प्रश्नोपनिषद् की कथा

प्रश्नोपनिषद् में कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है । 

प्रश्नोपनिषद् अथर्ववेद से सम्बद्ध है । पुरातन काल में महर्षि पिप्पलाद नाम से एक प्रसिद्ध ऋषि हुए हैं । उनसे सम्बद्ध वेदशाखा के ब्राह्मण का यह उपनिषद् एक अंश है । सम्भवतः उनके शिष्यों द्वारा लिखे हए इस उपनिषद् में पिप्पलाद के पास आये हुए छः ऋषियों के छः प्रश्न हैं, जो कि एक-एक अध्याय में उत्तर-सहित वर्णित हैं । इसी कारण से इस उपनिषद् का नाम ’प्रश्न’ है । उनकी विषय-वस्तु अत्यन्त गूढ़ है और आज हम उसे ठीक से नहीं समझते । तथापि, जितने अंश को हम समझते हैं, उसका सार भी मैंने नीचे प्रस्तुत किया है । 

एक बार, छः ऋषि, जो कि स्वयं ब्रह्म और वेदों में निष्ठा रखने वाले ज्ञानी थे, कुछ विषयों पर आपस में चर्चा करके किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए । तब, महर्षि पिप्पलाद की ख्याति को सुनकर, वे महर्षि पिप्पलाद के आश्रम पर, गुरु के लिए हाथ में समिधाएं लेकर, पधारे । जैसे कि प्रथा थी, ऋषि ने उनको तप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा के साथ, एक वर्ष के लिए आश्रम में वास करने को कहा । इस प्रकार गुरु का शिष्य को तुरन्त उपदेश न करने का, परन्तु शिष्यों को लम्बे समय तक आश्रम में वास कराने का कारण सम्भवतः यह था कि, एक तो, इससे शिष्य के संकल्प की परीक्षा हो जाती थी – यदि शिष्य अपने संकल्प में दृढ़ नहीं था, तो वह कुछ समय उपरान्त धैर्य छोड़कर चला जाता । दूसरे, सम्भवतः, इस काल में शिष्य गुरु और उनके विचारों से थोड़ा अवगत हो जाता होगा, अन्य शिष्यों के साथ वह भी कुछ सीख जाता होगा । यदि उसे गुरु की शिक्षा-पद्धति रुचिकर न लगती हो, तो वह छोड़ के जा सकता था ।

पिप्पलाद के आश्रम में आए ऋषि थे – सुकेशा भारद्वाज, सत्यकाम शैव्य, सौर्यायणी गार्ग्य, आश्वलायन कौसल्य, भार्गव वैदर्भि और कबन्धी कात्यायन । एक वर्ष पश्चात्, वे ऋषि के सामने उपस्थित हुए । सबसे पहले कबन्धी ने अपना प्रश्न रखा, “भगवन् ! ये जीव-जन्तु रूपी प्रजा कहां से उत्पन्न होती है ?”

महर्षि ने उसे उपदेश दिया कि सृष्टि के आरम्भ में प्रजापति परमेश्वर ने प्रजा उत्पन्न करने की कामना की । उसने तप किया, जिससे एक जोड़ा उत्पन्न हुआ । यह जोड़ा था रयि (धन) और प्राण (आदित्य) का । वस्तुतः, प्राण ही उपनिषद् का मुख्य विषय है । आगे-आगे ऋषि एक-एक करके ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं को प्राण का एक रूप बताते हैं । यहां तक कि रयि को भी प्राण का ही रूपान्तर बताते हैं । यह प्राण क्या है ? – यह अस्पष्ट है । यहां अगले ही वाक्य में वे आदित्य को प्राण और रयि को सब मूर्त वस्तुएं बताते हैं । इससे प्रतीत होता है कि जो भी हम धन-रूप में अर्जित कर सकते हैं, जैसे भू-भाग, सोना-चाँदी, पशु आदि, उसे रयि कहा गया है । दूसरी ओर, आदित्य आदि को मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता । यहां तक कि जीवन-वायु प्राण को भी मनुष्य यत्न से नहीं प्राप्त कर सकता – वह परमात्मा की देन ही होती है !

