प्रश्नोपानिषद् में प्रथम प्रश्न का रहस्य

प्रश्नोपनिषद् में प्रथम प्रश्न के उत्तर में महर्षि पिप्पलाद एक विचित्र उत्तर देते हैं जिसका सम्बद्ध अर्थ करना कठिन हो जाता है । मैंने किसी भी भाष्य में उसके निहित अर्थ का विवरण नहीं पाया । मेरी समझ में जो उसका अर्थ आया है, उसको इस लेख में निरूपित कर रही हूं ।

प्रश्न उपनिषद् में प्रसिद्ध ऋषि पिप्पलाद का उपदेश एक कथानक के रूप में उपलब्ध होता है । एक समय, छः ब्रह्मजिज्ञासु, जो कि स्वयं वेदवित् थे, फिर भी ब्रह्म की जिन्हें खोज थी, पिप्पलाद मुनि की इस विषय में प्रसिद्धि सुन कर, विधिवत् हाथ में समिधा लेकर उनके आश्रम पहुंचे । जैसा कि उस समय प्रथा थी, पिप्पलाद ने उनको वर्षभर आश्रम में तप, ब्रह्मचर्य व श्रद्धा का पालन करते हुए आश्रम में रहने को कहा और यह भी कहा कि फिर तुम मुझसे अपने प्रश्न पूंछ लेना, यदि मैं उनके उत्तर जानता होऊंगा, तो अवश्य ही सब बता दूंगा । यह वचन महर्षि की विनम्रता का द्योतक है ।

वर्षोपरान्त, प्रतिज्ञानुसार, महर्षि आए हुए जिज्ञासुओं की इच्छापूर्ति के लिए उद्यत हुए । तो कबन्धी कात्यायन ने प्रथम प्रश्न पूछा, “भगवन् ! ये विभिन्न रूपों वाली प्रजाएं (जीव) किस कारण से उत्पन्न हुईं हैं ?” इसके उत्तर में जो ऋषि बोले, वह बड़ा ही दुरूह है और उत्तरोत्तर वाक्य असम्बद्ध जैसे लगते हैं । पहले हम प्रसिद्ध व्याख्या को देखते हैं । अनन्तर मेरे विचार प्रस्तुत हैं –

तस्मै  स  होवाच  प्रजाकामो  वै  प्रजापतिः । स  तपोऽतप्यत । स  तपस्तप्त्वा  स  मिथुनमुत्पादयते । रयिं  च प्राणं  चेत्येतौ  मे बहुधा  प्रजाः  करिष्यत  इति ॥ १।४॥

अर्थात्  उस (कबन्धी) से वे (पिप्पलाद) बोले, “प्रजाओं के पालक ने प्रजा की कामना की । इसके लिए उसने तप (रूपी संकल्प) किया । उस तप से तपकर, उसने एक जोड़े को उत्पन्न किया । वह था रयि (धन) और प्राण (जीवनी-शक्ति) का जोड़ा । ये दोनों मेरी/मेरे लिए अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न करेंगे (यह उसने संकल्प किया) ।” 

यहां स्थूलभूतों को रयि माना गया है और चेतना-शक्ति को प्राण । परन्तु चेतना-शक्ति तो जीवात्मा है, प्राण अपने-आप में तो चेतन नहीं हैं ! तो फिर प्राण को भौतिक प्राण न मानकर, आत्मा समझना चाहिए । वैसे तो प्राण सूक्ष्म शरीर का अवयव है, तथापि, क्योंकि जीवात्मा की स्थिति ही प्राणों को प्रेरित करती है, इसलिए जीवात्मा को प्राण कहने में पुरानी पद्धति में दोष नहीं माना जाता था । अब रयि को यदि केवल स्थूलभूत मानें , तो फिर बुद्धि, मन, इन्द्रिय, आदि, सूक्ष्मभूतों को कहां गिनें ? सो, उनको भी रयि में गिनना चाहिए । और ये प्रकृति के कार्य ही जीवात्मा के धन होते हैं, चाहे वह सुवर्णादि हों, चाहे पशुधनादि हों, चाहे विद्याबुद्धि आदि हों । इसलिए इन सब कार्यों को रयि कहने में भी कोई दोष नहीं । इस प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि प्राकृतिक कार्यों और जीवात्माओं की बनी है – यह पिप्पलाद मुनि का उपदेश हुआ । 

