तैत्तिरीयोपनिषद् की कथा

तैत्तिरीय उपनिषद् एक दीर्घ ग्रन्थ है । तथापि इसमें केवल एक कथा प्राप्त होती है । उसका विवरण मैं इस लेख में प्रस्तुत कर रही हूं । सम्भवतः यह कथा किसी ऐतिहासिक घटना को कहती है । साथ-ही-साथ इस उपनिषद् के कुछ नीतिवचन भी प्रस्तुत कर रही हूँ ।

तैत्तिरीयोपनिषद्  कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अन्तर्गत प्राप्त तैत्तिरीय आरण्यक का सातवां, आठवां और नवां अध्याय है । उपनिषद् में इन अध्याओं के नाम शीक्षा-वल्ली, ब्रह्मानन्द-वल्ली और भृगु-वल्ली हैं । उस अन्तिम भृगु-वल्ली में भृगु की कथा प्राप्त होती है । वल्लियां अनुवाकों में बटी हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थ गद्यात्मक है । यह उपनिषद् शिक्षा देने की शैली में लिखा हुआ है, जिसमें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले योगी और सांसारिक व्यक्ति – दोनों के लिए शिक्षाएं पाई जाती हैं । इसमें अनेकों प्रसिद्ध वाक्य भी पाए जाते हैं, जैसे कि “मातृदेवो भव” “अतिथिदेवो भव”, आदि, जिनसे प्रायः सभी परिचित हैं । कई सीखें सरल हैं और कुछ जटिल – जिनके अर्थ काल के कपाल में लीन हो गए हैं । तथापि इसके समझ में आने वाले उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । मैं उनका भी थोड़ा-सा दिग्दर्शन कराऊंगी, परन्तु पहले कथा…

पुरातन काल में भृगु नामक एक ऋषि हुए थे, जिन्होंने ब्रह्मविद्या को प्राप्त किया था । यह उनकी खोज की कहानी है । उनके पिता वरुण थे, जो पूर्ण ज्ञानी थे । एक बार भृगु पिता के पास गया और उनसे बोला, “पिताजी, मुझे ब्रह्मोपदेश करिए ।” पिता जैसे पहेलियों में बोले, “अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, वाणी (इन के द्वारा ही यह विद्या प्राप्त होगी) ।” आगे वे बोले, “जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते है, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिससे ये (इस लोक से) प्रयाण करते हैं और जिसमें (मरणोपरान्त) प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा (=प्रयत्न) कर क्योंकि वही ब्रह्म है ।”

भृगु ने तप आरम्भ किया । उस तप से उसने जाना कि अन्न ही वह वस्तु है जिससे प्राणी उत्पन्न होते हैं, जीते हैं, जिसके बिना वे मृत्यु को प्राप्त करते हैं और, मरणोपरान्त, अन्न में ही समाविष्ट हो जाते हैं । उन्होंने पिता को अपनी खोज का परिणाम बताया । पिता ने कहा कि ठीक है, परन्तु यह अन्तिम उत्तर नहीं है । उन्होंने भृगु को और तप करने को कहा ।

भृगु ने पुनः घोर तपस्या की और जाना कि पिता ने जो पहला विचित्र वाक्य कहा था, उसी में पुनः उत्तर छुपा है, क्योंकि प्राण ही तो वह वस्तु है जिससे यह सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिससे उत्पन्न होकर जीते हैं, जिसके निकल जाने पर इस लोक से वे प्रयाण कर देते हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु पिता फिर भी सन्तुष्ट नहीं हुए और उससे और तप करने को कहा ।

अब की बार भृगु को ब्रह्म के रूप में मन ज्ञात हुआ, जिससे भी सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसकी सहायता से जीते हैं, जिसके न रहने पर मरते हैं, और अन्तकाल में उसी में विलीन हो जाते हैं । परन्तु इस उत्तर से भी पिता सन्तुष्ट नहीं हुए । तब भृगु को ब्रह्म के रूप में विज्ञान जान पड़ा, जिससे भी सब उपर्युक्त कार्य होते हैं । जब पिता ने और आगे ढूढ़ने की प्रेरणा दी, तो भृगु को आनन्द-रूपी ब्रह्म जान पड़ा । अब की बार वरुण सन्तुष्ट हुए । इन दोनों के तप से जानी गई यह विद्या भार्गवी-वारुणी विद्या कहलाई ।

