बृहदारण्यकोपनिषद् का परिचय

अपने नाम के अनुसार, बृहदारण्यक-उपनिषद् सब उपनिषदों में सबसे बृहद् आकार वाला है । वास्तव में, यह सबसे प्रसिद्ध ब्राह्मण-ग्रन्थ, शतपथ ब्राह्मण, का १४वां काण्ड है । ब्राह्मण का भाग होते हुए भी इसका नाम ’आरण्यक’ (जो कि अन्य ग्रन्थ होते हैं) क्यों है, यह चिन्तनीय है । शतपथ में तो कर्मकाण्ड विषय की प्रधानता है, परन्तु इस भाग को उपनिषद् इसीलिए माना गया है कि इसमें आत्मा-परमात्मा पर अधिक विचार है । तथापि यह उपनिषद् अन्यों से विशिष्ट इसलिए है कि इसमें अध्यात्म विषय के साथ-साथ कर्मकाण्ड भी कुछ विस्तार से है । यहां तक कि गृहस्थ-कर्म का भी यहां विवरण पाया जाता है, जिसे पाश्चात्य व्याख्याकारों ने अश्लील घोषित किया । यह यजुर्वेद का उपनिषद् है, और उस वेद की काण्व व माध्यन्दिन शाखाओं में प्राप्त होता है । श्रीमत्शंकराचार्य ने आधुनिक युग में इस उपनिषद् को प्रतिष्ठा दी । उन्होंने काण्व शाखा पर भाष्य लिखा । सो, काण्व शाखा के पाठ को ही प्रायः उपनिषद रूप में पाया जाता है । उपनिषद् छः अध्यायों में बंटा हुआ है, जो कि ’ब्राह्मण’ नाम के भागों में विभाजित हैं, और उनमें ’कण्डिका’ नाम से वाक्य हैं ।

यह उपनिषद् अति प्राचीन तो है ही, सम्भवतः इसीलिए इसके रचयिता का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता है । एक मान्यता है कि ऋषि याज्ञवल्क्य इसके रचयिता थे, परन्तु उपनिषद् में उनका ग्रहण प्रथम पुरुष में पाया जाता है । दूसरी ओर, महर्षि याज्ञवल्क्य के अनेक प्रसंग इस उपनिषद् में वर्णित हैं । इससे प्रतीत होता है कि सम्भवतः उनके शिष्यों ने इसका सृजन किया हो ।

छान्दोग्य उपनिषद् से इसका बहुत साम्य है और अनेक प्रकरण थोड़े से पाठभेद के साथ यहां भी पाए जाते हैं । छान्दोग्य के ही समान, यहां अनेकों कथाएं वर्णित हैं जो कि सम्भवतः ऐतिहासिक हैं । याज्ञवल्क्य की महानता को सिद्ध करने वाले अनेकों शास्त्रार्थों का यहां विवरण पाया जाता है, विशेषकर राजा जनक की सभा में होने वालों का, जिसमें गार्गी का भी उल्लेख मिलता है । याज्ञवल्क्य का अपनी पत्नी मैत्रेयी के साथ संवाद अत्यन्त लोकप्रिय है । उसी के एक अंश को हम आगे देखेंगे । प्राकृतिक देवों के विषय वाले प्रकरण प्रायः दुर्ग्राह्य हैं । छान्दोग्य के ही समान, अनेक बार राजा ही ऋषियों को प्रवचन देते हुए पाए जाते हैं । इससे जान पड़ता है कि प्राचीन भारत में राजा कितने विद्याभिलाषी और ज्ञानी हुआ करते थे । सम्भवतः, सम्पूर्ण विश्व में ऐसे राजा कभी नहीं पाए गए हों, जो कि विद्वानों को सिखाया करते हों और जिनसे विद्वान् सीखने आते हों ! इस सब से यह भी प्रतीत होता है कि छान्दोग्य और बृहदारण्यक के काल में सम्भवतः विशेष भेद न हो ।

