वेदोत्पत्ति पर वेद का कथन

वेदों की उत्पत्ति के विषय में परम्परा से प्राप्त कुछ तथ्य हमें ज्ञात होते हैं । परन्तु वेद भी अपनी उत्पत्ति की कहानी बताते हैं । साथ ही साथ, वे वैदिक ज्ञान की महत्ता पर भी प्रकाश डालते हैं । इसका एक विवरण ऋग्वेद के दशमें मण्डल के ७१वें सूक्त में प्राप्त होता है, जो कि बहुत ही सुन्दर और हृदयग्राही है । इस सूक्त के कतिपय मन्त्रों की व्याख्या मैं इस लेख में दे रही हूं ।

वेदों के विषय में एक किंवदन्ति प्राप्त होती है कि वेदों का प्रादुर्भाव मनुष्यों के प्रादुर्भाव के साथ होता है । परन्तु जिन पवित्र आत्माओं में वेदों का प्रादुर्भाव होता है, वे मनुष्य नहीं, अपितु विशेष जीव होते हैं, जो कि दिखने में तो मानव के समान ही होते हैं, परन्तु उनका माता से जन्म नहीं होता, अपितु वे युवावस्था में ही उत्पन्न होते हैं । ऐसे चार ऋषियों के अन्तःकरण में एक-एक वेद का साक्षात्कार होता है । सम्भवतः, जिस वेद का जिसमें प्रादुर्भाव होता है, उसके अनुसार उस ऋषि का नाम पड़ जाता है । सो, ऋग्वेद को प्राप्त करने वाले ऋषि अग्नि होते हैं, यजुर्वेद को ऋषि वायु, सामवेद को ऋषि आदित्य और अथर्ववेद को ऋषि अंगिरा । ये फिर मिलकर ऋषि ब्रह्मा को इनका प्रवचन करते हैं । इस प्रकार ब्रह्मा पहले ऐसे ऋषि होते हैं जो कि चारों वेदों के ज्ञाता होते हैं । तदनन्तर ये ऋषि अन्य ऋषियों और मनुष्यों को इस ज्ञान का उपदेश देते हैं । धीरे-धीरे ये अद्भुत मानव-रूपी ऋषि पृथिवी पर से उठ जाते हैं, और मनु आदि मानव ऋषि इस ज्ञान-परम्परा का निर्वहन करते हैं । स्वामी दयानन्द ने भी इस किंवदन्ति का उपदेश दिया है (इस विषय को अन्त में थोड़ा और देखेंगे) । वेद भी इसका संकेत देते हैं । उनमें से एक स्थल नीचे वर्णित है ।

ऋग्वेद १०/७१ का ऋषि ‘बृहस्पतिः’ है और देवता ‘ज्ञानम्’ । बृहस्पति परमात्मा का वह रूप है जो कि इस सूक्त का कथन कर रहा है और पहले ही मन्त्र में हमें उसके दर्शन हो जाते हैं –

बृहस्पते  प्रथमं  वाचो  अग्रं  यत्  प्रैरत  नामधेयं  दधानाः ।

यदेषां  श्रेष्ठं  यदरिप्रमासीत्  प्रेणा  तदेषां  निहितं  गुहाविः ॥ऋग्वेदः १०।७१।१॥

अर्थात् हे बृहस्पति, जो आप वेदवाणी रूपी बृहत् ज्ञान के भण्डार के स्वामी हो ! आपने सबसे पहले (=मानवसृष्टि के आदि में), (पदार्थमात्र के) नामों (=भाषा) का धारण करती हुई जिस वाणी (=वेदवाणी) को प्रेरित किया, जो इन (आत्माओं) में से सबसे श्रेष्ठ थे, जो सब प्रकार के पापों से रहित थे, उनकी गुहा रूपी बुद्धि में उसके ज्ञान का, आपकी प्रेरणा से आविर्भाव हुआ । 