भृगु की खोज के विभिन्न चरणों को देखकर, सम्भवतः आप अब तक जान गए हों कि वह वास्तव में क्या ढूढ़ रहा था और क्या पा रहा था । वस्तुतः, भृगु ने ध्यान-रूपी तप से शरीर के पंच कोशों का रहस्य ढूढ़ निकाला । ये पंच कोश हैं – अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश । ये जैसे शरीर की स्थूल से सूक्ष्मतर परते हैं, जो एक के अन्दर एक बैठी हैं ।

अन्नमय कोश स्थूल शरीर है, जो कि पंच महाभूतों का बना हुआ है । इसी को हम अधिकतर अनुभव करते हैं – भूख-प्यास, चोट, बल, आदि, स्थूल शरीर के लक्षण होते हैं ।

प्राणमय कोश में श्वास-निःश्वास ही नहीं, अपितु शरीर की सभी चेष्टाएं सम्मिलित हैं । प्राणों से ही रक्त को गति मिलती है और आंतों से शरीर में रस बहता है । ध्यान करते समय, पहले भौतिक शरीर के किसी अंश के बाद, हमें अपने प्राणों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । बृहदारण्यक में कहा गया है कि सभी इन्द्रियां, और मन भी, पाप-युक्त हो सकती हैं, परन्तु प्राण पाप से परे रहता है । प्राणों पर ध्यान लगाने से, हमारा मस्तिष्क पवित्र हो जाता है ।

और अन्दर जाने पर, योगी को मन का रूप स्पष्ट होता है – वह मन जो इन्द्रियों से बाह्य विषयों का ग्रहण करता है और फिर शरीर में चेष्टा उत्पन्न करने का संकल्प-विकल्प करता है ।

मनोमय कोश से भी सूक्ष्मतर होता है विज्ञानमय कोश, जो कि बुद्धि का पर्याय है । यहां हमारे गहन विचार स्थित होते हैं । जब हम किसी विचार में लीन होते हैं, तो अपने शरीर की सुध-बुध भूल जाते हैं, हमारा शरीर शिथिल पड़ जाता है, हमें अपने आस-पास की सुध भी नहीं रहती, हम किसी और ही संसार में होते हैं । वह विज्ञानमय कोश होता है । योगी भी इसमें प्रवेश करके शरीर और इन्द्रियों को भूल जाता है ।

इस कोश के अन्दर स्थित होता है आनन्दमय कोश । यह वह कोश है जहां आत्मा अपने को देखने लगता है, परमात्मा की झलक पाने लगता है । जैसे-जैसे वह इसमें प्रवेश करता जाता है, वैसे-वैसे प्रकृति का अंकुश उसपर से उठता जाता है, और वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होने लगता है । इस अवस्था में जिस आनन्द की अनुभूति उसे होती है, वह वर्णनातीत है, क्योंकि वर्णन में तो शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख ही आते हैं । योगदर्शन में इसी स्थिति को आनन्दा समाधि कहा गया है, जिसके आगे अस्मिता समाधि में वह अपने में स्थित हो जाता है । यहीं पहुंच कर ब्रह्मलोक के द्वार खुलने लगते हैं और मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है । 

तैत्तिरीय उपनिषद् में और भी सुन्दर शिक्षाएं हैं, जैसे शीक्षा-वल्ली के एकादश अनुवाक में आचार्य गुरुकुल से स्नातक हो, उसे छोड़ते हुए अन्तेवासी को अन्तिम शिक्षा देते हैं कि सांसारिक जीवन-निर्वाह कैसे करना चाहिए –

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं  वद । धर्मं  चर । स्वाध्यायान्मा  प्रमदः । आचार्याय  प्रियं धनमाहृत्य  प्रजातन्तुं  मा  व्यवछेत्सीः । सत्यान्न  प्रमदितव्यम्  । धर्मान्न  प्रमदितव्यम्  । कुशलान्न  प्रमदितव्यम्  । भूत्यै  न  प्रमदितव्यम्  । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां  न  प्रमदितव्यम्  । देवपितृकार्याभ्यां  न  प्रमदितव्यम्  । 