बृहदारण्यक में कई विषय पुनः पुनः प्राप्त होते हैं, जैसे कि 

  • सृष्ट्युत्पत्ति, जो कि विभिन्न प्रकारों से वर्णित है । इनमें से एक वर्णन से ही प्रेरित होकर बाइबल में जैनेसिस और आदम-हउआ का प्रकरण लिखा गया, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है ।
  • इन्द्रिय-प्राण-विवाद, जो कि दो बार वर्णित है ।
  • मैत्रेयी-संवाद, जो कि दो बार कहा गया है ।
  • उपनिषद् की ॠषि-परम्परा, जो कि तीन बार वर्णित है, और एक बार पिता के नाम से नहीं, अपितु माता के नाम से ऋषियों को कहा गया है, जिससे पुनः हमें स्त्रियों की तत्कालीन समाज में प्रतिष्ठा का अनुमान होता है ।

इस प्रकार इस उपनिषद् में कुछ पुनरुक्ति भी प्राप्त होती है । छान्दोग्य के समान प्रकरणों के साथ-साथ, यहां ईशोपनिषद् अर्थात् यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के कुछ मन्त्र जैसे के तैसे उद्धृत हैं ।

उपनिषद् के कुछ प्रसिद्ध प्रकरण इस प्रकार हैं –

  • वेदान्तियों का अत्यन्त प्रिय ’अहं ब्रह्मास्मि’ का उपदेश (जिस प्रकार छान्दोग्य का भी ’तत्त्वमसि’ उपदेश अद्वैतवाद की नींव है)
  • ’असतो मा सद्गमय’ का उपदेश
  • ’आदेशो नेति नेति’ का उपदेश
  • लोक में तीन ऐषणाओं का वर्णन
  • मैत्रेयी-संवाद में आत्मा को जानना ही सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य होने का उपदेश 

इस अन्तिम को हम कुछ विस्तार से देखते हैं । याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं – मैत्रेयी और कात्यायनी । उनमें से मैत्रेयी का अध्यात्म की ओर रुझान था । एक बार, याज्ञवल्क्य ने संन्यास लेने की ठानी । उन्होंने दोनों पत्नियों को बुलाया और कहा, “चलो, तुम दोनों के बीच जो कुछ मेरे पास है, उसका बंटवारा कर दूं । फिर मैं निकल पड़ूं ।” तो, मैत्रेयी ने पूछा, “हे भगवन् ! यदि यह सारी पृथिवी धन से पूर्ण हो जाए, तो क्या मुझे अमृतत्व प्राप्त हो जायेगा?” याज्ञवल्क्य बोले, “नहीं, केवल एक धनी मनुष्य के समान तुम्हारा जीवन हो जाएगा; (अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन) धन से अमृतत्व की तो आशा नहीं की जा सकती ।” मैत्रेयी ने कहा, “जिससे मैं अमृता न हुई, उसका मैं क्या करूंगी ? आप इस विषय में जो जानते हैं, उसे मुझसे कहिए ।” मैत्रेयी के ये वचन सुनकर, याज्ञवल्क्य गदगद हो गए और उन्होंने उसको उपदेश देना प्रारम्भ किया – (न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति) “अरे मैत्रेयि ! पति की कामना के लिए पति प्रिय नहीं होता, अपितु अपनी कामना के लिए पति प्रिय होता है ।” – अर्थात् शरीरस्थ जीवात्मा की शरीरानुसार कामनाएं होती हैं, जिसके कारण वह किसी वस्तु की कामना करती है; उस वस्तु के लिए अथवा उस वस्तु से किसी सम्बन्ध के कारण वह वस्तु प्रिय नहीं लगती । इसी प्रकार आगे याज्ञवल्क्य पत्नी, पुत्र, धन, ब्रह्म = ज्ञान, क्षत्र = बल, लोक = राज्य/राजनैतिक शक्ति, देव = विद्वान्, भूत = सृष्ट जगत् और अन्ततोगत्वा सभी पदार्थों में इसी प्रकार की स्वार्थता बताते हैं । फिर जो वे कहते हैं, वह जैसे उपनिषद् का सार है –

