कठोपनिषद् की कथा

वैसे तो कठोपनिषद् और उसकी कथा सुप्रसिद्ध है, तथापि उसके कुछ तथ्य बहु-चर्चित नहीं हैं । इस लेख में मैं उनको भी उभार रही हूं और उपनिषद् का सारांश भी दे रही हूं ।

कठोपनिषद् कृष्णयजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत है । इसलिए पदे-पदे इसमें यजुर्वेद के मन्त्रों की जैसे व्याख्या मिलती है । तथापि अन्य तीन वेदों के मन्त्र भी इसमें पाए जाते हैं । उन सब को रुचिकर बनाती है यम और नचिकेता की कथा ! संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार है –

एक बार, नचिकेता के पिता उद्दालक ने विश्वजित् यज्ञ किया जिसमें अपना सब-कुछ दान दे दिया जाता है । आखिर में पिता बूढ़ी गाएं भी देने लगे जिनसे किसी का कुछ भी भला नहीं होने वाला था । नचिकेता को दुःख हुआ कि ऐसा करके उसके पिता पाप कर रहे हैं । बिना इस दोष को कहे, परन्तु उनको चिताने के लिए, उसने उनसे पूछा कि आप मुझे किसको दे रहे हैं (क्योंकि अन्ततः मैं भी आपकी सम्पत्ति हूं) । पिता कुछ न बोले, तो नचिकेता ने दोबारा पूछा । तीसरी बार जब उसने पुनः पूछा, तो पिता ने झल्ला कर कहा, “मैं तुझे मृत्यु को देता हूं !”

वचन मुख से निकलते ही उन्हें पश्चात्ताप हुआ, परन्तु नचिकेता अपने पिता के वचन को झुठलाना नहीं चाहता था । उस काल में मुख से निकले वचन का इतना महत्त्व हुआ करता था ! उसने अपने पिता को समझाया, “आप पिछले समय को याद करें और आगे के समय का अनुमान लगाएं तो पाएंगे कि फसल के समान, मनुष्य भी पकता है और पुनः उत्पन्न होता है । इसलिए मेरी मृत्यु पर शोक न करें ।”

किसी तरह नचिकेता यम के प्रासाद पर पहुंच जाता है, परन्तु यम उस समय प्रवास कर रहे थे । कुमार नचिकेता ने तीन दिन भवन में न तो प्रवेश किया और न ही अन्न-पान ग्रहण किया । यम के लौटने पर उनकी पत्नी बोलीं, “जिसके घर पर ब्राह्मण बिना खाए-पिए रुकता है, उसके सभी सुख और धन-वैभव नष्ट हो जाते हैं, यहां तक कि उसके किए हुए पुण्य भी निरर्थक हो जाते हैं । ऐसा करने वाला मन्दबुद्धि ही होगा ! इसलिए आप कृपया करके ये अर्घ्य, पाद्य, आदि, ले जाइए और अतिथि के कोप को शान्त करिए ।” इस प्रकार अतिथि-सत्कार की प्रथा की झलक हम यहां पाते हैं ।

नचिकेता को प्रसन्न करने के लिए, यम ने प्रत्येक रात्रि जिसके लिए वह रुका, उसके लिए एक-एक वर दिए, अर्थात् तीन वर । नचिकेता ने, बुद्धिमानी का पुनः परिचय देते हुए, पहला वर मांगा, “जब मैं वापस पिता के पास जाऊं, तो वे मुझे देखकर मुझे पहचान लें और प्रसन्नता से मेरा अभिवादन करें ।” इस एक वर से नचिकेता ने बहुत कुछ मांग लिया ! वह ऐसे – १) मैं आपके घर से लौटकर पृथिवीलोक पुनः जाऊं । २) क्योंकि मैं मर गया था, इसलिए मुझे लोग भूत-प्रेत समझ कर डरकर मेरे साथ अन्यथा व्यवहार कर सकते हैं । ऐसा न हो और वे मुझे पहचानकर प्रसन्न हों कि मैं मृत्यु के मुख से लौट आया हूं । ३) विशेषकर, जो मेरे पिता मुझसे रुष्ट थे, उनका कोप शान्त हो जाए, और वे पुनः मुझे प्रेम से ग्रहण करें । यम ने तत्परता से यह वर उसे प्रदान किया ।