इसी प्रकरण में वे एक महत्त्वपूर्ण उपदेश देते हैं – प्रजापति संवत्सर(वर्ष)-रूपी है । उसके दो अयन (जीवन-मार्ग) हैं – एक दक्षिण, दूसरा उत्तर । जो लोग इष्टापूर्ते = यज्ञ और परोपकार (= सामाजिक कुआं खुदवाना आदि) के कृत्यों को ही महान् समझते हैं और परिवार की कामना करते हैं, वे दक्षिणायन को प्राप्त होते हैं, जो कि पितृयाण है, जिससे वे चन्द्रलोक को प्राप्त कर पुनः पृथिवी पर जन्म लेते हैं । परन्तु जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या से अपने को ढूढ़ते हैं, वे आदित्य को प्राप्त होते हैं । आदित्य ही प्राणों का आधार है । वहां पहुंच कर वे अमृत और अभय हो जाते हैं । परम पद को प्राप्त करके, वे वापस नहीं आते, अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । यही उत्तरायण है । जैसा कि मैंने पूर्व के एक लेख में लिखा था, यहां पर भी हम मुक्तात्माओं का वास आदित्य पर बताया पाते हैं । और यज्ञ और परोपकार से मुक्ति नहीं प्राप्त होती – यह भी मेरे द्वारा पूर्व-वर्णित सन्देश पाते हैं । सभी उपनिषद् ये दो बातें बार-बार कहते हैं । खेद है कि इन्हें हम अपने पूर्वाग्रह के कारण समझ नहीं पाते हैं …

अब विदर्भदेशीय भार्गव अपना प्रश्न रखता है, “भगवन् ! कितने देव ऊपर कही प्रजा का धारण करते हैं ? कितने इसको प्रकाशित करते हैं ? इनमें से कौन वरिष्ठ है ?”

पिप्पलाद बोले कि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी (जीवों को धारण करते हैं), व वाक्-शक्ति, मन, चक्षु और श्रोत्र – ये जीवों को प्रकाशित करते हैं । इनमें से कौन वरिष्ठ है, इसको दर्शाने के लिए, वे एक उपमात्मक कथा सुनाते हैं – वाक् और उससे उपलक्षित सभी कर्मेन्द्रियां, मन और उससे सम्बद्ध अन्तःकरण के चार विभाग, चक्षु, श्रोत्र और अन्य सभी ज्ञानेन्द्रियां अपने को सबसे बड़ा मानने लगीं । परन्तु उनमें से वरिष्ठ प्राण बोला, “मोह में मत पड़ो – मैं ही पाँच भाग में बटकर इस शरीर को आश्रय देकर धारण किए हूं ।” तब प्राण ऊपर उठा, तो वे सभी उठने लगीं; जब वह बैठा, तब वे सब बैठ गईं, जैसे कि मधुमक्खियों के राजा के साथ-साथ शेष मधुमक्खियां उड़ती या बैठती हैं । तब सब इन्द्रियों ने प्राण का लोहा माना और उसकी स्तुति की । यह कथा भी अन्य ग्रन्थों में पाई जाती है, और मधुमक्खी वाली उपमा भी ।

फिर कोसलदेशीय आश्वलायन पूछते हैं, “कहां से यह प्राण उत्पन्न होता है ? कहां से यह शरीर में आता है ? इस शरीर में विभक्त होकर कैसे स्थित है ? कैसे शरीर से बाहर निकलता है ? कैसे बाह्य जगत् को धारण करता है और कैसे अन्तरात्मा को ?”

पिप्पलाद प्रश्नकर्ता को शाबाशी देते हुए कहते हैं, “तुमने कठिन प्रश्न पूछा है । क्योंकि तुम वेदादि का अध्ययन कर चुके हो, इसलिए मैं तुम्हें बताता हूं । आत्मा से यह प्राण उत्पन्न होता है । जिस प्रकार यह पुरुष की छाया उस में ही फैली होती है, इसी प्रकार प्राण मन के कृत्य से प्राप्त इस शरीर में फैल जाता है ।” यहां ’आत्मा’ शब्द से ब्रह्म का ग्रहण किया जाता है, परन्तु ब्रह्म ने सब उत्पन्न किया है – यह तो पहले प्रश्न में कह ही आए हैं । मेरे अनुसार यहां अर्थ है ’जीवात्मा’ । और यहां कहे गए ’मनोकृतेन’, और दसवें खण्ड के भाष्य में पढ़े ’यथासङ्कल्पितं लोकं नयति” से यह अर्थ प्रचलित है कि मरण-समय में जीवात्मा जैसा संकल्प करता है, जहां जाने का विचार करता है, उसी शरीर, उसी स्थान को प्राप्त कर लेता है । यह तो वैदिक कर्मफल सिद्धान्त के पूर्णतया विरुद्ध है ! यहां ’मन के कृत अथवा संकल्प’ से यही समझना चाहिए कि जो कर्म आत्मा ने मन से संकल्प करके किए, उन्हीं से उसका अगला लोक निर्धारित होता है । जीवात्मा के तीन प्रकार के कर्म होते हैं – शारीरिक, वाचिक और मानसिक, परन्तु हम देख सकते हैं कि शेष दो का आरम्भ भी मन में ही होता है; इसलिए वे भी वस्तुतः मानसिक ही होते हैं । इस प्रकार उपनिषद् कह रहा है कि कर्मानुसार आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और उसके साथ-ही-साथ, छाया की तरह शरीर अनुप्राणित हो जाता है । महर्षि दयानन्द ने हमें बताया है कि सर्गारम्भ में सूक्ष्म शरीर हमसे संलग्न हो जाता है, जो कि प्रलय अथवा मुक्ति पर ही छूटता है; सूक्ष्म शरीर का एक घटक प्राण है । 