आगे पिप्पलाद कहते हैं –

आदित्यो  ह  वै  प्राणो  रयिरेव  चन्द्रमा  एतत् सर्वं  यन्मूर्तं  चामूर्तं  च  तस्मान्मूर्तिरेव  रयिः ॥१।५॥

अर्थात् निश्चय से, आदित्य ही प्राण है । और रयि  ही चन्द्रमा है, जो कि सब मूर्त और अमूर्त वस्तुएं है; इसलिए मूर्ति = मूर्त पदार्थ ही रयि हैं । 

यहां से पिप्पलाद के कथन की विचित्रता प्रारम्भ हो जाती है । पहले तो स्पष्टतः ही यहां वचनविघात प्रतीत होता है – चन्द्रमा को रयि कहा, उसको मूर्त और अमूर्त कहा, फिर केवल मूर्त कह दिया ! इसीसे यह ऊहा कर लेनी चाहिए कि इस उपनिषद् में वचन सीधे-सरल नहीं हैं, कुछ सोच-विचार की अपेक्षा रखते हैं । तथापि यहां सामान्य अर्थ पहले देखते हैं – यहां आदित्य के अर्थ  दृष्ट सूर्य किए जाते हैं, और चन्द्रमा के दृष्ट चांद । तब अर्थ बनता है – सूर्य जीवन का आधार है, इसलिए वह प्राणस्वरूप है । चांद प्राणियों के शरीरों का पोषण करता है, इसलिए वह रयिस्वरूप है । यहां, पहले तो चांद शरीर का पोषण कोई विशेष रूप से नहीं करता, प्रत्युत सूर्य ही प्राणियों का मुख्य पोषक है – पेड़ों से लेकर मनुष्यों तक । दूसरे, पिछले वचन में हमने प्राण को आत्मा माना था, परन्तु आत्मा तो सूर्य पर निर्भर नहीं है । तथापि जीवके लिए आवश्यक होने के कारण, हम कुछ क्षण के लिए इसे प्राण मान भी लें, तब भी चांद की समस्या बनी रहती है ।

विचारने पर मुझे समझ में आया कि वस्तुतः यहां ‘आदित्य’ व ‘चन्द्रमा’ के यौगिक अर्थ हैं, लौकिक नहीं जिनका कि उपर्युक्त अर्थ में प्रयोग किया गया था । आदित्य की व्युत्पत्ति इस प्रकार हुई है – तोड़ने के अर्थ वाली ‘दो अवखण्डने’ धातु से नञ् + क्विप् + इत् (द्यतिस्यति० ॥अष्टा० ७।४।४०॥ सूत्रेण) ->अदितिः + ण्य (दित्यादित्यादित्य० ॥अष्टा०४।१।८५॥ सूत्रेण) -> आदित्य । अर्थात् आदित्य का अर्थ है ‘जिसको तोड़ा न जा सके, नष्ट न किया जा सके, वह’ । क्योंकि आत्मा को नष्ट नहीं किया जा सकता, परिणाम-रहित होने से जो खण्डन- वा नाश-रहित है, सो आत्मा को पिप्पलाद ‘आदित्य’ कह रहे हैं, सूर्य से सम्बद्ध होने के कारण नहीं ! इसी प्रकार चन्द्रमा की व्युत्पत्ति देखते हैं – आह्लाद व दीप्ति अर्थ वाली ‘चदि आह्लादने दीप्तौ च’ + रक् प्रत्यय (स्फायितञ्जिवञ्चि० ॥उणादि० २।१३॥ सूत्रेण) + ‘माङ् माने शब्दे च’ + असि प्रत्यय (चन्द्रे मो डित् ॥उणादि० ४।२२८॥ सूत्रेण) -> चन्द्रमस् । इस प्रकार आह्लादजनक अथवा दीप्तिमान वस्तु को ‘चन्द्रमा’ कहेंगे । इस सन्दर्भ में पहला अर्थ ही उपयुक्त है – धन इसलिए धन कहा जाता है कि वह आह्लाद या सुख उत्पन्न करता है । इसलिए पिप्पलाद ने रयि को चन्द्रमा कहा है । हां, अवश्य ही यहां सूर्य और चांद के नामों से समानता के कारण, और सूर्य-चांद की जोड़ी सुप्रसिद्ध होने के कारण यहां श्लेषालङ्कार से अर्थ को छिपाकर केवल ज्ञानियों के लिए यह विद्या उपलब्ध हो, इसलिए ऐसी वाक्य-रचना की गई है, ऐसा प्रतीत होता है ।