यहां स्पष्टरूप से वेदवाणी का प्रथम अतिपवित्र ऋषियों के अन्तःकरण में सम्पूर्णतया (केवल अर्थमात्र नहीं, अपितु काव्यरूप में) आविर्भाव होने का कथन हम पाते हैं । ‘बृहस्पति’ पद द्वारा परमात्मा का इस प्रसंग में सम्बोधन भी अत्यन्त अर्थपूर्ण है । वह वेदों में भरी सारे ब्रह्माण्ड की विद्या के स्वामी को तो बता ही रहा है, परन्तु मुख्यतया परमात्मा को वेदों के स्वामी व कर्ता के रूप में स्थापित कर रहा है । सूक्त के ऋषि-रूप में यह पद प्रत्येक मन्त्र से जुड़कर, मन्त्र में परमात्मा को उपस्थित कर देता है ।

जो इस मन्त्र में वेदों द्वारा सब पदार्थों के नामकरण की बात कही गई है, उसे ही मनु ने इस प्रकार कहा –

सर्वेषां  तु  स  नामानि  कर्माणि  च  पृथक्  पृथक् ।

वेदशब्देभ्य  एवादौ  पृथक  संस्थाश्च  निर्ममे ॥मनुस्मृतिः १।२१॥

अर्थात् वेद शब्दों के द्वारा ही आदि (सृष्टि) में पदार्थ-मात्र के नाम, कर्म व उनका विभागीकरण स्थापित हुआ ।

अब इन ऋषियों ने इस विद्या का क्या किया, इसके लिए दूसरा मन्त्र कहता है –

सक्तुमिव  तितउना  पुनन्तो  यत्र  धीरा  मनसा  वाचमक्रत ।

अत्रा  सखायः  सख्यानि  जानते  भद्रैषां  लक्ष्मीर्निहिताधि  वाचि ॥ऋग्वेदः १०।७१।२॥

अर्थात् इन धीरों, या अतिशय बुद्धिमान् ऋषियों, ने ध्यान में मग्न होकर उस वेदवाणी को, चालनी से जैसे सत्तू को शोधा जाता है, वैसे शोधते हुए, अपनी बुद्धि में प्रकट किया (अर्थात् अपने किसी विचार से परमात्मा की वाणी का संयोग न होने देते हुए, परमात्मा की वाणी को शुद्ध रखा) । ऐसा करते हुए, वे जो वह वाणी बता रही है, जो उसके पदों व वाक्यों के अर्थ हैं, उसका साक्षात्कार कर लेते हैं, और जो उस वाणी में अर्थ के लक्षण निहित हैं, उनको जान लेते हैं ।

यहां वेदों के साक्षात्कार करने की प्रक्रिया का विवरण किया गया है, और यह भी बताया गया है कि शब्दों का उनके अर्थों से सम्बन्ध कैसे उनमें पहले से ही विद्यमान है । कभी यदि उनके अर्थों का लोप हो जाए, तो पुनः ध्यान-प्रक्रिया से उनको ढूढ़ना पड़ेगा । इसीलिए स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास में कहा – “परमेश्वर ने (वेदभाषा को) जनाया, और धर्मात्मा, योगी, महर्षि लोग जब-जब जिस-जिसके अर्थ को जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए, तब-तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रों के अर्थ जनाए ।” इसी कारण से वेदों को नित्य कहा गया है और उनके शब्द व अर्थों से सम्बन्ध को भी । उनका सर्वथा लोप असम्भव है ।

यहां ‘लक्ष्मी’ पद में श्लेषालंकार है – जहां उससे एक ओर लक्षण का ग्रहण होता है, वहीं दूसरी ओर उससे वेदवाणी में निहित अपार ज्ञान की निधि को भी कहा गया है ।

