स्वरों पर प्रकाश

आजकल वेदमन्त्रों पर लगे स्वरचिह्न बहुत चर्चा में हैं । इन चर्चाओं में मैंने पाया है कि कुछ तथ्य जाने तो जाते हैं, परन्तु उनके पीछे का तर्क स्पष्ट नहीं हो पाता, जिसके कारण हमें तथ्य रट लेने पड़ते हैं । यदि हम नियमों के कारणों को जान लें, तो उन नियमों में हम फिर कभी गलती न करें । कुछ ऐसे कारण और कुछ अन्य संशयात्मक स्थलों का समाधान मैं इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं ।

पहले तो हमें यह जानना चाहिए कि ‘स्वर’ शब्द के कई अर्थ होते हैं । इनमें से कुछ इस प्रकार हैं –

  • अच्वर्णमाला में जो स्वर (vowels) होते हैं – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ । इनसे अन्य सभी वर्ण हल् या व्यञ्जन (consonants) कहाते हैं । स्वर ऐसा क्यों कहाते हैं, इसका निर्वचन पतञ्जलि ने महाभाष्य में दिया है – स्वयं राजन्त इति स्वराः (महाभाष्य १।२।२९) – अर्थात् “जिनके उच्चारण में दूसरे वर्णों के सहाय की अपेक्षा न हो (स्वामी दयानन्द सरस्वतीकृत वर्णोच्चारणशिक्षा)” । इस वाक्य को पूर्णतया समझने के लिए, स्वरों के विपरीत, व्यञ्जनों की परिभाषा को भी समझना पड़ेगा – अन्वग्भवति व्यञ्जनमिति (महाभाष्य १।२।२९) – अर्थात् “जिनका उच्चारण बिना स्वर के नहीं हो सकता, वे व्यञ्जन कहाते हैं (स्वामी दयानन्द सरस्वतीकृत वर्णोच्चारणशिक्षा)” । सो, यदि आप ‘क्’ बोलना चाहें, तो आप पाएंगे कि उसको बोलना सम्भव नहीं है; परन्तु यदि हम उसके आगे या पीछे या कुछ व्यञ्जनों के व्यवधान से, पूर्व या पश्चात्, एक स्वर लगा दें, तो झट से उनको बोल पाएंगे, जैसे – इक्, कि, क्यों, उदञ्च् । इसके विपरीत स्वरों को आप अकेले ही बोल सकते हैं – आओ ।
    यहां तक तो सब समझते हैं, अब विशेष बात समझते हैं । स्वरों की इस स्वतन्त्रता का अर्थ यह हुआ कि आप इनको जितना चाहें उतना खींच कर बोल सकते हैं, उनका स्वरूप नहीं बदलेगा, जैसे – आऽऽऽऽऽऽ, इऽऽऽऽऽऽ । व्याकरण की दृष्टि से इस खिचांव को मात्रा कहते हैं, और बोलने जाने वाली भाषा में तीन मात्राएं वेदों से प्राप्त होती हैं – ह्रस्व (एकमात्रिक), दीर्घ (ह्रस्व की दुगुनी, द्विमात्रिक) और प्लुत (त्रिमात्रिक) । गान आदि में तो स्वरों को जितना भी खींच लिया जाए, उसपर कोई बन्धन नहीं है । अब प्रश्न उठ सकता है कि व्यञ्जनों में भी तो यह कर सकते हैं ,जैसे – येऽऽऽऽऽ । तो यहां जब आप उच्चारण करेंगे तो पाएंगे कि ‘य्’ तो आरम्भ में क्षणभर के लिए उच्चरित होकर समाप्त हो जाता है, जो खिंचता है, वह एकार ही है । इस तथ्य के दो अपवाद जैसे प्रतीत होते हैं – एक है मकार, जैसे कि ओम्ऽऽऽऽऽ में हम म् को लम्बा खींच सकते हैं, और वह म् ही रहता है । यहां यह जानना चाहिए कि खिंचने वाला म् वर्ण नहीं है, परन्तु अस्पष्ट ध्वनि है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘hum’ कहते हैं । दूसरी प्रतीति होती है स् में जहां हम हंस्ऽऽऽऽऽ जैसे बोल सकते है । यहां भी सकार अस्पष्ट ध्वनि संज्ञक है, जिसे अंग्रेज़ी में ‘hiss’ कहते हैं । इस प्रकार, पतञ्जलि की उपर्युक्त परिभाषाएं पूर्णतया सम्यक् हैं ।
    इस चर्चा का एक और तथ्य ध्यान में रखने योग्य है – व्यञ्जन केवल क्षणभर के लिए उच्चरित होता है । इस तथ्य का प्रभाव हम आगे दिखाएंगे ।
