मुण्डकोपनिषद् की कथा

मुण्डकोपनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत है । प्रश्न के समान, मुण्डक में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है । 

मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है । इसमें ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश ’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् में पाया जाता है । इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात हैं । इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं । उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं । अति-स्पष्ट होने से, यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए ।

उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है । इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ नहीं समझना चाहिए – नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है ।) उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी । अथर्वा ने अंगी ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया । अंगी ने उस विद्या को भरद्वाज-गोत्रीय सत्यवह नामक ऋषि को दिया, जिन्होंने अंगिरा ऋषि को यह कही । इस अंगिरा के पास एक दिन शौनक नाम के प्रसिद्ध धनाढ्य व्यक्ति विधिवत् उपस्थित हुए । उन्होंने अंगिरा से जो प्रश्न पूछा, वही इस उपनिषद् को प्रसिद्ध करने के लिए पर्याप्त है ! उन्होंने पूछा –

कस्मिन्नु  भगवो  विज्ञाते  सर्वमिदं  विज्ञातं  भवतीति ॥ मुण्डक० १।१।३ ॥

“हे भगवन् ! किसको जान लेने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है (जो सब कुछ इस संसार में है और जो नहीं भी है) ?” क्या विलक्षण प्रश्न है ! इसी पर विचार करके मन प्रफुल्लित हो जाता है !

इस प्रश्न का उत्तर ही उपनिषद् की विषय-वस्तु है । सबसे पहले अंगिरा ने जो विद्या का दो में विभाजन किया, वह अनेकों स्थलों पर उद्धृत किया जाता है, क्योंकि ऐसा विभाजन कम ही पाया जाता है –

तस्मै  स  होवाच । द्वे  विद्ये  वेदितव्ये  इति  ह  स्म  यद्ब्रह्मविदो  वदन्ति  परा  चैवापरा  च ॥ १।१।४ ॥

तत्रापरा  ऋग्वेदो  यजुर्वेदः  सामवेदोऽथर्ववेदः  शिक्षा  कल्पो  व्याकरणं  निरुक्तं  छन्दो  ज्योतिषमिति । अथ  परा  यया  तदक्षरमधिगम्यते ॥ १।१।५ ॥

अर्थात् अंगिरा ने शौनक से कहा, “ दो विद्याएं जानने योग्य हैं जिन्हें कि ब्रह्मविदों ने बताया है – एक परा, दूसरी अपरा । उनमें से अपरा (निचले स्तर की) विद्या वे है जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष में निबद्ध है । और परा (ऊंचे स्तर की) विद्या वह है जिससे अक्षर परमात्मा तत्त्वशः जाना जाता है ।” यह बहुत ही चिन्तन करने योग्य वाक्य है । हम तो यही जानते आए हैं कि, जिसको यहां अपरा विद्या कहा गया है, वही ब्रह्म तक पहुंचाती है । ऋषि ने तो एक झटके में उसको निम्न कोटि की विद्या में डाल दिया जो, वास्तव में, ब्रह्म तक नहीं पहुंचाती ! यह इसलिए है कि, इन सब ग्रन्थों का परिशीलन कर लेने के बाद भी, जिसने उपासना-समाधि नहीं की, उसने कुछ भी न जाना, न पाया – यस्तं  न  वेद  किमृचा  करिष्यति ? य  इत्  तद्विदुस्त  इमे  समासते (ऋक्० १।१६४।३९, अथर्व० ९।१०।१८)  – जिसने सब पढ़-पढ़ा कर, सब जान-समझ कर, परमात्मा को नहीं जाना, वह वेद की ऋचा से क्या कर लेगा ?! अर्थात् कुछ भी नहीं कर पाएगा । और जिन्होंने परमात्मा को जान लिया, वे उसी में समा गए । वेदों के समान ही, मुनि भी चेतावनी देते हैं कि इन सब ग्रन्थों को पढ़कर अपने को ज्ञानी, मानी, महात्मा मत समझ बैठो – 

