मूर्तिपूजा में दोष

कुछ दिन पहले, एक सम्मेलन में, सम्भवतः मुझे पीछे खड़ा देखकर, कुछ महिलाएं राम और सीता के विषय में चर्चा करने लगीं । पहली ने कहा, “मैंने एक सुन्दर कथा पढ़ी कि जब रामचन्द्रजी युद्ध के लिए जाने वाले थे तो सीताजी फूलों की थाली लेकर मन्दिर गईं ।” आगे उन्होंने क्या चर्चा की, मुझे ज्ञात नहीं, क्योंकि मेरे मन में एक और ही चिन्तन प्रारम्भ हो गया । पहले तो मैंने सोचा, “आपने कहां यह कथा पढ़ी यह तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु अवश्य ही यह रामायण में नहीं है !” फिर मुझे कष्ट हुआ कि भारतीय समाज में कितना घोर अन्धकार फैल गया है कि कोई कुछ भी बोल दे, लिख दे, हममें सच और झूठ का स्वयं निर्णय करने का बिल्कुल सामर्थ्य ही नहीं रहा है ! कुछ इस ही पीड़ा के कारण मैं यहां अपनी लेखनी उठा रही हूं ।

पहले तो मूर्तिपूजा की वैदिकता के विषय में विचार करते हैं । जो वेद, दर्शनशास्त्र, आदि, के उपदेशों से नहीं भी परिचित हैं, उन्हें भी रामायण व महाभारत की कथाएं तो ज्ञात हैं, और सम्भवतः यह भी कि उस समय वैदिक विधि-विधान ही प्रचलित थे, चाहे थोड़े विकृत ही सही । यदि नहीं ज्ञात हैं, तो ऊपर जैसे विक्षिप्त ग्रन्थों से ज्ञान न प्राप्त करते हुए, अमर चित्र कथा की कामिक्स ही पढ़ लें ! इन दो ग्रन्थों में हम क्या पाते हैं ? यह कि जब भी कोई विशेष कार्य करना होता था, तो यज्ञ किया जाता था । दशरथ ने जब पुत्र की कामना से ऋष्यशृङ्ग को नियुक्त किया, तो बहुत विशाल यज्ञ आयोजित हुआ, जो कई दिनों तक चला, जिसमें देश-विदेश के राजाओं ने भाग लिया । जब राम को राज्य की सीमाएं बढ़ानी थीं, तब अश्वमेध यज्ञ किया गया । इसी प्रकार राज्याभिषेक, नामकरण, आदि, आयोजनों में प्रधान रूप से यज्ञ किया जाता था । क्या रामचन्द्र जी कभी मन्दिर गए? क्या सीताजी ने कभी मन्दिर की सीढ़ियों पर माथा टेका? यदि नहीं, तो क्या ये सब मूर्ख थे कि इनको इतना भी ज्ञात नहीं था कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदि, के मन्दिर में फूल, मिष्टान्न, आदि से परमात्मा को रिझाने से काम पूर्ण हो जाता है?

प्रश्न – अच्छा जी, मान लिया कि इन ग्रन्थों में मन्दिरों के वर्णन नहीं पाए जाते, परन्तु नारद, इन्द्र, अग्नि, वायु, आदि, देवों की कहानियां तो मिलती हैं । सो, उनकी पूजा करनी ही चाहिए । उत्तर – हां, कुछ ऐसी कथाएं प्राप्त होती हैं । प्रमाणों के अभाव में, उन्हें प्रक्षिप्त नहीं भी मानें, तब भी उनकी पूजा का कोई आयोजन प्राप्त होता है क्या? वे मनुष्यों के कृत्यों पर प्रसन्न होकर कभी-कभी पुष्पवर्षा करते हुए पाए जाते हैं, बस । तो, वहां भी मन्दिरों या उनमें पूजा का कोई विधान नहीं है !

