छान्दोग्य में शरीर में देवता

छान्दोग्य उपनिषद् एक लम्बा उपनिषद् है जिसमें अनेकों आख्यायिकाएं हैं । इनमें से कई बृहदारण्यक उपनिषद् में और शतपथ ब्राह्मण में वैसी की वैसी, या कुछ भेद के साथ, मिलती हैं । इससे उपनिषद रोचक तो हो जाता है, परन्तु इनमें से कई आख्यायिकाओं के सही अर्थ अब उपलब्ध नहीं हैं, ऐसा प्रतीत होता है । उनमें कुछ गूढ़ रहस्य छिपा है, इससे उनमें और भी कौतुहल उत्पन्न होती है । इनमें से एक है – शरीर में देवताओं का तीन-तीन में बंटकर वास करना । यह प्रकरण प्रपाठक ६, खण्ड ५ – ७ में आता है । इसके तथ्य की अवश्य ही खोज करनी चाहिए, ऐसी मेरी मान्यता है । इसकी विषय-वस्तु और उसपर अपने कुछ विचार मैं इस लेख में दे रही हूं ।

पहले तो छान्दोग्य ने तीन देवताओं को ब्रह्माण्ड, और विशेषतः शरीर, की सृष्टि में मुख्य माना है । ये हैं – तेज, जल और अन्न । अन्न पृथिवी-तत्त्व का ही पर्यायवाची है । सो, आकाश और वायु को इतनी अधिक प्राथमिकता न देते हुए, पञ्च तत्त्वों में से तेज, जल और पृथिवी विकारों को अधिक महत्त्व दिया गया है ।

उपरोक्त स्थल पर पिता उद्दालक आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु को उपदेश देने का प्रकरण है । उसमें वे बताते हैं कि ये तीन देवता कैसे शरीर को बनाने में तीन-तीन रूप धारण करते हैं । इसमें वे दही को बिलोने की उपमा देते हैं, जिससे उसके तीन भाग हो जाते है – ऊपर तैरने वाला हल्की मलाई या घी, मध्य में रहने वाला जल या छाछ और नीचे बैठ जाने वाला मक्खन । सो, तेज, जल और अन्न के भी वे तीन-तीन भाग बताते हैं । इनका वर्णन इस प्रकार है ।

उद्दालक कहते हैं कि हम जो अन्न खाते हैं उसका स्थूलतम भाग मल बनता है, जिसे शरीर त्याग देता है । जो मध्यम अंश होता है, वह मांस बन जाता है । और जो सूक्ष्मतम भाग होता है, वह मन का अंश बन जाता है (अन्नमशितं त्रेधा विधीयते । तस्य यः स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरीषं भवति । यो मध्यमस्तन्मांसं योऽणिष्ठस्तन्मनः ॥ छा० ६।५।१) । यहां मल और मांस का बनना तो अत्यन्त स्पष्ट हैं – भोजन का fibre और अन्य अवांछित अंश मल बनते हैं । इनको अन्न का स्थूलतम भाग अवश्य कहा जा सकता है । बाकी अन्न आंतो में से रक्त में घुल जाता है और सारे शरीर में जाकर मांस बनाता है, ऊर्जा देता है । मन के विषय में यह पाया गया है कि मस्तिष्क की रक्त धमनियां बाकी शरीर से कुछ भिन्न होती हैं । वे केवल रक्त का बहुत सूक्ष्म अंश ही मस्तिष्क तक पहुंचने देती हैं । इस प्रकार मन = मस्तिष्क को पहुंचने वाले अंश को सूक्ष्मतम भाग अवश्य कह सकते हैं । सो, इस विषय में छान्दोग्य का कथन पूर्णतया प्रमाणित हो जाता है ।

आगे उद्दालक बताते हैं कि जो जल हम पीते हैं, उसका स्थूलतम भाग मूत्र बनता है ; जो मध्यम भाग है, वह रक्त में परिवर्तित होता है; और सूक्ष्मतम भाग प्राण बन जाता है (आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते । तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं भवति । यो मध्यमस्त्ल्लोहितम् । योऽणिष्ठः स प्राणः ॥ छा० ६।४।२) । इस विषय में विज्ञान कहता है कि गुर्दों से पीये हुए जल की अशुद्धियां, शरीर की आवश्यकता से अधिक जल के साथ, मूत्र में चली जाती हैं, जबकि शुद्ध जल रक्त का भाग बन जाता है । सो, हम पहले दो भाग तो समझ सकते हैं, परन्तु जल का कौन सा भाग प्राण कैसे बना ? – यह प्रश्न शेष रह जाता है । आधुनिक विज्ञान जल और प्राण में कोई सम्बन्ध नहीं बताता । 

तेज का विषय और भी रहस्यात्मक हो जाता है ! उद्दालक कहते हैं – जो घी, तेल, आदि तेजयुक्त भोजन खाया जाता है, उसके तीन भाग इस प्रकार होते हैं – उसका स्थूलतम भाग अस्थि बनता है, मध्यम भाग मज्जा बनता है, सूक्ष्मतम भाग वाणी बनती है (तेजोऽशितं  त्रेधा विधीयते । तस्य यः स्थविष्ठो धातुस्तदस्थि भवति । यो मध्यमः स मज्जा । योऽणिष्ठः सा वाक् ॥ छा० ६।४।३) । विज्ञान के अनुसार अस्थि भोजन में उपलब्ध कैल्शियम से बनती है, जो कि रक्त द्वारा उसका पहुंचाया जाता है । कैल्शियम पालक आदि से भी उतना ही गृहण होता है, जितना कि घी, बादाम, आदि से । और मज्जा भी रक्त से बनती है । तथा वाणी ऊर्जा से उत्पन्न हुई कही जा सकती है । घी में उपलब्ध कैल्शियम बहुत कम होता है । हां, दूध, तिल, आदि में अधिक होता है । परन्तु हरी पत्तियों वाले सागों में और अधिक होता है ।  घी में एक विटामिन मिलता है – K2 – जिससे अस्थि में कैल्शियम अधिक संग्रहीत होता है । परन्तु अन्य तेलों, बादाम, आदि, में यह नहीं मिलता । विटामिन को तेज मानना तो उपयुक्त नहीं लगता और कैल्शियम आदि धातुएं तो पृथिवी तत्त्व में ही गिनी जा सकती हैं, तेज में नहीं । वाणी का तो तेज से कोई सम्बन्ध ही नहीं समझ में आता ! इस प्रकार, तेज से अस्थि, मज्जा और विशेष रूप से वाणी का उत्पन्न होना रहस्यमय है !