दूसरे वर में, नचिकेता कहता है, “हमने सुना है कि स्वर्गलोक जैसा एक स्थान है जहां पर कोई भय नहीं है, न आप का राज है (अर्थात् मृत्यु नहीं है) और न बुढ़ापा है । हे मृत्यो ! आप उस स्वर्गलोक के विषय में मुझ श्रद्धालु को बताइए ।” यम सहर्ष उसको इस विद्या का दान करते हैं, जिसमें एक यज्ञाग्नि का चयन कहा गया है, जबकि उसको बुद्धि की गुफा में निहित भी कहा गया है । नचिकेता ने सब ग्रहण करके, यमराज को जैसा का तैसा पाठ सुना दिया । उसके ध्यान और मेधा-शक्ति से यमराज इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने उसको एक और वर बिना मांगे ही दे दिया – कि वह यज्ञ नचिकेता के नाम पर नाचिकेताग्नि कहाएगा । इसके साथ ही उसको अनेक रूपों वाली एक माला भी दी ।

अब समय आया तीसरे वर का तो नचिकेता ने कहा, “लोक में यह संशय है कि मरने के बाद आत्मा जैसी कोई वस्तु शेष रहती है या सब स्वाहा हो जाता है । इस विषय को आप मुझे सिखाइए ।” इस प्रश्न पर यमराज बहुत विचलित हो जाते हैं और नचिकेता से कोई और वर मांगने का अनुरोध करते हैं, क्योंकि यह विषय विद्वानों के द्वारा भी ज्ञात नहीं होता । वे उसे अपूर्व धन, भूमि, आयु, आदि, सभी भौतिक प्रलोभनों से लुभाने का प्रयत्न करते हैं । नचिकेता भी चतुर तो है ही ! वह कहता है, “जब आप ही कह रहे हैं कि यह विषय कठिन है, तो आप जैसा जानने वाला और आप जैसा सिखाने वाला मुझे कहां मिलेगा ?! आप जो मुझे भौतिक वस्तुओं का प्रलोभन दे रहे हैं, उनको भोगने के लिए तो एक जीवन भी कम है । कब किसी की इच्छाएं पूरी हुईं हैं ?! ये तो केवल इन्द्रियों के तेज को हर लेती हैं और आयु को कम कर देती हैं । अब जब आपको देख लिया है तो धन और आयु तो मुझे प्राप्त हो ही जाएंगे । इसलिए मुझे वर तो यही मांगना है ।” हार के यम अब अपना प्रवचन प्रारम्भ करते हैं, और वही इस उपनिषद् की विषय-वस्तु है ।

इस कथा का जो हम विश्लेषण करें, तो हमें इसमें कई अन्तर्विरोध मिलते हैं । सम्भवतः अन्यों ने भी इनको देखा हो, परन्तु मैंने कभी इनके विषय में कोई चर्चा नहीं देखी । इसलिए मैं इनकी ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं । ये इस प्रकार हैं –

  • नचिकेता क्या भूत/आत्मा के रूप में यमलोक पहुंचा, या सशरीर ? क्योंकि यम की पत्नी ने उसको ब्राह्मण पुकारा, इससे प्रतीत होता है कि वह सशरीर ही वहां पहुंचा । यह तो वैदिक मान्यता के विरुद्ध है ! वैसे, यम की सत्ता ही वैदिक मान्यता के विरुद्ध है !
  • यम की पत्नी कहती हैं कि हमारे सारे पुण्य भी नष्ट हो जायेंगे, यदि हमने ब्राह्मण को शान्त नहीं किया । जो स्वयं पाप-पुण्य के फल देता हो, वही पाप-पुण्य से बन्ध जायेगा, तो न्याय कैसे करेगा ?! तथापि सम्भवतः उपनिषत्कार इससे सीख दे रहे हों कि मनुष्यों को अतिथि के सत्कार में ढील नहीं छोड़नी चाहिए…
  • दूसरे वर के विषय में तो नचिकेता स्वयं जानता था – पिता को बूढ़ी गाएं देते हुए, वह समझ गया था कि इन गायों को देकर कोई स्वर्ग नहीं जा सकता, अर्थात् क्या करने से कोई स्वर्ग जाता है या नहीं जाता, वह उसको ज्ञात था !
  • वास्तव में, द्वितीय वर में जो वह स्वर्ग का वर्णन करता है, वह मोक्ष का है, और सुखी जीवन का नहीं, जो कि विश्वजित् यज्ञ से प्राप्त होता । सो, उस वर में सबसे गूढ़ विद्या मांगी गई है, जिसे कि यम तीसरे वर के अन्तर्गत देते हैं !
  • सबसे बड़ा अन्तर्विरोध यह है कि, जो नचिकेता शरीर त्याग करके स्वर्ग पहुंचा है, तो वह मृत्यु के बाद क्या होता है, यह तो स्वयं अनुभव कर रहा है । फिर उसको यम से तृतीय वर के रूप में पूछने की आवश्यकता ही क्या थी ?!