आगे पिप्पलाद कहते हैं –

अथादित्य  उदयन्  यत्  प्राचीं  दिशं  प्रविशति  तेन  प्राच्यान्  प्राणान्  रश्मिषु  सन्निधत्ते । यद्दक्षिणां  यत् प्रतीचीं  यदुदीचीं  यदधो  यदूर्ध्वं  यदन्तरा  दिशो  यत्  सर्वं  प्रकाशयति  तेन  सर्वान्  प्राणान्  रश्मिषु  सन्निधत्ते ॥१।६॥

अर्थात् फिर आदित्य उदय होता हुआ जो प्राची दिशा में प्रवेश करता है, उससे प्राची दिशा के प्राणों को रश्मियों में धारण करता है । जो दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, नीचे, ऊपर व उनके बीच की दिशाओं अर्थात् सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है, उस द्वारा सारे प्राणों को रश्मियों में धारण करता है ।

पुनः यहां दृष्ट सूर्य के अर्थ ही प्रतीत होते हैं कि जहां-जहां सूर्य की किरणें पहुंचती हैं, वहां-वहां जीवनी-शक्ति उपलब्ध होती है । परन्तु इसमें तो कुछ भी विशेष नहीं है ! दूसरी ओर, यदि हम जीवात्मा के अर्थ लें, तो एक नया ज्ञान प्राप्त होता है – अविनाशी जीवात्मा जब शरीर में आगमन करता है, तो वह शरीर के विभिन्न अंगों में ‘रश्मियों’ के द्वारा प्राणों को धारणा करता है और सम्पूर्ण शरीर को ज्ञानयुक्त कर देता है, वा सम्पूर्ण शरीर का ज्ञान उसे होने लगता है । यहां ‘रश्मि’ का बहुत विशेष अर्थ है । सामान्य अर्थ ‘किरण’ तो सभी को ज्ञात है, परन्तु इसका एक विशेष अर्थ है – लगाम । इस शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार है – अशूङ् व्याप्तौ अथवा अश भोजने + मि प्रत्यय + अ को रश् आदेश (उणादि० ४।४६) और “रश्मिः यमनात्  (निरु० २।१५)” अर्थात् नियन्त्रक । एक और विचित्र अर्थ शतपथ ब्राह्मण में मिलता है – अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत् ते रश्मयोऽभवन् ॥श० ६।१।२।३॥ – और जो सिर में रस से लिप्त था, वह रश्मियां हो गया । यहां खोपड़ी के अन्दर के जल से लिपटे मस्तिष्क और उसमें से किरणों के समान सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होने वाली विद्युत्-युक्त नाड़ियों का कथन है । इन नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क पूरे शरीर को नियन्त्रित करता है, जैसे घोड़ों को लगाम से किया जाता है । इस अर्थानुसार, उपनिषद् वाक्य में कहा गया है कि जीवात्मा मस्तिष्क में घर करके, मस्तिष्क और उसकी नाड़ियों द्वारा पूरे शरीर में जैसे व्याप्त होकर, उसे धारण करता है और अपने आदेशानुसार चलाता है । यह हुआ इसका श्लेषालंकार द्वारा प्रस्तुत विशेष अर्थ !

