी बुद्धि इतनी कम थी कि वे सभी स्त्री-प्रत्ययों को प्रातिपदिक परिभाषित न कर सकें । “कृत्तद्धितसमासाश्च (१।२।४६)” सूत्र को ही वे “कृत्स्त्रीतद्धितसमासाश्च”  करके बना सकते थे । तब सारा झगड़ा ही निपट जाता !

सो, इस गुत्थी को सुलझाने के लिए हमें एक ज्ञापक मिलता है । स्त्रीप्रत्ययों के प्रकरण में दो प्रत्यय तद्धित गिने गए हैं – ति(४।१।७७) व ष्यङ् (४।१।७८-८१) । यहां तद्धित गिने जाने का प्रयोजन, जैसा कि ऊपर बिन्दु २ में दिया गया, शब्द को प्रातिपदिक बनाना माना गया है । परन्तु जैसे हमने ऊपर देखा, वार्तिक ने सभी स्त्री-प्रत्ययान्तों को प्रातिपदिक ही घोषित किया है । 

आगे विश्लेषण करते हुए, हम पाते हैं कि इनमें से ष्यङ् लगता तो स्त्रीशब्दों में है, परन्तु तदन्त शब्द स्त्री नहीं होता । उसको स्त्री शब्द बनाने के लिए उसके आगे चाप् जोड़ना पड़ता है (४।१।७४) । यथा – करीषगन्धिः तस्यापत्यं स्त्री करीषगन्धि + ष्यङ् + चाप् = कारीषगन्ध् + य + आ = कारीषगन्ध्या । इसलिए इसको शुद्ध स्त्री-प्रत्ययों में नहीं गिना जाता । बचा ’ति’ । सो, ति ’युवन्’ शब्द से जुड़कर, उससे ’युवति’ शब्द निष्पन्न करता है । तो ’ति’ को तद्धित क्यों कहा गया ? सो, यहां एक छुपी बात है – ’युवति’ में पुनः ’इतो मनुष्यजातेः (४।१।६५)” से ङीष् लगता है, जिससे ’युवती’ शब्द’ भी बनता है । 

इन दो उदाहरणों में हम देखते हैं कि “स्त्रियाम् (४।१।३)” के अधिकार में पढ़े हुए प्रत्ययों में ये ही दो प्रत्यय हैं जो तद्धित हैं और जिनसे पुनः स्त्री-प्रत्यय लगते हैं; अन्य सभी में पुंल्लिङ्ग प्रातिपदिक से ही स्त्री-प्रत्यय लगता है ।

मेरे अनुसार यह स्पष्ट ज्ञापक है कि “ङ्याप्प्रातिपदिकात् ॥४।१।१॥” सूत्र में ङ्याप् को अलग इसलिए रखा गया है कि पुनः स्त्री प्रत्ययों से स्त्री-प्रत्यय न लगाए जाएं; जहां लगाने पड़े, वहां शब्दों को तद्धित बना दिया गया । इसी प्रकार का अभिप्राय हम “एको गोत्रे (४।१।९३)” सूत्र में भी पाते हैं, जहां गोत्र-प्रत्ययों के प्रकरण में पाणिनि पूर्व ही सूचित कर देते हैं कि गोत्र-विषय में एक ही प्रत्यय लगेगा । 

इसका अर्थ यह हुआ कि “ङ्याप्प्रातिपदिकात्” का अर्थ है “ङ्यन्त, आबन्त और ङ्याबन्त को छोड़कर अन्य सब प्रातिपदिक”। फिर “स्त्रियाम् (४।१।३)” के अधिकार में इन ङ्याबन्त-रहित प्रातिपदिकों से ही स्त्री-प्रत्यय होंगे । 

इस व्याख्या से “ऊङुतः (४।१।६६)” की समस्या बनी रहती है – ऊङ् पर पुनः स्त्री-प्रत्यय क्यों न लग जाए ? तो, इसमें पहले तो ’ऊ’ अन्त वाले शब्दों से कोई स्त्री-प्रत्यय नहीं कहा गया है; कुछ पुंल्लिङ्ग शब्द जो ऊदन्त हैं, वे सूत्रों में अलग-अलग पढ़ दिए गए हैं, जैसे “भुवश्च (४।१।४७)”। इसलिए ऊङ् के उपरान्त पुनः स्त्री-प्रत्यय लगने का प्रश्न ही नहीं उठता । तथापि, ङ्याप् के ङी में, ङन्त होने से, ऊङ् को भी ङी के अन्तर्गत ही गिना जाना चाहिए । इससे कोई शक की गुंजाइश नहीं रहेगी ।

अब यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि स्त्री-प्रत्ययान्तों से पुनः स्त्री-प्रत्यय लग ही नहीं सकते, इसका ज्ञापक है “अजाद्यतष्टाप् (४।१।४)”, जहां ’अजा’ आदि शब्द टाप् लगे हुए ही पढ़े गए हैं । उनमें पुनः टाप् नहीं लगता । सो, हम ऊपर दिखा ही आए हैं कि ष्यङ् और ति प्रत्ययों में वे लगते हैं । सो, स्त्री-शब्दों में भी पुनः स्त्री-प्रत्यय जुड़ने की सम्भावना बनी रहती है । इसके निवारण के लिए ४।१।१ में ’ङ्याप्’ को पाणिनि ने ’प्रातिपदिक’ से अलग रखा । इसी के कारण ’अजा’ आदि में पुनः टाप् नहीं लगा ।

इस प्रकार समझने से “ङ्याप्प्रातिपदिकात् ॥४।१।१॥” की गुत्थी सुलझ जाती है, और यह आक्षेप भी हट जाता है कि पाणिनि ने सूत्रों में निरर्थक गौरवता उत्पन्न की ।