विस्तरभय से मैं इस प्रश्न के अन्य उत्तर नहीं दे रही हूं । उनके लिए उपनिषद् अवश्य पढ़ें !

फिर गर्गगोत्रीय सौर्यायणी ने अपना प्रश्न रखा, “इस मनुष्य-शरीर में कौन देव सोते हैं, कौन जागते हैं, कौन स्वप्न देखता है, किसको सुख होता है और किसमें सब देव सम्यक्तया स्थित होते हैं ?”

संक्षेप में, पिप्पलाद बताते हैं कि (१) सुप्तावस्था में सारी इन्द्रिय-देव मन में एकीभूत हो जाते हैं । (२) उस अवस्था में प्राण की पाँच अग्नियां जागती रहती हैं और प्राणी के पाचन आदि कार्य चलते रहते हैं । (३) स्वप्नावस्था में जीवात्मा अपनी महिमा का अनुभव करता है, अर्थात् वह ही स्वप्न देखता है, जैसा कि जागृत अवस्था में भी वही देखता है । (४) जब वह जीवात्मा, तेज से अभिभूत होकर, गाढ़ निद्रा में पहुंचता है, तब वह ही सुख का अनुभव करता है । (५) और ये सब देव परमात्मा में सम्प्रतिष्ठित होते हैं । 

इस प्रकरण में पाँच प्राणों के विभिन्न कार्यों को और निद्रा व स्वप्न अवस्थाओं को वैज्ञानिक रूप में वर्णित किया गया है, जिसमें से निद्रा-स्वप्न स्थितियां आधुनिक विज्ञान से सम्पुष्ट हैं, जबकि प्राण के विषय में आधुनिक विज्ञान मौन है । इन वर्णनों के लिए भी उपनिषद् द्रष्टव्य है ।

फिर शिवि के पुत्र सत्यकाम ने पूछा, “भगवन् ! हमने सुना है कि जो कोई मृत्युपर्यन्त ओम् का जप करता है, वह अत्यन्त सद्गति को प्राप्त करता है । वह लोक कौन-सा है जिसे वह प्राप्त करता है ?”

इस पांचवे प्रश्न पर पिप्पलाद एक रहस्यमय उपदेश देते हैं । वह है – जो मनुष्य त्रिमात्रिक ओ३म् की एक मात्रा से प्रभु का ध्यान करता है, उसे ऋग्वेद शीघ्र ही मनुष्य लोक पहुंचा देता है । वहां तप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से सम्पन्न होकर, वह महिमा को प्राप्त होता है । सम्भवतः ऋग् से यहां विज्ञान अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।

जो मनुष्य दो मात्रा से परमात्मा का ध्यान करता है, उसे यजु के मन्त्र चन्द्रलोक पहुंचा देते हैं, जहां वह विशेष सिद्धियों का अनुभव करके, पुनः पृथिवी लोक में जन्म लेता है । यह चन्द्रलोक पर आत्मा का वास कैसा होता है, इसके विषय में कुछ और वर्णन नहीं है । चन्द्रलोक पर स्वर्ग होने का उल्लेख अन्यत्र भी प्राप्त होता है । यहां, यदि शब्दों को ऐसे-का-ऐसा ही समझा जाए, तो यह वास अशरीरी होगा, जिसके कारण आत्मा को दुःख कम प्राप्त होते होंगे । फिर उसमें अपनी शक्तियां भी उजागर होती होंगी, जिनको यहां ’विभूति’ कहा गया है । और अशरीरी सृष्टि होने के कारण विज्ञान उनको ढूढ़ने में भी असमर्थ होगा । तथापि, अन्य प्रमाणों के अभाव में, उपर्युक्त अटकलें ही मानी जा सकती हैं ! सम्भवतः, यजुः से यहां यज्ञ-कर्म ग्रहण करना चाहिए ।