अविद्यायामन्तरे  वर्तमानाः  स्वयं  धीराः  पण्डितं  मन्यमानाः ।

जङ्घन्यमानाः  परियन्ति  मूढा  अन्धेनैव  नीयमाना  यथान्धाः ॥ १।२।८ ॥

मूढ़ लोग, अविद्या से घिरे होते हुए भी, अपने को धीर और पण्डित समझते हुए, और इस कारण सब ओर से ठोकरें खाते हुए, उसी प्रकार इधर-उधर मण्डराते हैं जैसे कि एक अन्धे के द्वारा लिए जा रहे अन्धे ।       

इस उपनिषद् में अग्नि की लपटों को गुणानुसार विभक्त किया गया है, जो भी एक बहुचर्चित विभाजन है, परन्तु इसका वैज्ञानिक विश्लेषण अपेक्षित है –

काली  कराली  मनोजवा  च

         सुलोहिता  या  च  सुधूम्रवर्णा ।

स्फुलिङ्गिनी  विश्वरुची  च  देवी

         लेलायमाना  इति  सप्त  जिह्वाः ॥ १।२।४ ॥

अग्नि की जिह्वारूपी, लपलपाती हुई सात लपटें बताई गई हैं – काली (रंगहीन), कराली (अति उग्र), मनोजवा (स्फूर्ति वाली), सुलोहिता (लाल रंग वाली), सुधूम्रवर्णा (धुंए के रंग वाली), स्फुलिंगिनी (अंगारों वाली) और विश्वरुची देवी (सब ओर से प्रकाशित) ।

ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने के लिए उपनिषद् मार्ग बताता है –

परीक्ष्य  लोकान्  कर्मचितान्  ब्राह्मणो

         निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः  कृतेन ।

तद्विज्ञानार्थं  स  गुरुमेवाभिगच्छेत्

         समित्पाणिः  श्रोत्रियं  ब्रह्मनिष्ठम् ॥ १।२।१२ ॥

ब्रह्म की इच्छा करने वाला ब्राह्मण अच्छे कर्मों से भी प्राप्त होने वाले स्वर्गलोक के दोषों को देखकर (पिछले श्लोक का शेष), विरक्ति को प्राप्त करे, क्योंकि जो ’अकृत’ परमेश्वर है, वह कर्मों से नहीं प्राप्त होता ! उसको जानने के लिए वह समित्पाणि होकर, मन में श्रद्धा भरकर, ऐसे गुरु को प्राप्त करे जो वेदों में पारंगत हो और परमात्मा में स्थित हो ।

अन्य उपनिषदों के समान, यह उपनिषद् भी जताता है कि अच्छे कर्मों या ’निष्काम कर्मों’ से मोक्ष नहीं प्राप्त होता । उसके लिए ब्रह्म का साक्षात्कार अनिवार्य है, जिसके लिए कर्म रोककर उपासना करनी पड़ती है ।

आगे ऋषि कहते हैं –

धनुर्गृहीत्वौपनिषदं  महास्त्रं

         शरं  ह्युपासानिशितं  सन्धयीत ।

आयम्य  तद्भावगतेन  चेतसा

         लक्ष्यं  तदेवाक्षरं  सोम्य  विद्धि ॥ २।२।३ ॥

प्रणवो  धनुः  शरो  ह्यात्मा  ब्रह्म  तल्लक्ष्यमुच्यते ।

अप्रमत्तेन  वेद्धव्यं  शरवत्  तन्मयो  भवेत् ॥ २।२।४ ॥

हे सोम्य ! हे प्रिय शिष्य ! उपनिषदों में वर्णित महास्त्र धनु को उठाकर, उस पर उपासना से तेज किए हुए तीर को चढ़ा । भाव-विभोर मन से उसकी डोरी खींच और उस ही अक्षर को लक्ष्य कर वेध दे । इस उपमा को अगले श्लोक में वे स्वयं समझाते हैं – प्रणव धनुष है, आत्मा तीर है, ब्रह्म को लक्ष्य कहा गया है । प्रमादशून्य होकर उस लक्ष्य को वेधना चाहिए और तीर के समान उसमें तल्लीन हो जाना चाहिए । अत्यन्त सुन्दरता से ऋषि ने पूरी उपासना की प्रक्रिया संक्षेप से कह दी !