इस सम्पूर्ण सूक्त में सखा, सखाय पदों का प्रयोग हुआ है । लौकिक भाषा में इनका अर्थ मित्र व मैत्री होता है, परन्तु इनके यौगिक अर्थ कहीं गहरे हैं ! जिन दो वस्तुओं का समान ख्यान = वर्णन होता है, उनको सखा कहते हैं, और सखा के भाव को सखाय । लोक में मित्र भी ऐसे होते हैं क्योंकि हमारी मित्रता किससे होती है ? – उससे जो हमारा जैसा हो, जिसकी सोच, जिसकी रुचि, जिसका चाल-चलन हमसे मिलता हो – अर्थात् जिसका वर्णन हमारे समान हो ! इस सूक्त में सर्वत्र वेदवाक्यों से सखाय का वर्णन है । यह इसलिए है कि वेदवाक्यों को समझने के लिए हमें वाणी में निहित अर्थों को इस प्रकार समझना होता है जैसे कि वे हमारे सामने खड़े हों ! इसी को ‘मन्त्रों का साक्षात्कार’ कहा जाता है । यही ‘मन्त्रों का सखाय’ है । दूसरी ओर, लौकिक भाषा में हम यह भी समझ सकते हैं कि हमें वेदमन्त्रों से मित्रता करनी है – उनके अर्थों, उनके प्रयोजन को हम तब ही समझ सकते हैं !

अगला मन्त्र इस विषय को ही आगे बढ़ाता है –

यज्ञेन  वाचः  पदवीयमायन्  तामन्वविन्दन्नृषिषु  प्रविष्टाम् ।

तामाभृत्या  व्यद्धुः  पुरुत्रा  तां  सप्त  रेभा  अभि  सं  नवन्ते ॥ऋग्वेदः १०।७१।३॥

अर्थात् यज्ञरूपी परमात्मा द्वारा वाणी पदों को प्राप्त होती है, शब्दों में परिणत होती है । उपरिकथित ऋषिजन उसको जब ढूढ़ने बैठते हैं, तो वह उनमें प्रविष्ट हो जाती है । उसको सम्पूर्णतया धारण करके, वे उसे अनेक स्थानों में प्रसारित करते हैं । सात छन्दों में बद्ध वेदवाणी को लक्ष्यीकृत्य करके, वे उसकी स्तुति करते हैं ।

यहां ‘यज्ञ’ का अर्थ मानसयज्ञ अर्थात् ध्यान भी सम्भव है, जिससे प्रथम पाद का अर्थ बनेगा – ऋषिजन ध्यान में मग्न होकर वेदवाणी के पदों के अर्थों को प्राप्त करते हैं ।

मन्त्र में पुनः हमें संकेत मिलता है कि ईश्वर से ही वेदों की उत्पत्ति हुई है ।

वेद के प्रत्येक पद का बहुत महत्त्व है और जिन छन्दों में वे वाक्य बद्ध हैं, वे भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । क्योंकि वेद परमात्मा के महान कृत्य हैं, इसीलिए उसको इस मन्त्र में ‘यज्ञ’ नाम से पुकारा गया है । जो भी वेदमन्त्रों के अर्थों को समझता है, वह वेदों और उनके कर्ता परमात्मा की स्तुति किए बिना नहीं रहा सकता । इसीलिए हम पाते हैं कि सारे ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद्, दर्शनशास्त्र इत्यादि प्राचीन ग्रन्थ, सभी वेदों की स्तुति करते नहीं थकते ! वेदों का प्रचार-प्रसार सभी वेदज्ञाताओं का परम कर्तव्य है ।

मनुष्य और ऋषि

अब थोड़ा अमैथुनी सृष्टि व आदि ऋषियों व मनुष्यों के विषय में कुछ प्रमाण देख लेते हैं ।