जो मनुष्य तीन मात्रा से ओ३म् का ध्यान करता है, वह तेज से सम्पन्न होकर सूर्यलोक को प्राप्त होता है । जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली त्याग देता है, वैसे ही यह आत्मा अपने पापों से मुक्त हो जाता है । उसे सामवेद के मन्त्र ऊपर ब्रह्मलोक ले जाते हैं, जहां वह जीवों से कहीं अधिक उत्कृष्ट परमात्मा के साक्षात् दर्शन करता है । सम्भवतः, साम से यहां उपासना का ग्रहण है ।

ओ३म् पर ध्यान के विषय में भी सभी उपनिषद् ऐकमत्य हैं कि यही सबसे परम आलम्बन है । मुमुक्षु को इसी का आश्रय लेना चाहिए ।

अन्त में, भरद्वाज का पुत्र सुकेशा पूछता है, “भगवन् ! कोसल देश के राजपुत्र हिरण्यनाभ ने एक बार मेरे पास आकर मुझसे पूछा था कि क्या तुम सोलह कला वाले पुरुष को जानते हो ? तब मैंने उससे कहा था कि नहीं, ऐसा पुरुष मैं नहीं जानता । और जो मैं जानता होता तो तुम्हें क्यों न बताता ?! झूठ बोलने वाला अवश्य ही समूल नष्ट हो जाता है । इसलिए मैं झूठ कदापि नहीं बोल सकता । ऐसा कहने पर वह राजकुमार चुपचाप रथ में बैठ के चला गया । इसलिए मैं आपसे पूछता हूं कि वह सोलह कला वाला पुरुष कौन है ?” (यहां सत्य-वचन का प्राचीन-काल में अत्यन्त महत्त्व स्पष्ट है ।)

इस पर पिप्पलाद मुनि ने एक दुर्लभ उपदेश दिया, जो कि अनेकों बार उद्धृत किया जाता है, क्योंकि यह कहीं और आज पाया नहीं जाता । महर्षि दयानन्द ने भी यजुर्वेद के मन्त्र ’…त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी ॥ यजु० ३२।५॥ की व्याख्या में ’षोडशी’=सोलह कला वाले परमात्मा का यहीं से वर्णन दिया है । पिप्पलाद ने कहा कि वह परमात्मा ही है जिसमें ये १६ कलाएं चक्र के अरे की तरह स्थित हैं । वे कलाएं हैं – प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म, लोक और नाम । यह पदार्थों की अत्यन्त विचित्र सूची लगती है । इन का महत्त्व सम्भवतः आज विरले ही समझते होंगे । इस विषय पर अवश्य ही अन्वेषण अपेक्षित है ।

उपदेश पाकर कृत्कृत्य हुए छः मुमुक्षुओं ने महर्षि पिप्पलाद को भूरि-भूरि प्रणाम किया और कहा, “आप ही हमारे पिता हैं जिसने हमको विद्या के दूसरे पार पहुंचाया ।” इससे ज्ञात होता है कि आध्यात्मिक गुरु का भारतवर्ष के वासी सदा से ही कितना आदर करते आए हैं, क्योंकि यह विद्या अतीव दुर्लभ होती है और उसको सही-सही बताने वाले और भी कम होते हैं – 

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः 

                           शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः ।

                  आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा-

                           श्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टा ॥ कठ० १।२।७ ॥

इस प्रकार प्रश्नोपनिषद् दुर्लभ ज्ञान का भण्डार है और सब अध्यात्म-जिज्ञासुओं के द्वारा पठितव्य है । जबकि इसके कुछ अंश पूर्णतया आज समझे नहीं जाते, तथापि इसमें अन्य इतने महत्त्वपूर्ण अंश हैं कि इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । मैंने यहां केवल दिग्दर्शन-मात्र दिया है । सम्पूर्ण उपनिषद् आप अवश्य पढ़ें !