अब देखते हैं अगला वाक्य –

स  एष  वैश्वानरो  विश्वरूपः  प्राणोऽग्निरुदयते । तदेतदृचाभ्युक्तम् ॥१।७॥

अर्थात् वह यह वैश्वानर, विश्वरूप प्राण(-रूपी) अग्नि उदय होती है, ऐसा इस अगली ऋचा में कहा गया है ।

यहां सूर्य के अर्थ में इस प्रकार व्याख्या की जाती है – प्राणियों के शरीरों में सूर्य ही वैश्वानर अग्नि = जठराग्नि का कारण है, वही विश्वरूप प्राण = पञ्च प्राणों के रूप में विद्यमान है । यहां ‘वैश्वानर’ पद को दो पदों के अवसान पर आने वाले ‘अग्नि’ पद से जोड़ा गया है । इस प्रकार की वाक्य-रचना सम्यक् नहीं मानी जा सकती ! पुनः, सूर्य को जठराग्नि से जोड़ना कुछ अटपटा लगता है – कुछ जीवों में तो जठराग्नि होती भी नहीं, जैसे कि वृक्ष ! 

आत्मा-रूप में यहां पुनः सुन्दर अर्थ निकलते हैं – आत्मा सभी नरों = मनुष्यों अथवा प्राणियों में विद्यमान होने से ‘वैश्वानर’ है । वह सब शरीरों का रूप धारण करने में सक्षम होने से ‘विश्वरूप’ है । वह प्राण का भी ‘प्राण’ है । वह शरीर में ज्ञान उत्पन्न करने वाला ‘अग्नि’ है ।

जिस ऋचा का ऋषि ने आगे कथन किया है, वह भी इस अर्थ की सम्पोषक है –

विश्वरूपं  हरिणं  जातवेदसं

         परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम् ।

सहस्ररश्मिः  शतधा  वर्तमानः

         प्राणः  प्रजानामुदयत्येष  सूर्यः ॥१।८॥

अर्थात् विश्वरूप, (हरिणम्=) शरीर को गति देने वाला, (जातवेदसम् =) सब जन्म लेने वाले जीवों में प्राप्त, (परायणम् =) शरीर का आधार, (ज्योतिः एकम् =) सब ज्ञानों का एक आधार, तपता हुआ (शरीर को तपाने वाला), अनेकों नाड़ियों से अनेकों प्रकारों से शरीर में वर्तमान (विद्युत्-नाड़ी, रक्त-नाड़ी, आदि, आदि), प्रजाओं का प्राण, यह सूर्य = प्रेरक उदय होता है । 

अगला वाक्य है –

संवत्सरो  वै  प्रजापतिस्तस्यायने  दक्षिणं  चोत्तरं  च  तद्ये  ह  वै  तदिष्टापूर्ते  कृतमित्युपासते  ते  चान्द्रमसमेव लोकमभिजयन्ते । त  एव  पुनरावर्तन्ते  तस्मादेत  ऋषयः  प्रजाकामा  दक्षिणं  प्रतिपद्यन्ते । एष  ह  वै  रयिर्यः  पितृयाणः ॥१।९॥

अर्थात् संवत्सर ही प्रजापति है । उसके दक्षिण और उत्तर अयन हैं । जिन्होंने इष्ट (यज्ञादि) व/अथवा पूर्त (सार्वजनिक अथवा वैयक्तिक) परोपकार कर्म किए हैं, वे चन्द्रमा-लोक को जीतते हैं । वहां से वे पुनः लौटते हैं (सांसार में जन्म लेते हैं) । इस प्रकार, जो प्रजा (परिवार आदि) की कामना करने वाले ऋषि हैं, वे दक्षिण अयन पर चलते हैं । यही रयि है जो पितृयाण कहलाता है ।