अमैथुनी सृष्टि के विषय में स्वामी दयानन्द सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास में लिखते हैं – “… आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती, क्योंकि जो स्त्री-पुरुष के शरीर परमात्मा बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है, तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है ।” आगे प्रश्न पूछा जाता है – आदिसृष्टि में मनुष्य आदि की बाल्य, युवावस्था में सृष्टि हुई थी, अथवा तीनों में ? तो स्वामी जी उत्तर देते हैं – “युवावस्था में, क्योंकि जो (ईश्वर) बालक उत्पन्न करता, तो उनके पालन के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में बनाता तो मैथुनी सृष्टि न होती । इसलिए युवावस्था में सृष्टि की है ।” इन दोनों वाक्यों में विरोध प्रतीत होता है – आदि सृष्टि मैथुनी थी कि नहीं ? पहले वाक्य में स्पष्टतः महर्षि ने उसका खण्डन किया, परन्तु दूसरे वाक्य में उसका समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं ! इसका उत्तर इन दोनों वाक्यों के मध्य में बहुत संकेतात्मक रूप से प्राप्त होता है – “… ‘मनुष्या ऋषयश्च ये; ततो मनुष्या अजायन्त’ – यह यजुर्वेद और उसके ब्राह्मण में लिखा है ।” यहां जो वाक्य महर्षि ने उद्धृत किया है, वह यजुर्वेद अथवा ब्राह्मण में तो मुझे नहीं मिला, तथापि उसके अर्थ बड़े रोचक हैं । यह वाक्य स्पष्टतः कह रहा है कि आदि सृष्टि में मनुष्य और ऋषि – ये दो प्रकार के जीव हुए । उसके अनन्तर केवल मनुष्य ही रहे । यह भेद वही है जो मैंने पूर्व में बताया । इससे मिलता-जुलता मन्त्र मुझे ऋग्वेद में अवश्य मिला –

चाक्लृप्रे  तेन  ऋषयो  मनुष्या  यज्ञे  जाते  पितरो  नः पुराणे ।

पश्यन्  मन्ये  मनसा  चक्षसा  तान्  य  इमं  यज्ञमयजन्त  पूर्वे ॥ऋग्वेदः १०।१३०।६॥

इस ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने पर, बहुत पहले (मनुष्य-सृष्टि काल में), उस (परमात्मा) ने ऋषियों और हमारे मनुष्य-पितरों (मनुष्य जो प्रजोत्पत्ति के द्वारा हमारे पितर बने) को (वेद-मन्त्रों से) समर्थ किया, उन (वेद-मन्त्रों) को मन के चक्षु से देखते हुए जिन ऋषियों और मनुष्यों ने उस यज्ञ = परमात्मा/वेदों का आरम्भ में यजन किया था । यह मन्त्र भी उन विशेष प्रारम्भिक ऋषियों को मनुष्य-जाति से पृथक् रख रहा है ।

इस विषय में एक और मन्त्र द्रष्टव्य है –

यदाकूतात्  समसुस्रोद्धृदो  वा  मनसो  वा  सम्भृतं  चक्षुषो  वा ।

तदनुप्रेत सुकृतामु  लोकं  यत्र  ऋषयो  जग्मुः  प्रथमजाः  पुराणाः ॥यजुर्वेदः १८।५८॥

जो (मनुष्य सत्य प्राप्त करने के) उत्साह से अपनी बुद्धि, मन और इन्द्रियों से  सत्य को प्राप्त कर, उस सुकृत करने वालों के लोक को प्राप्त करते हैं, जिसको प्रथम जन्म लेने वाले, पुराने ऋषि गए थे । यहां पुनः प्रथम उत्पन्न ऋषियों को पश्चात् ऋषि-संज्ञक महानुभावों से पृथक् रखा गया है ।

इस प्रकार यह अत्यन्त अद्भुत किंवदन्ती के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । आज यह हमारी समझ के परे हो, परन्तु इसको हमें ‘सम्भव’ की कोटि में रखना चाहिए !

उपर्युक्त वेदमन्त्र उस किंवदन्ति की पुष्टि करते हैं जो परम्परा से हमें ऋषियों की वाणी में प्राप्त होती आ रही है । यह एक और कारण है जिससे वेदों की अपौरुषेयता पर किसी को भी सन्देह करना युक्त नहीं है ।