अर्थात् वेदों को भली-भांति पढ़ाकर, आचार्य अन्तेवासी को शिक्षा देते हैं – सत्य बोलना । धर्म करना । (गृहस्थ-जीवन प्रारम्भ करने पर भी) स्वाध्याय बिना प्रमाद के करते रहना । (जाते-जाते) आचार्य के प्रिय धन से उसको तृप्त करके, गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके प्रजा के धागे को मत तोड़ना, अर्थात् सन्तति उत्पन्न करके कुल को बढ़ाना (उस समय यह भय होता था कि स्नातक इतना निर्मोही कहीं न हो जाए, कि विवाह ही न करे । आजकल तो यह भय ही हास्यास्पद है !) । सत्य से कभी मत डिगना । धर्म से कभी मत डिगना । शुभ, कल्याणकारी कर्मों में आलस्य कभी मत करना । भौतिक उन्नति के प्रयास से मत विरत होना । स्वाध्याय और प्रवचन – अपनी और अन्यों की धर्म में शिक्षा – से कभी विरत मत होना । देव = ज्ञानियों और पितृ = परिवार के वृद्धों की सेवा में कभी चूक मत करना ।

मातृदेवो  भव । पितृदेवो  भव । आचार्यदेवो  भव । अतिथिदेवो  भव । यान्यवद्यानि  कर्माणि  तानि सेवितव्यानि  नो  इतराणि । यान्यस्माकँ  सुचरितानि  तानि  त्वयोपास्यानि  नो  इतराणि । ये  के  चास्मच्छ्रेयाँसो  ब्राह्मणाः  तेषां  त्वयासनेन  प्रश्वसितव्यम् । श्रद्धया  देयम् । अश्रद्धयादेयम् । श्रिया  देयम् । ह्रिया  देयम् । भिया  देयम् । संविदा  देयम् ।

अर्थात् माता तेरे लिए देव-तुल्य हो । एवमेव पिता, आचार्य और घर आए साधु-सन्त रूपी अतिथि को देव मान । (उनके सत्कार और सेवा में कमी न होने पाए ।) जो हमारे प्रशंसित कर्म हैं, उनका अनुसरण कर, हमारे अन्य (दुष्कर्मों) का नहीं । जो हमारे गुण हैं, उनको प्राप्त कर, अन्यों (दुर्गुणों) को नहीं । हममें जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं, उनकी आसन आदि से सेवा-सत्कार कर । दान करते समय ध्यान रखना कि – श्रद्धा (पूर्ण मनोभाव) से देना । अश्रद्धा से मत देना (यहां ’अश्रद्धया देयम्’ पाठ भी उपलब्ध होता है, जिसका अर्थ किया जाता है कि सुपात्र को, श्रद्धा-भाव न होने पर भी, देना) । अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार दान करना । अहंकार-शून्य होकर देना । परमात्मा के भय से देना । सुपात्र जानकर, विवेकपूर्वक देना ।

अथ  यदि  ते  कर्मविचिकित्सा  वा  वृत्तचिकित्सा  वा  स्यात् । ये  तत्र  ब्राह्मणाः  सम्मर्शिनः । युक्ता  आयुक्ताः । अलूक्षा  धर्मकामाः  स्युः । यथा  ते  तत्र  वर्तेरन् । तथा  तत्र  वर्तेथाः । अथाभ्याख्यातेषु । ये  तत्र  ब्राह्मणाः  सम्मर्शिनः । युक्ता  आयुक्ताः । अलूक्षा  धर्मकामाः  स्युः । यथा  ते  तेषु  वर्तेरन् । तथा  तेषु  वर्तेथाः । एष  आदेशः । एष  उपदेशः । एषा  वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् । एवमु  चैतदुपास्यम् ।

अर्थात् तुझे किसी कर्म में कोई शंका हो, या किसी आचार के विषय में शंका हो, तो तेरे आसपास जो विचारशील, स्वयं उस कार्य में लगे हुए, अथवा नियुक्त किए हुए, स्नेहमय, धर्म की कामना करने वाले ब्राह्मण हों, वे उस आचरण में जैसे वर्तें, वैसे ही तू भी वर्तना । इसी प्रकार किसी विवादास्पद कार्य और मनुष्य में भी तू उनके समान वर्तना । (अर्थात् जो ज्ञानी, आचारनिपुण और धार्मिक व्यक्ति हों, उनसे सीख लेकर अपना आचार सुधारना । आचार ऐसा विषय है जिसमें कभी भी पूर्णतया सब स्थितियां नहीं बताई जा सकतीं । जो हमने न बताया हो, जिसमें तुझे शंका हो, उसे अन्य विद्वानों के आचरण से सीखना ।) यह ही हमारी आज्ञा है । यही हमारा तुमको परामर्श है । यही वेद का गूढ़ उपदेश है । यही परम्परागत सीख है । इस प्रकार ही करने योग्य है । निश्चय से इसी प्रकार करने योग्य है ।