  • उदात्त, अनुदात्तये वस्तुतः स्वरों के गुण होते हैं, तथापि लोक में जैसे हम “उच्च स्वर में बोलो” कहते हैं, उसी प्रकार उदात्त अनुदात्त को भी कई बार स्वर कह दिया जाता है । यहां उदात्त वर्ण को उच्च स्वर में बोला जाता है – उच्चैरुदात्त: (अष्टाध्यायी १।२।२९), और अनुदात्त वर्ण को नीचे स्वर में – नीचैरनुदात्तः (१।२।३०) । इसके साथ ही साथ, एक अन्य मिश्रित स्वर होता है, जिसकी पहली आधी मात्रा उदात्त होती है और शेष अनुदात्त (तस्यादित उदात्तमर्धह्रस्वम् (१।२।३२) । इसको स्वरित कहा जाता है – समाहारः स्वरितः (१।२।३१) । अब आजकल बड़े यत्न से अध्यापक समझाते हैं कि ये गुण स्वरों के ही होते हैं, व्यञ्जनों के नहीं, जैसे यह कोई चमत्कारी बात हो । परन्तु यदि आपने पहला बिन्दु हृदयंगम कर लिया है, तो आपको तुरन्त स्पष्ट हो जाएगा कि व्यञ्जन का उच्चारण तो इतना लघु होता है कि उसमें ऊंचे वा नीचे स्वर का स्थान ही नहीं है ! स्वर-वर्ण में ही हम ये गुण पा सकते हैं । स्वयं शब्दों का उच्चारण करके देखें कि क्या आप व्यञ्जन को ऊंचा या नीचा बोल सकते हैं । यदि आपको ‘क’ के उच्चारण में यह स्पष्ट नहीं हो रहा, तो ‘अक्’ के उच्चारण में तो अवश्य स्पष्ट हो जाएगा ! इसलिए इस अंश में कोई भी विचित्रता नहीं है – यह केवल स्पष्ट बात को शब्दों में कह रहा है ।
  • षड्ज,ऋषभ, आदि  वैदिकमन्त्रों के ऊपर लिखा पाया जाता है – षड्जः स्वरः, निषादः स्वरः, इत्यादि । ये ही लोक में ‘स रे ग म प ध नि’ की सरगम के रूप में जाने जाते हैं । ऊंचे या नीचे पदों का प्रयोग न करके, यहां स्वर का स्तर परिभाषित है । ये ‘ऊंचे’ और ‘नीचे’ पद भी दो प्रकार से प्रयुक्त होते हैं – ध्वनि का जोर से अथवा हल्के से बोलना, अथवा ‘प ध नि’ या ‘स रे ग’ होना । अब कौन-सा अर्थ कहां लिया जाए ? इस विषय में मैंने कोई स्पष्ट मत नहीं पाया । इसी प्रकार मन्त्रों के ऊपर लिखे स्वर का क्या अर्थ है, यह भी स्पष्ट नहीं होता । फिर मैंने विचार किया कि यदि षड्ज आदि सरगम है, तो उदात्त व अनुदात्त से जोर से और मन्द बोलने का अर्थ होगा । मेरे अनुसार, वैदिक मन्त्र पर लिखा स्वर वह एक स्वर होता है जिसमें सम्पूर्ण मन्त्र को उच्चारित करना होता है । उस स्वर को जोर से बोलने से वह उदात्त हो जाता है, और धीमे बोलने से अनुदात्त । अब सम्भव है कि एक स्वर में इतने लम्बे मन्त्र का उच्चारण करना कठिन हो, परन्तु पाणिनि ने स्वयं ‘एकश्रुति’ पद द्वारा एक स्वर से उच्चारण करने का निर्देश दिया है, और उसे यज्ञकर्म में मन्त्र-पठन में प्रयोग करना बताया है (यज्ञकर्मण्यजपन्यूङ्खनामसु (१।२।३४) । प्रातिशाख्य ग्रन्थों में इसे प्रचय भी कहा जाता है । प्रत्युत वेद के सामान्य उच्चारण के लिए भी एकश्रुति का विधान है – विभाषा छन्दसि ( १।२।३६) । यह स्वर क्या हो, सो पाणिनि कहते हैं – एकश्रुति दूरात् सम्बुद्धौ (१।२।३३) – अर्थात् दूर से पुकारने के लिए एकश्रुति का प्रयोग होता है । अब दूर से बुलाने में तो हम आवाज ऊंची ही करते हैं, सो यहां उदात्त अथवा उदात्ततर यहां समझना सही होगा । तो क्या यह सम्भव है कि यज्ञकर्म में मन्त्र पर निर्दिष्ट स्वर में जोर से बोलकर, एकश्रुति में, मन्त्र पढ़ा जाना चाहिए? क्योंकि आजतक यह विषय इस प्रकार समझा नहीं गया है, इसलिए इस के प्रयोग के विषय में कहना कठिन है । मैं स्वयं संगीतज्ञ भी नहीं हूं । परन्तु अवश्य ही इस विषय पर विचार की आवश्यकता है, विशेषकर वैदिक मन्त्रों पर लिखे स्वर का क्या अर्थ है, यह जानना अत्यावश्यक है ।