यहां स्पष्ट हो जाता है कि यहां ‘संवत्सर’ का लौकिक अर्थ ‘वर्ष’ प्रयुक्त नहीं हुआ है, अपितु कुछ अन्य अर्थ अभिप्रेत है । जब हम यौगिक अर्थ ढूढ़ते हैं, तब हमें वह गूढ़ अर्थ प्राप्त होता है । संवत्सर की निष्पत्ति इस प्रकार है – सम् + वस निवासे + सरन्  प्रत्यय (उणादि० ३।७२) + तकारादेश (अष्टा० ७।४।४९) -> संवत्सर । इस ‘सम्यक् वास’ अर्थ को निरुक्त और स्पष्ट करता है – संवसन्तेऽस्मिन् भूतानि – जिस (परमात्मा) में सब उत्पन्न पदार्थ भली प्रकार वसते हैं, इसलिए उसका नाम संवत्सर है । वही परमात्मा यहां प्रजापति नाम से कहा गया है । उसके जैसे दो पार्श्व हैं – एक में रयि है, एक में प्राण । रयि पितृयाण से सम्बद्ध है जिसमें धनों द्वारा विभिन्न सांसारिक भोगों की प्राप्ति होती है । 

प्राण के विषय में ऋषि कहते हैं –

अथोत्तरेण  तपसा  ब्रह्मचर्येण  श्रद्धया  विद्ययात्मानमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते । एतद्वै  प्राणानामायतनमेतदमृतमभयमेतत्  परायणमेतस्मान्न  पुनरावर्तन्त  इत्येष  निरोधस्तदेष  श्लोकः ॥१।१०॥

अर्थात् उनसे अन्य (ऋषि) उत्तर अयन से गति करते हुए, तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, विद्या द्वारा अपनी आत्मा को ढूढ़कर, आदित्य को सेवते हैं । यह (आदित्य) ही प्राणों का आयतन = परम पद है, अमृत (पद) है, अभय (पद) है, परम आश्रय है । उससे फिर वह (जीवात्मा) लौट कर नहीं आता । यह (जन्म-मरण चक्र का) निरोध है ।

यहां पुनः स्पष्ट हो जाता है कि सूर्य का उत्तरायण तो होता है, परन्तु उसकी यहां चर्चा नहीं हो रही, अपितु आत्मा की गति का विषय है । सो, जब वह आत्मा तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या में परिश्रम करता है, तब मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

ऋषि का वचन यहीं पर समाप्त नहीं होता, इसके आगे ६ वाक्य और हैं । विस्तरभय से मैं उनका विवरण यहां नहीं दे रही हूं । मुझे आशा है कि उपर्युक्त पद्धति के अनुसार आप स्वयं उनके अर्थ कर सकेंगे ।  सार में, प्रश्नोपनिषद् के इस प्रथम अध्याय में हम पाते हैं कि इस ब्रह्माण्ड के दो भाग बताए गए हैं – एक संसार जहां जीवन-मरण और भोग का चक्र चलता रहता है, और दूसरा मुक्तात्माओं का वास है जहां दुःख से छुटकारा होता है । इन दोनों में परमात्मा का कर्म विद्यमान है । इसलिए ये दो उसके दो अयन कहे गए हैं । यहां श्लेषालंकार द्वारा मूल विषय को जैसे ढक दिया गया है और सतह पर प्राण-रयि व सूर्य-चन्द्र का ग्रहण होता है । परन्तु ये विषय गौण हैं, इनका आध्यात्मिक परिपेक्ष में कम ही समन्वय है । उपनिषत्कार इसी प्रकार अनेक बार अपने तात्पर्य को गूढ़ कर देते हैं, सम्भवतः इस विद्या को कुपात्र से सुरक्षित रखने के लिए, क्योंकि कई उपनिषद् स्पष्टतः कहते हैं कि इस विद्या को दुर्जनों को न दें । जैसे ऊपर प्रदर्शित किया गया, सही अर्थ तक पहुंचने के लिए यौगिक अर्थों का आश्रय कभी-कभी समीचीन होता है ।