प्रश्न – चलिए, मान लिया कि यह वैदिक विधान नहीं है, तथापि यह तो सदियों से चला आ रहा है – अवश्य ही इसमें कुछ कारण होगा ! उत्तर – हां, यह प्रथा अब इस देश में बहुत पुरानी हो चली है । इसीलिए इस समय इसको उखाड़ना बहुत ही कठिन हो गया है । वस्तुतः इसका प्रारम्भ पुराणों से हुआ, ऐसा जान पड़ता है । वेदों को सरलता से समझाने की आड़ में, उन्होंने शिव आदि स्वरूप रचे, शिव-पार्वती आदि के स्वांग गढ़े और अश्लीलता को धर्म घोषित किया । इनमें ही हम मूर्तियों को गढ़ कर पूजने का वर्णन प्राप्त करते हैं । तथापि यहां भी, जहां तक मुझे ज्ञात हैं (और मुझे पुराणों के विषय में कम ज्ञान है !), मन्दिरों में सब जनों का आकर पूजन करने का वर्णन नहीं प्राप्त होता । तो, मानना पड़ेगा कि उस काल में भी मन्दिरों की स्थापना नहीं हुई थी ।

परन्तु ये सब कहानियां मन को बहुत लुभाती हैं ! यदि पार्वती शिव की मूर्ति बनाकर उसको पूजती थीं, तो अवश्य ही हमें भी पूजना चाहिए ! कुछ लोभी जनों ने यहां जीविका का साधन भांप लिया और फिर तो जो दुकान खुली, वह दिनोंदिन बढ़ती ही गई ! उसके सामने स्वामी दयानन्द जी को भी अपना बलिदान देना पड़ा…

वस्तुतः, यह मूर्तियों से प्रेम हिन्दू धर्म में ही नहीं आया है । बुद्ध ने कभी नहीं कहा कि मेरा पुतला बनाकर पूजने से किसी का भला होगा, परन्तु निरन्तर भव्य पर भव्य बुद्धप्रतिमाएं बनती चली गईं । जितनी बड़ी प्रतिमा, उतनी अधिक भक्ति, उतनी उसकी प्रसिद्धि, उतना बड़ा देखने वालों का तांता ! जितना अधिक उसपर सोना चढ़ा हुआ, उतना उसको पूजने से फल की प्राप्ति, उतना उसकी सुन्दरता को निहारने के लिए सैलानिकों की भीड़ !

 इसी प्रकार यीशु ने कभी नहीं बोला कि मैं भगवान् हूं, तुम सब मेरी पूजा किया करो । अब क्रास पर चढ़े हुए उनके शरीर की मूर्ति के बिना कोई गिरजाघर पूर्ण नहीं होता ! और सभी आकर जीसस् की प्रतिमा के सामने माथा टेकते हैं, माता मेरी के पैर चूमते हैं । भगवान् बेचारे कहीं बाइबिल में दब कर ही रह गए, भगवान् के बेटे ने बाज़ी मार ली !

मुसलमानों में बुतपरस्ती को मोहम्मद ने बहुत हेय घोषित किया । इसलिए यहां मोहम्मद की प्रतिमा बनाना मृत्यु को बुलावा देना है । तथापि कितनी ही मस्जिदों में , घरों, आदि, में काबा के चित्र लगे रहते हैं, और उनके सामने माथा टेका जाता है । काबा ही प्रभु का प्रतीक बन गया है । इसी प्रकार, सिक्खों में गुरु, जापानियों में बिजली, आदि, की पूजा के कारण, परमात्मा का स्थान दूसरा हो जाता है, कभी-कभी नष्ट ही हो जाता है…