संयोगः स्वर व व्यञ्जन को सम्यक् समझ लेने पर अष्टाध्यायी में संयोग भी भली प्रकार समझ लेना चाहिए । इसका परिभाषा सूत्र है – हलोऽनन्तराः संयोगः ॥१।१।७॥ – अर्थात् जब बिना अन्तर के, एक के बाद एक, व्यञ्जन प्राप्त होते हैं, तो उस समूह को संयोग कहते हैं, जैसे – ‘प्रयास’ में ‘प्र्’ संयोग संज्ञक है । अब यहां स्वरों का निषेध क्यों हुआ? वह इसलिए कि स्वर जब मिलते हैं तो अधिकतर वे एक के बाद एक नहीं पढ़े जा सकते – वे एक नए स्वर को जन्म देते हैं, जैसे कि ‘महेश’ में आ और ई मिलकर ए बन जाते हैं । ‘नमउक्तिं’ आदि संस्कृत में कुछ गिने-चुने ही अपवाद हैं । व्यञ्जनों में ऐसा मेल सम्भव नहीं है । हां, उनमें थोड़ा विकार आ सकता है (जैसे – क् का ग् हो जाना), परन्तु वे अपना अस्तित्व नहीं छोड़ सकते । इसलिए वे एक के बाद एक जुड़ जाते हैं, जैसे – इन्द्र = इ न् द् र् अ । यहाः ‘न् द् र्’ संयोग-संज्ञक हैं ।

लघु-गुरु मात्रा व संयुक्त अक्षरों का उच्चारण – छन्द में विशेषकर हमें लघु-गुरु अक्षरों का ध्यान रखना होता है । ह्रस्व स्वर को ‘लघु’ कहा जाता है (ह्रस्वं लघु ॥१।४।१०॥), परन्तु यदि उस ह्रस्व स्वर के पश्चात् संयुक्ताक्षर अथवा अकेला व्यञ्जन होता है, तो वह गुरु हो जाता है (संयोगे गुरु ॥१।४।११॥) । गुरु द्विमात्रिक होता है, जैसा कि दीर्घ अक्षर होता है (दीर्घं च ॥१।४।१२॥) । अब जब छन्द पढ़ाया जाता है, तो मेरे अनुभव में वर्णों को इस प्रकार बांटा जाता है –

यदि वाक्य है – उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः, तो मात्राओं का विभाजन इस प्रकार दर्शाया जाता है – उ क्ता व स न्त ति ल का त भ जा ज गौ गः, जो क्रमशः हुए (गुरु के लिए ‘गु’, लघु के लिए ‘ल’) – गु गु ल गु ल ल ल गु ल ल गु ल गु गु । इस प्रकार के अक्षर विभाजन में शिक्षक को बार-बार छात्र को बताना पड़ता है कि ‘उ’ इसलिए गुरु है कि उसके आगे संयोग है, अथवा अकेला व्यञ्जन है, जैसे कि ‘अम्’ में ; फिर यह बताना पड़ता है कि ‘इ न्द्र’ जैसे शब्द में ‘र’ लघु ही है, क्योंकि ऐसा लगता है कि एक नकार इ के साथ जाना चाहिए और दूसरा व्यञ्जन द् र के साथ, जिससे दोनों ही गुरु हो जाएं ! इस उलझन को दूर करने के लिए सदैव अक्षरों को इस प्रकार अलग करना चाहिए जिस प्रकार उनका गुरुत्व वा लघुत्व स्पष्ट हो, जैसे – उक् ता व सन् ता ति ल का त भ जा ज गौ गः, अथवा इन्द् र । यह लिखने का प्रकार कृत्रिम नहीं है, अपितु व्यञ्जनों का उच्चारण इसी प्रकार होता है, जैसा कि १।४।११ में निहित है । यह नियम बिल्कुल बोलने की व्यवस्था का अनुसरण करता है । इससे यह हुआ कि हलन्त अक्षरों को बोलते समय हमें उनको पूर्व स्वर के साथ जोड़ना चाहिए; पश्चात् स्वर के साथ व्यञ्जन बहुत कम शब्दों में जुड़ते हैं, जैसे कि ‘स्वर’ शब्द में, परन्तु यहां पर भी ‘स्व’ लघु ही माना जाएगा, गुरु नहीं । इसमें कारण यह है कि उसको बोलने में एक मात्रा ही लगती है, दो नहीं, जैसा कि ‘अस् ति’ के ‘अस्’ बोलने में दो मात्राएं हो जाती हैं, क्योंकि अ के अनन्तर हमें स् को बोलने में समय लगता है, परन्तु संयुक्त व्यञ्जन एक ही मात्रा का समय लेते हैं । इस प्रकार यह मात्राओं का गिनना पाणिनीय सूत्र के अनुसार है और बहुत ही वैज्ञानिक है । यदि उपर्युक्त प्रकार से हम शब्दों को पढ़ेंगे, तो संयुक्त अक्षरों को पढ़ने में कभी न लड़खड़ाएंगे और मात्रा गिनने में भी कभी गलती न करेंगे ।