आत्मा  वा  अरे  दृष्टव्यः  श्रोतव्यो  मन्तव्यो  निदिध्यासितव्यो  मैत्रेय्यात्मनो  वा  अरे  दर्शनेन  श्रवणेन  मत्या विज्ञानेनेदं  सर्वं  विदितम् ॥ बृहदा० २।४।५॥

अर्थात् अरे ! वह आत्मा (जो उपर्युक्त सारी कामनाएं करती है), वही देखने योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है, निदिध्यासन (साक्षात्) करने योग्य है । अरे मैत्रेयि ! आत्मा के दर्शन से, श्रवण से, मनन से, विज्ञान से सब जान लिया जाता है ।

वस्तुतः, हम सम्पूर्ण जीवन संसार के भोगों में निकाल देते हैं, उन सभी की कामना में व्यतीत कर देते हैं, परन्तु जिसको प्राप्त करने में हमें सबसे अधिक परिश्रम करना चाहिए, जिसको पा लेने से सब प्राप्त हो जाता है, जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है, वह तो हम स्वयं हैं ! और वह परब्रह्म है, जिसकी थोड़ी झलक से ही हम कृतार्थ हो जाते हैं ! जब हम आत्मा को संयत करके समाधि लगाते हैं, तब अपने को पाने के साथ-साथ उस परम परमात्मा को भी थोड़ा देख लेते हैं । तब इन भूतों की, इस शरीर की, इन शारीरिक सम्बन्धों की कोई महत्ता नहीं रह जाती और जीवात्मा अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है; मैत्रेयी न जिस अमृतत्व को पूछा था, उसे प्राप्त कर लेता है ।

इस उपनिषद् में गायत्री छन्द की भी एक मनोहारी व्याख्या प्राप्त होती है । गायत्री छन्द तीन पादों वालों छन्द है, जिसके प्रत्येक पाद में ८ अक्षर होते हैं, सो सब मिलाकर २४ अक्षर होते हैं । इस छन्द का सबसे प्रसिद्ध मन्त्र है – तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचो दयात् ॥ इसके प्राधान्य के कारण व्याख्याकारों ने इसी मन्त्र को इस प्रकरण में ग्रहण किया है, परन्तु मुझे लगता है कि यह गायत्री छन्द की विशिष्टता को दर्शा रहा है, किसी विशेष मन्त्र की नहीं । निर्णय आप स्वयं करें, उपनिषद्-वचन तो इस प्रकार है –

भूमिरन्तरिक्षं  द्यौरित्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं  ह  वा  एकं  गायत्र्यै  पदम् … ॥बृहदा० ५।१४।१॥

(गायत्री के पहले पाद में) भूमि, अन्तरिक्ष और द्यौ – ये आठ अक्षर हैं, क्योंकि निश्चय से गायत्री के पाद में आठ ही अक्षर होते हैं । 

ये ८ इस प्रकार हैं – भू, मिः, अन्, त, रिक्, षम्, दि, औ (सम्प्रसारण करके) । अर्थात् छन्द के पहले पाद में जैसे तीनों लोक समाए हुए हैं ।

ऋचो  यजूँषि  सामानीत्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं  ह  वा  एकं  गायत्र्यै  पदम् … ॥बृहदा० ५।१४।२॥

(गायत्री के दूसरे पाद में) ऋक्, यजुः और साम नाम की तीन प्रकार की ऋचाएं आठ अक्षर हैं, क्योंकि निश्चय से गायत्री के पाद में आठ ही अक्षर होते हैं । 

ये आठ अक्षर इस प्रकार बनते हैं – ऋ, चः, य, जूं, षि, सा, मा, नि । अर्थात् छन्द के दूसरे पाद में जैसे सम्पूर्ण वेद समाए हुए हैं ।

प्राणोऽपानो  व्यान  इत्यष्टावक्षराण्यष्टाक्षरं  ह  वा  एकं  गायत्र्यै  पदम् … ॥बृहदा० ५।१४।३(क)॥