इस सब का कारण क्या है? मेरे अनुसार, इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण है । बचपन में हमें गुड़ियों के खेल बहुत रोचक लगते हैं, छोटी-छोटी गाड़ियों आदि से खेलने में मन बहुत प्रसन्न होता है । वे खिलौने तो बड़े होने पर हम त्याग देते हैं, परन्तु उनके स्थान में नए खिलौने अपना लेते हैं, जो कि समाजसम्मत हों ! भगवान् की मूर्ति को कपड़े पहनाने में हमको वही आनन्द आता है जो बचपन में गुड़ियों को पहनाने में आता था; उनको नहलाना, खिलाना, सेवा करना, और कुछ नहीं तो उनकी सुन्दरता को निहारना, उसके गुणगान करना हमें अन्तरतम तक तृप्त कर देता है ! यही कारण है कि मनुष्य, कुछ भी करके, धर्म के नाम पर मूर्ति गढ़ के, एक बहाना ढूढ़ लेता है अपनी गुड़ियों से खेलने की इच्छा को पूरा करने का…

मुझे प्रतीत होता है कि यदि हम उपर्युक्त को समझ लें, और वयस्क लोगों को भी गुड़ियों से खेलने की छूट दे दें, तो सम्भवतः समस्या का कुछ सीमा तक हल हो जाए । परन्तु जैसा कि स्वामी दयानन्द ने कहा था, रोग अब बहुत बढ़ गया है । इतने से काम नहीं बनेगा, यह बहुत सम्भव है ।

मूर्खों के लिए तो कोई भी उपदेश व्यर्थ है, इसलिए मैं बुद्धिमान् लोगों के लिए आगे के तथ्य लिख रही हूं । वे समझ सकें, तो अभी भी समय हैं, आदतों को सुधारा जा सकता है, मानसिकताओं को नष्ट किया जा सकता है…

वेदादि में परमात्मा की प्रतिमा को नकारा गया है, इसके लिए स्वामी दयानन्द ने कुछ प्रमाण दे दिए हैं । यहां मैं कुछ और भी देती हूं ।

पहले हमें सांख्य से रूप को समझना चाहिए । किसी भी वस्तु का रूप तेज महाभूत से उत्पन्न होता है, जिसमें कि रूप तन्मात्र का समावेश होता है । इसलिए तेज से पूर्व वाले महाभूत देखे नहीं जा सकते, यथा – आकाश व वायु । अपितु हम ऐसे जान सकते हैं कि प्रकृति के विकारों में केवल तेज, जल और पृथिवी ही दृश्य होते हैं । जब पृथिवी के अत्यन्त स्थूल विकार ही हम देख सकते हैं, तो जीवात्मा को देखने का ही प्रश्न नहीं उठता, परमात्मा तो दूर की बात है !

फिर यह जानना चाहिए कि परमात्मा अनन्त है । अनन्त वस्तु को सान्त वस्तु में नहीं ढाला जा सकता । और रूप केवल सान्त वस्तुओं का होता है । यदि ऐसा न होता, तो एक भी अनन्त वस्तु अन्य सभी वस्तुओं को आच्छादित कर देती । इसलिए यदि आप ईश्वर को अनन्त मानते हैं, तो उसे निराकार मानना अनिवार्य हो जाता है ।

यदि आप उसे अनन्त नहीं मानते, तो पहले तो यह मान्यता वेद-अनुमोदित न होगी; तथापि एक क्षण को मान भी लें कि ईश्वर का कोई आकार है, तो पहले तो अनेकों उपलब्ध देवी-देवों में से किस का आकार मानें ? चलिए आपके इष्टदेव का मानते हैं । तो उस इष्टदेव के पुतले से आप क्या अपेक्षा रखते हैं? कि वह एक माध्यम है आपकी बात प्रभु तक पहुंचाने का? तब तो पुतला ही क्यों, किसी भी प्राकृतिक वस्तु को प्रतीक मानकर – सूर्य को, चन्द्र को, समुद्र को – आप उसके माध्यम से अपनी मांग प्रभु के सामने रख सकते हैं । यदि परमात्मा एक पत्थर के टुकड़े से कही बात सुन लेता है, तो उसकी अपनी बनाई वस्तुओं से तो उसका और अधिक प्रगाढ़ सम्बन्ध होना चाहिए…