यह कितनी सुन्दर सीख है ! कहीं किसी उपदेश में कोई आचार्य कभी ऐसा कहता पाया गया है कि हममें अथवा हमारे उपदेश में कुछ कमी है ? केवल महर्षि दयानन्द ऐसा कहते पाए गए हैं, जिन्होंने कहा था कि मैं भी मनुष्य हूं, मुझ में भी दोष हो सकते हैं; कभी मेरा कोई भी वचन वा आचरण वेद-विरुद्ध हो, तो वेद को ही सर्वोपरि मानना । जो ज्ञानी और धार्मिक होते हैं, जिनको चेलों-चपाटों पर राज्य करने, उनका धन आदि हरने से कोई सरोकार नहीं होता, वे ही ऐसे महान् वचन बोल सकते हैं; अन्य सब तो अपनी झूठ-सच बातें मनवाने में लगे हैं । शिष्य भी विरले ही होते हैं, जो इन वचनों से अपने आचार्य की महानता समझ पाते हैं; अन्यों को तो गुरु में अविश्वास उत्पन्न हो जाता है…

यदि इस सीख को आंशिक रूप में भी जीवन में उतार सकें, तो हमारा महान् कल्याण हो ।

यहां हम पुनः पाते हैं कि सर्वकार द्वारा प्रचारित ’अतिथि देवो भवः’, यह पाठ अशुद्ध है । सही पाठ ’अतिथिदेवो भव’ है । भारत में शास्त्रों के पठन-पाठन की शोचनीय स्थिति और संस्कृत के अज्ञान को यह दर्शाता है ।

तैत्तिरीय की कुछ अन्य सूक्तियां हैं –

  • अद्यतेऽत्ति च भूतानि । तस्मादन्नं तदुच्यते ॥ २।२ ॥ – खाया जाता है और खाता है प्राणियों को, इसलिए ’अन्न’ कहा जाता है । भर्तृहरि ने भी कुछ ऐसा ही कहा था – भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः – भोग नहीं भोगे जाते, वे ही हमको खा जाते हैं । आशय यह है कि जितना हम भोगों में विलासिता से आचरण करेंगे, उतना ही अपने जीवन को नष्ट करेंगे । वास्तव में, तो भोगों से दूर जाने के लिए यह जीवन मिला है !
  • दूसरी ओर उपनिषद् कहता है – अन्नं न निन्द्यात् । तद्व्रतम् ॥ ३।७ ॥ – अन्न ही जीवन का आधार है, इसलिए अन्न की निन्दा कभी न करना । यह तुम्हारा व्रत हो । आजकल हम पाते हैं कि होटलों आदि में प्रचुर मात्रा में अन्न फेंका जाता है । यह पाप है । यह पाप हम सभी के सर लगता है । यह भी एक कारण है जिससे कि प्राकृतिक आपदाएं दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही हैं । अभी भी भारत में पुरानी रीति के फिर भी कुछ लोग मिल जाते हैं, जो अपनी थाली में एक कण भी नहीं छोड़ते । यही प्रथा सही है ।
  • सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ॥ २।१ ॥ – ब्रह्म सत्यस्वरूप (सत्ता वाला), ज्ञानस्वरूप (सर्वज्ञ) और अनन्त (काल और दिशा के परे) है ।

तैत्तिरीय में अधिलोक आदि की सन्धियों की व्याख्या, भूः, भुवः, स्वः व महः व्याहृतियों की विषद व्याख्या, अन्नमय आदि कोशों का विवरण, सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन और ब्रह्म की व्याख्या है । आनन्द की भी मीमांसा प्रस्तुत की गई है । ये सभी पठनीय हैं ।

जहां सभी उपनिषदों में ब्रह्मप्राप्ति का विषय-साम्य है, और कुछ विषय बार-बार पाए जाते हैं, तथापि प्रत्येक उपनिषद् कुछ नई बात भी कहता है । तैत्तिरीयोपनिषद् ऐसे ज्ञान की खान है । उसको पढ़ने और मनन करने से, पाठक को बहुत सन्तोष मिलेगा – उसको नया ज्ञान मिलेगा और उसके अनेकों संशय दूर होंगे । तथापि यह उपनिषद् भी कठिन है और अच्छे भाष्य या गुरु की अपेक्षा रखता है ।