अन्ततः, उद्दालक कहते हैं – “अन्नमयं हि सोम्य ! मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति … ॥ छा० ६।५।४ ॥ – हे प्रिय पुत्र ! (इस प्रकार) मन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाणी तेजोमयी है । और कहते हैं कि जिस प्रकार दही के मथे जाने पर उसका सूक्ष्म भाग ऊपर तैर आता है, उसी प्रकार अन्न, जल और तेज के सेवन करे जाने पर उनका सूक्ष्म भाग क्रमशः मन, प्राण और वाणी को प्राप्त होते हैं (छा० ६।६)। 

मन आदि के इस गुण को वे एक प्रयोग से सिद्ध करते हैं (छा० ६।७) । वे श्वेतकेतु को आज्ञा देते हैं कि तू पन्द्रह दिन भोजन मत कर, केवल इच्छानुसार जल पी । श्वेतकेतु ऐसा ही करता है । तब पिता उससे पूछते हैं कि मुझे वेद का कोई अंश सुना, जो तुझे याद आ रहा हो । तो श्वेतकेतु कहता है कि इस समय तो मेरे मन में कुछ भी नहीं आ रहा है । तब उन्होंने बेटे को भोजन करने का आदेश दिया । भोजन के बाद जब उन्होंने बेटे से कुछ प्रश्न पूछे, तो बेटे ने सहजता से सब के उत्तर दे दिए । तब उन्होंने श्वेतकेतु को शिक्षा दी कि क्योंकि प्राण जलमय होता है, इसलिए तुम्हारे प्राण बचे रहे, परन्तु मन के अन्नमय होने के कारण, भोजन न करने पर, उसका व्यापार बन्द हो गया । तेज की कमी से, बोलने में भी कठिनाई होने लगी, इसे अनकही बात समझना चाहिए । यह प्रयोग तो हमारे अनुभव से भी प्रमाणित है – जब हम उपवास करते हैं, तब प्राण तो चलते रहते हैं, परन्तु अन्य शारीरिक कर्म हल्के पड़ जाते हैं । तथापि हमें प्राण और जल का सम्बन्ध स्पष्ट नहीं होता…

इसी प्रसंग में, उद्दालक ने जीव को सोलह कलाओं वाला भी बताया है (षोडशकलः सोम्य ! पुरुषः ॥ छा० ६।७।१) । प्रश्नोपनिषद् से हमको जान पड़ता है कि ये सोलह कलाएं इस प्रकार हैं – प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक, नाम (स प्राणमसृजत । प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च ॥ प्रश्नोपनिषद् ६।४॥) । उद्दालक यहां बताते हैं कि भोजन न करने के कारण, श्वेतकेतु की जलरूपी केवल एक कला रह गई थी, अर्थात् अन्य कलाएं क्षीण पड़ गईं थीं । इस कारण से उसकी मन-कला ने काम बन्द कर दिया, और उसे उद्दालक के प्रश्न का उत्तर नहीं सूझा । प्रसंग को और गहराई से देखें तो श्वेतकेतु की केवल एक जलरूपी कला कैसे शेष रही ? उद्दालक स्वयं मानते हैं कि, जल के साथ-साथ, प्राण-कला भी श्वेतकेतु में अवश्य वर्तमान थी । इससे ज्ञात होता है कि वे जल और प्राण को यहां एक ही मूल के दो रूप मान रहे हैं, जो दो पृथक् कलाओं के रूप में दीखता है । तब फिर मन और अन्न, व तेज और वाक् = नाम-कला (देखिए मेरा लेख ’सृष्टि में नाम और रूप का महत्त्व’) कलाएं भी मूल में एक ही हैं, यह निष्कर्ष भी हम इस उपदेश से निकाल सकते हैं ।

अब, जल आदि का प्राण आदि से सम्बन्ध प्रत्यक्ष में न दिखने के कारण, हम उद्दालक के वचन को आलंकारिक मानकर, पूर्णतया सत्य नहीं है – ऐसा मान सकते हैं । परन्तु, हमने ऊपर देखा कि उनके उपदेश का करीब आधा भाग आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रमाणित है । आधे को सही जानकर, हम बाकी आधे को कैसे त्याग दें ? उसे न समझना हमें अपनी अज्ञानता ही माननी पड़ेगी ! 

 वास्तव में, हमें इन विषयों को, संकेतमात्र न मानकर, अपितु सत्य मानकर, उनको वैज्ञानिक रीति से परखना चाहिए । फिर यदि वे खरे न उतरें, तो उन्हें अवश्य त्याग देना चाहिए । ये किस रूप में सच है, यह समझने से हमारे ज्ञान में कितना विकास होगा, यह हम सहजता से समझ सकते हैं । उपनिषद् के वचन हमें एक गूढ़ सत्य से परिचित करा रहें हैं । उसको पूर्णतया प्राप्त करना, समझना हमारा कर्तव्य है ।