आगे वे और परामर्श देते हैं –

सत्येन  लभ्यस्तपसा  ह्येष  आत्मा

         सम्यग्ज्ञानेन  ब्रह्मचर्येण  नित्यम् ।

अन्तःशरीरे  ज्योतिर्मयो  हि  शुभ्रो

         यं  पश्यन्ति  यतयः  क्षीणदोषाः ॥ ३।१।५ ॥

वह परमात्मा सत्य से, तप से, सम्यक् ज्ञान से और नित्य ब्रह्मचर्य से प्राप्त होता है । जो यति, निरन्तर यत्न करते हुए, दोषों से रहित हो जाते हैं, वे उसको अपने शरीर के अन्दर (बुद्धि में) शुभ्र ज्योति के रूप में देखते हैं । क्योंकि –

सत्यमेव  जयति  नानृतं

         सत्येन  पन्था  विततो देवयानः ।

येनाक्रम्न्त्यृषयो  ह्याप्तकामा

         यत्र  तत्  सत्यस्य  परमं  निधानम् ॥ ३।१।६ ॥

सत्य ही अन्ततः जीतता है, न कि झूठ । सत्य के पथ से देवों के पथ का विस्तार होता है, जिस को पार करके ऋषि-जन कामना-रहित होते हुए, वहां पहुंच जाते हैं जहां सत्य का परम कोष है, अर्थात् परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । सत्य का महत्त्व प्रायः आजकल सब भूल गए हैं, और चारों ओर झूठ फैल गया है । परन्तु जिनको अपना उद्धार इष्ट है, उन्हें झूठ को अपने जीवन से उखाड़ना ही पड़ेगा … 

’सत्यमेव जयते’ यह प्रसिद्ध पाठ सम्यक् नहीं प्रतीत होता । पाणिनीय व्याकरणानुसार भी ’जय’ धातु में आत्मनेपद उपलब्ध नहीं है । किन ऐतिहासिक कारणों से सर्वकार द्वारा ऐसा पाठ स्वीकृत किया गया, यह मुझे ज्ञात नहीं है ।

मुनि एक और अत्यन्त सुन्दर उपमा देते हैं, जो कि स्मरणीय है –

यथा  नद्यः  स्यन्दमानाः  समुद्रे-

         ऽस्तं  गच्छन्ति  नामरूपे  विहाय ।

तथा  विद्वान्  नामरूपाद्विमुक्तः

         परात्परं  पुरुषमुपैति  दिव्यम् ॥ ३।२।८ ॥

जैसे बहती हुई नदियां अपना नाम और रूप छोड़कर समुद्र में अस्त हो जाती हैं, वैसे ही जो विद्वान् मोक्ष प्राप्त करता है, वह भी अपने नाम और रूप से मुक्त होकर, उत्तमों से उत्तम, दिव्य पुरुष को प्राप्त कर लेता है । 

यहां यह संशय हो सकता है कि यह वाक्य अद्वैत मत का मण्डन कर रहा है, क्योंकि नदी तो समुद्र में जाकर अपना अस्तित्व पूरी तरह खो देती है – क्या आत्मा भी परमात्मा में एक हो जाती है ? आगे भी वे कहते हैं – स  यो  ह  वै  तत्परमं  ब्रह्म  वेद  ब्रह्मैव  भवति (३।२।९) – अर्थात् जो भी उस परम ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है । नहीं, आत्मा अपना भिन्न अस्तित्व बनाए रखती है, परन्तु प्रकृति-जनित नाम और रूप को खो देती है – यह केवल कहने की आलंकारिक शैली है । तथापि वह अन्य मुक्तात्माओं से कैसे अपना वैशिष्ट्य बनाए रखती है, यह चिन्त्य है ।

अन्त में पुनः कहा गया है कि यह महर्षि अंगिरा का उपदेश है, जिसे कि ब्रह्मचर्यव्रत का पालन न करने वाला नहीं समझ सकता । उनके जैसे सभी परम ऋषियों को नमस्कारपूर्वक उपनिषद् समाप्त हो जाता है ।

इस प्रकार मुण्डकोपनिषद् आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए तो आवश्यक सामग्री है ही, परन्तु वस्तुतः यह अत्यन्त सुन्दर उपनिषद् सभी अध्यात्मानुरागियों के द्वारा पठितव्य है ।