इस सब से ज्ञात होता है कि कथा सर्वथा काल्पनिक है, और उसमें अधिक विश्वसनीय तथ्य नहीं हैं । तथापि वह मन लुभाने वाली है, और उसको कहते-कहते भी उपनिषत्कार अनेकों सीख दे जाते हैं । कहानी से रुचि बनती है, और उपदेश को प्रस्तुत करने का एक ढांचा मिल जाता है, जिससे कि उसको स्मरण रखने में भी सहायता मिलती है । प्रधानतया, आगे के जो यमराज के वचन हैं, वे ही वे उपदेश हैं जिनके लिए उपनिषद् लिखा गया है ।

उन उपदेशों का निरूपण भी बहुत मन-लुभावने ढंग से किया गया है, जिसमें प्रसंगवश अनेकों सीखें पिरो दी गई हैं । उनमें से कुछ इस प्रकार हैं –

  • जीवन में हर समय हमारे सामने दो विकल्प रहते हैं – एक जो प्रिय लगता है और एक जो श्रेयस्कर होता है । जो श्रेय होता है, वह अनेक बार अप्रिय लगता है, क्योंकि प्रिय और अप्रिय, ये इन्द्रिय-जनित अनुभव होते हैं, जबकि श्रेय बुद्धि और आत्मा के मनन से विवेक उत्पन्न होता है । प्रिय अविद्या होती है, और श्रेय विद्या होता है । ये दोनों आत्मा को विपरीत दिशाओं में ले जाते हैं । जहां अविद्या इस संसार में बांधे रखती है, वहां विद्या मोक्ष प्राप्त कराती है । यह यजुर्वेद का प्रसिद्ध सन्देश ही है – अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतम्श्नुते (४०।१४) ।
  • यमराज यह भी बताते हैं कि श्रेयबुद्धि सरलता से नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि यह तर्कादि के परे है । इसमें जन्म-जन्मान्तर के शुभकर्म और उनसे उत्पन्न आत्मा की पवित्रता ही कारण हैं । यह तो हम प्रतिदिन ही अनुभव करते हैं – कम ही जन हैं जो कि मोक्ष के विषय में सोचते भी हों । मन्दिरों में चढ़ावे भौतिक सम्पदा के लिए चढ़ते हैं, आत्मिक उन्नति के लिए नहीं !
  • इसका एक कारण यह भी है कि परमात्मा ने हमारी इन्द्रियों को बलात् बहिर्मुख कर दिया है और कोई ही ऐसा धीर होता है जो इन्द्रियों के द्वार बन्द करके अन्दर झांकता है ।
  • इसीलिए मोक्ष के मार्ग का प्रवचन करने वाले विरले होते हैं, और उसको समझने वाले भी । यमराज जो संक्षेप में इस मार्ग का स्वरूप बताते हैं, सो वह एक पद में ही समा जाता है – ओम् । यही उसका आदि है, यही अन्त और यही मध्य है । इसी को लक्ष्य करके पथिक को राह पकड़नी होती है, जिससे कि अक्षर ब्रह्म और अनन्त सुख की प्राप्ति होती है । उस पदवाच्य परमात्मा की सुन्दर स्तुति पूरे उपनिषद् में भरी हुई है ।
  • दूसरी ओर जो भौतिक कामनाओं में फंसे रहते हैं, वे मृत्यु के चंगुल से छूट नहीं पाते ।
  • गीता में लगभग उसी प्रकार पाए गए प्रसिद्ध श्लोकों – न जायते म्रियते वा विपश्चिन् (कठ १।२।१८, गीता २।२०) और हन्ता चेन्मन्यते हन्तुम् (कठ १।२।१९, गीता २।१९) – के द्वारा यम बताते हैं कि जीवात्मा भी अनादि व अनन्त है (इन्हीं समानताओं के कारण, कई लोगों की मान्यता है कि भगवद्गीता कठोपनिषद् की व्याख्या है) । जहां वह अणु है, वहां ब्रह्म उससे भी अणुतर है और उसकी गुहा में निहित है । यह उपदेश भी वेदों में कई बार इसी प्रकार आता है, यथा – त्रीणि पदानि निहिता गुहास्य (यजु० ३२।९) । 