अब देखिए वेद में दी चेतावनी कि परमात्मा की प्रतिमा स्वीकार करने में क्या पाप है । वेद कहता है –

            अन्धन्तमः प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ।

         ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः ॥यजुर्वेदः ४०।९॥

आप में से बहुतों का यह मन्त्र परिचित् होगा, ईशोपनिषद् में भी यह इसी प्रकार पाया जाता है, परन्तु सम्भवतः आपने मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में इसको न समझा होगा । मन्त्र कहता है – जो सूक्ष्म प्रकृति की उपासना करता है, वह घोर अन्धकार को प्राप्त होता है, परन्तु जो प्रकृति के विकारों की उपासना करता है, वह तो और भी घने अन्धेरे से लिप्त हो जाता है । पूर्व वाक्य ऐसे वैज्ञानिकों के विषय में कह रहा है जो सब वस्तुओं के कारणरूप को कुछ-कुछ जानने लगते हैं और उसी को सब का कारण व अन्त जानने लगते हैं । ऐसे जन परमात्मा और जीवात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते और इसलिए ब्रह्माण्ड की सच्ची व्यवस्था से अनभिज्ञ रहते हैं । दूसरी ओर, अधिकतर मानव दृश्य जगत् के आगे कुछ जान ही नहीं पाते । वे उसी के भोग में रम जाते हैं । तब वे और भी गहन अज्ञानावस्था को प्राप्त होते हैं । यह तो प्रथम अर्थ हुआ । अभी देखिए दूसरा अर्थ – जो जन निराकार परमात्मा को छोड़ कर, दृश्य पदार्थों की उपासना करते हैं, वे प्रकृति के गुणों का अध्ययन करने वाले अन्वेषकों, ज्ञान के उपासकों से भी अधिक घोर अज्ञान में स्थित होते हैं । यहां अज्ञानान्धकार केवल स्थिति देखाने के लिए ही नहीं है, वह फल का भी निर्देश कर रहा है – जितना गहरा अन्धकार होगा, जीवात्मा का उतना ही पतन होगा – इस जीवन में ही नहीं, अपितु अगले जन्म में भी उसको पशुजन्म प्राप्त हो सकता है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति पशु-समान है – ज्ञान से दूर, भोग में लिप्त । मनुष्य द्वारा प्रतिमापूजन भी इसी अज्ञान व भोग श्रेणी में आता है । जो मनुष्य केवल प्रतिमाओं की सेवा, उनके गुणगान, उन पर धन, समय व श्रम का व्यय करते हैं, वे क्या महामूर्ख नहीं हैं ? और जो हैं, तो उनको पशुरूपी मूर्खों की श्रेणी में ही खड़ा होना पड़ेगा…

प्रायः सभी मूर्तिपूजक कहते हैं कि वे परमात्मा को अनन्त, सर्वत्र विद्यमान् ही मानते हैं, परन्तु प्रतिमा द्वारा उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है और वे सरलता से प्रभुभक्ति में लीन हो जाते हैं । वे ये नहीं समझे कि जिसे वे प्रभुभक्ति समझ रहे हैं, वह प्रतिमा के प्रति एक प्रकार का कामभाव ही है । मनुष्य की आकृति, बल्कि संसार में प्रिय किसी भी वस्तु की आकृति, हमें अपनी ओर खींचती है । यह संसार-प्रेम हमें सदैव परमात्मा से दूर ही ले जाता है, उसके पास कभी नहीं । इसलिए विग्रह-वन्दन से सर्वदा बचना चाहिए और प्रभु के सही स्वरूप को जानने के लिए ध्यान में बैठना चाहिए और मानसिक वृत्तियों को रोककर, प्रकृति के जाल से बाहर निकलने का प्रयास करना चाहिए । तभी प्रभु की प्राप्ति होगी, अन्यथा दुःखसागर में ही गोते लगाने पड़ेंगे…