स्वरित पर विचार – स्वरित के विषय में एक चिन्तन शेष है – स्वरित बनाया क्यों जाता है? जब उसमें भी उदात्त और अनुदात्त स्वर ही हैं, तो उच्चारण में यह कठिनता लाने का क्या प्रयोजन है? और यह भी कि उदात्त के परे अनुदात्त का स्वरित होता है, तो उदात्त के परे रहते पूर्व अनुदात्त का स्वरित क्यों नहीं होता? वैसे ये गायन से सम्बद्ध विषय हैं, इसलिए मेरी पहुंच यहां कम है, तथापि मुझे प्रतीत होता है कि उच्च स्वर के पश्चात् नीचे स्वर में बोलने में श्रवणमाधुर्य का ह्रास होता है, इसलिए निचले स्वर वाले की पूर्व अर्ध मात्रा भी उच्च स्वर में बोलकर, उसे निचले स्वर से अगली अर्ध (या अधिक) मात्रा से जोड़ दिया जाता है । एक ही अक्षर में यह ऊंच-नीच अटपटी नीं लगती, सम्भवतः यह यहां कारण है । जिनको इस तर्क में संशय हो, उनको यह भी विचार करना चाहिए कि सरगम के जो स्वर हैं उन्हें किस प्रकार चुना गया? किन्हीं दो स्वरों के बीच में अनन्त अन्य स्वर होते हैं, जिन्हें वाणी से बोला भी जा सकता है । फिर ये ही स्वर कैसे चुने गए? पश्चिम में इस विषय पर अन्वेषण करने से ज्ञात हुआ कि इन स्वरों और इनसे बनी रचनाओं में कहीं अधिक मधुरता होती है । ऐसे ही अन्वेषण की यहां आवश्यकता है ।

दूसरे प्रश्न के उत्तर में, नीचे से ऊपर ले जाने के लिए भी पाणिनि ने एक बीच का स्वर नियमित किया है – उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः (१।२।४०) – अर्थात् जिस अनुदात्त के परे उदात्त अथवा स्वरित हो (जो वास्तव में पूर्व अर्धमात्रा से उदात्त ही होता है !), तो अनुदात्त उदात्त के निकट स्वर वाला हो जाए, अर्थात् उदात्त और अनुदात्त के बीच का स्वर हो जाए । यहां वैयाकरण ‘सन्नतरः’ से ‘अनुदात्ततर’ का ग्रहण करते हैं, जिसका व्याकरणविधि से ‘अनुदात्त से अधिक अनुदात्त’ होना चाहिए । इससे पश्चात् आने वाले उदात्त के उच्चारण में  और कष्ट होगा और श्रवणमाधुर्य भी कम हो जाएगा । इसलिए यह अर्थ मुझे सही नहीं लगता । सूत्रानुसार भी ‘सन्नतरः’ से ‘उदात्त के निकटतर’ लेना अधिक उपयुक्त है, ऐसी मेरी मति है । प्रातिशाख्य ग्रन्थों में इसे निघात नाम से पुकारा जाता है ।

विषय को पूर्ण करने के लिए एक और स्वर को भी देख लेते हैं जो कि पाणिनि ने बताया है – उच्चैस्तरां वा वषट्कारः (१।२।३५) – अर्थात् यज्ञकर्म में वौषट् शब्द का उच्चारण उदात्ततर हो, अर्थात् उदात्त से भी कुछ ऊंचा हो । यह स्वर केवल इसी स्थिति में प्रयोग में आता है ।

स्वर-विषय को भी वैज्ञानिक दृष्टि से देखना अत्यावश्यक है । जिस प्रकार सन्धि उच्चारण को सरल करने के लिए होती है, उसी प्रकार स्वर-परिणाम भी उच्चारण को सरल व मधुर करने के लिए होता है । उससे अर्थ भी शीघ्र ग्रहण होता है, जिनमें से मुख्य नियम है – उदात्त स्वर से पद या पदांश के महत्त्व का ज्ञान होना । अनेक इन कारणों से, स्वर-विज्ञान को हृदयंगम करना वेदों को समझने के लिए अनिवार्य है ।