  • गीता में आए शरीर-रथ की उपमा भी यहां पाई जाती है – “हे नचिकेता ! तू आत्मा को रथ का स्वामी जान, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथि, मन को लगाम और इन्द्रियों को अश्व जो कि अपने विषयों में विचरती हैं (कठ० १।३।३-४) ।” इस प्रकार आत्मा बुद्धि द्वारा मन की लगाम से इन्द्रिय-अश्वों को वश में रखती है । यह उपमा, कुछ भेद से, यजुर्वेद में पाई जाती है – सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव (३४।६) – अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा सारथि लगाम से अश्वों को मन-वाञ्छित स्थान पर ले जाता है, वैसे ही मन मनुष्यों को इधर-उधर ले जाता है ।
  • गीता में वर्णित अधोमुख पीपल वृक्ष-रूपी संसार की उपमा भी यहां पाई जाती है (कठ० २।३।१, गीता १५।१) । 
  • मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने के लिए गुरुओं को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उपनिषद् यह बताता है । और जो इस मार्ग पर एक बार आ गया उसके लिए चेतावनी है कि इसी जन्म में परमात्मा को प्राप्त कर लो तो अच्छा है, नहीं तो पुनः अनेकों जन्म में घूमना पड़ेगा क्योंकि अगले जन्म में क्या हो, किसे क्या पता ?!
  • पतञ्जलि के समान, उपनिषद् बताता है कि जब शरीर, इन्द्रियां, मन व बुद्धि – सभी स्थिर हो जाते हैं, कोई चेष्टा नहीं करते, तो उसे योगावस्था कहा जाता है । इस अवस्था को कैसे प्राप्त करें, यह भी बताया गया है ।
  • ब्रह्म से आत्मीयता होने पर सब दु:ख दूर हो जाते हैं, सब कामनाएं छूट जाती हैं और हृदय की सब ग्रन्थियां (संशय) खुल जाती हैं ।
  • उपनिषद् बताता है कि मुक्तात्मा मूर्धा को जाने वाली एक नाड़ी से निकलता है और मृत्यु उसके वश में होती है – वह जब चाहे तब तक शरीर में वास कर सकता है, और जब चाहे छोड़ सकता है । इसको अन्यत्र जीवन्मुक्त दशा कहा गया है । 
  • अन्य आत्माएं अन्य दिशाओं में जाने वाली नाड़ियों से शरीर-त्याग करती हैं ।

इस प्रकार हम पाते हैं कि कठोपनिषद् अध्यात्म-ज्ञान का भण्डार है । इसमें वेदों के सत्य इतने सुन्दर रूप में प्रस्तुत किए गए हैं कि भगवद्गीता जैसे ग्रन्थों ने इसके श्लोक जैसे-के-तैसे उद्धृत किए हैं । इसके अधिकतर श्लोक स्मरणीय हैं और दैनिक सन्ध्या में जोड़ने योग्य हैं, क्योंकि वे भक्ति-रस से छलक रहे हैं । कठोपनिषद् में जो आलंकारिक नचिकेता और यम की कथा है, वह वैसे तो अध्यात्म-अध्येताओं में सुप्रसिद्ध है, परन्तु, जैसा मैंने हाल में ही वक्ता के रूप में अनुभव किया, सामान्य जन इससे अनभिज्ञ हैं । और कुछ नहीं तो, कम-से-कम यह कथा हमें घर-घर तक पहुंचानी चाहिए । बच्चों की पुस्तकों में इसे सम्मिलित करना चाहिए । जबकि इस कथा में अन्तर्विरोध हैं, तथापि यह इतनी मन को छूने वाली है कि इसको हमारी संस्कृति की धरोहर मानना चाहिए । और जो व्यक्ति उपनिषदों के संसार में अपने पहले पग रख रहा है, उसको सम्भवतः इसी उपनिषद् से अपनी यात्रा प्रारम्भ करनी चाहिए ।