(गायत्री के तीसरे पाद में) प्राण, अपान, व्यान – ये ८ अक्षर हैं, क्योंकि निश्चय से गायत्री के पाद में आठ ही अक्षर होते हैं । ये आठ अक्षर इस प्रकार बनते हैं – प्रा, णः, अ, पा, नः, वि, आ (सम्प्रसारण करके), नः । अर्थात् छन्द के तीसरे पाद में जैसे जीवनदायी प्राण, अपान व व्यान समाए हुए हैं । 

आगे गायत्री के अदृश्य चतुर्थ पाद का ऋषि अत्यन्त सुन्दर वर्णन करते हैं – 

… अथास्या  एतदेव  तुरीयं  दर्शतं  पदं  परोरजा  य  एष  तपति । यद्वै  चतुर्थं  तत्  तुरीयं । दर्शतं  पदमिति ददृश  इव  । ह्येष  परोरजा  इति  सर्वमु  ह्येवैष  रज  उपर्युपरि  तपति … ॥बृहदा० ५।१४।३(ख)॥

फिर इस गायत्री का यह तुरीय पाद है जो कि ’दर्शत’ है और ’परोरजा’ है और जो यह तप रहा है । ’तुरीय’ का अर्थ है चतुर्थ । ’दर्शत’ पाद का अर्थ है ’दिखता-सा’ । और यह निश्चय से ’परोरजा’ है क्योंकि यह ’रज’, जो कि यह सारा उत्पन्न संसार है, उसके ऊपर-ऊपर तप रहा है, चमक रहा है । 

यह परमात्मा का वर्णन है । छन्द के उत्तर जो अवसान होता है, उसका भी अर्थ है – वह परमात्मा का ग्रहण कराता है – वह परमात्मा, जो उपासना में ’दिखता-सा’ है और सभी पदार्थों से भिन्न होता हुआ, उनके ऊपर शासन करता हुआ, विराजमान होता है । वही सबसे उच्च लक्ष्य है, उसे ही गायत्री प्राप्त कराना चाहती है ।

इस प्रकार, गायत्री में भौतिक सृष्टि, वेद और सब प्राणी तो सम्मिलित हैं ही, परन्तु अन्ततः वह परमात्मा का ही बोध कराने को प्रवृत्त होती है । आगे आचार्य गायत्री पद का अर्थ भी समझाते हैं –

… सा  हैषा  गयाँस्तत्रे  प्राणा  वै  गयास्तत्प्राणाँस्तत्रे । तद्यद्गयाँस्तत्रे  तस्माद्गायत्री  नाम । स  यामेवामूँ  सावित्रीमन्वाहैषैव  सा  स  यस्मा  अन्वाह  तस्य  प्राणाँस्त्रायते ॥ ॥बृहदा० ५।१४।४॥

वह यह गायत्री (गय=) प्राणों की (तत्रे=) रक्षा करती है । क्योंकि वह प्राणों की रक्षा करती है, इसलिए इसका नाम गायत्री है । जो इस सविता देव वाली सावित्री (= गायत्री का अपर नाम) के वास्तविक अर्थ को जानकर उसको कहता है, वही यह गायत्री जिसके प्रति कही जाती है, उसके प्राणों की रक्षा करती है । अर्थात् इस विद्या को देने से धर्म का प्रचार होता है, जिससे कि मनुष्य के दुःख कटते हैं और प्राण = आयु और अन्य सुखों में वृद्धि होती है ।

जिस प्रकार माण्डूक्य में ओम् के ’अ, उ, म्’ अक्षरों के बाद अवसान को परमात्मा का प्रज्ञानघन स्वरूप बतलाया गया था, उसी प्रकार यहां भी गायत्री के बाद के अवसान को उसका चतुर्थ पाद बता कर, उसकी परमात्मा से सादृश्यता बताई गई है । 

इस प्रकार बृहदारण्यक उपनिषद् एक आध्यात्म से परिपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें कि आध्यात्म से भिन्न भी अनेक उपदेश हैं । उपनिषदों में इसका अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके कुछ अंश अब हम नहीं समझते, विशेषकर प्राकृतिक देव विषयक, तथापि इससे बहुत कुछ ग्रहण करने को शेष रहता है । अवश्य ही इस उपनिषद् का स्वाध्याय फल देने वाला है ।