वैदिक मन्त्रों के अर्थीकरण में ऋषि आदि का महत्त्व – २

पहले लेख के विषय को ही इस लेख में मैं आगे बढ़ा रही हूं, और मन्त्रों के अर्थीकरण में ऋषि, छन्द व स्वर के महत्त्व के बारे में कुछ और तथ्य प्रस्तुत कर रही हूं । 

वेद-मन्त्रों के ऋषि का अर्थ

पिछले मास के लेख में जो मैंने लिखा कि वेद-मन्त्रों का ऋषि उसका मन्त्रद्रष्टा नहीं, अपितु मन्त्र का अपर विषय है, उसे मानने में विद्वज्जनों को अवश्य ही बाधा आई होगी, और उन्हें अन्य प्रमाणों की अपेक्षा रही होगी । कुछ और प्रमाण मैं यहां दे रही हूं । 

  • ऋग्वेद के दशम मण्डल के १०८वें सूक्त में सरमा और पणियों की आख्यायिका प्राप्त होती है । यहां पणि व्यापार करने वाले बनिये हैं, और सरमा इन्द्र की दूती है । पणि धूर्त हैं, यह मन्त्रों से स्पष्ट हो जाता है, परन्तु यह भी प्रसिद्ध है कि सरमा इन्द्र की कुतिया है । यह तथ्य किसी भी मन्त्र से स्पष्ट नहीं होता । उसे दूती तो बताया गया है, यथा – इन्द्रस्य  दूतीरिषिता  चरामि (ऋक्० १०।१०८।२)  अर्थात् मैं इन्द्र की दूती बनकर विचर रही हूं । पणि उसको बहुत धन, गौ, अश्व, आदि, का उत्कोच देते हैं । इन सब से कुतिया का क्या काम ? किसी स्त्री को यहां इन्द्र की दूती मानना बुद्धि-संगत लगता है, कुतिया का नहीं । तो यहाँ कुतिया की कल्पना कहां से आई ? जब हम इस सूक्त के ऋषि को देखते हैं तो कुछ मन्त्रों के ऋषि ’पणयोऽसुराः’ हैं, और कुछ के ’सरमा देवशुनी’, अर्थात् ’धूर्त पणि जन’ और ’देवों की कुतिया सरमा’ । अब स्पष्ट हो जाता है कि सरमा को कुतिया क्यों माना गया ! यहां हम मन्त्र के ऋषि से मन्त्र के अर्थीकरण पर सीधा प्रभाव देखते हैं । दूसरी ओर से हमें यह भी सोचना चाहिए कि वे कौन ऋषि या ऋषिका होगें जो अपना नाम ’पणयोऽसुराः’ या ’सरमा देवशुनी’ रखेंगे ! जबकि प्राचीन काल में कर्ण आदि अति सरल और तुच्छ वस्तुओं पर मनुष्यों के नाम पाए जाते हैं, पर कुत्सित वस्तुओं पर नहीं । सो, यहां यह कल्पना करना कि ये नाम किसी/किन्हीं ऋषि/ऋषिकाओं के हैं सर्वथा अमान्य प्रतीत होता है ।
  • यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय के १६ में से १२ मन्त्रों के ऋषि ’स्वयम्भु ब्रह्म’ हैं । शेष ४ में से ३ के ऋषि ’मेधाकामः’ हैं और एक के ’श्रीकामः’ । ’मेधाकाम’ वाले मन्त्रों में मेधा की ही कामना की गई है, यथा – सनिं  मेधामयासिषं  स्वाहा ॥३२।१३॥, तया  मामद्य  मेधयाग्ने  मेधाविनं  कुरु  स्वाहा ॥३२।१४॥, मेधां  मे  वरुणो ददातु ॥३२।१५॥ ’श्रीकाम’ वाले मन्त्र में श्री की कामना की गई है – मयि  देवा  दधतु  श्रियमुत्तमां ॥३२।१६॥ यहां हम देख सकते हैं कि किस प्रकार ऋषिवाची शब्द मन्त्र के विषय को ही कह रहा है । इससे पूर्व के किसी भी मन्त्र में मेधा या श्री की कामना नहीं पाई जाती है । 

इसी प्रकार सभी स्थलों पर हम ऋषि और मन्त्र-विषय में एक अटूट सम्बन्ध देख सकते हैं । इसलिए ऋषि को किसी व्यक्ति-विशेष का नाम न जानकर, हमें उसे, देवता के बाद, मन्त्र का दूसरा विषय जानना चाहिए ।

अब विस्तार से विचार करते हैं छन्दों और स्वरों के अर्थों पर । पिछली बार मैंने दो मन्त्रों द्वारा कुछ अर्थ बताए थे । यहां मैं सम्पूर्णतया सबके अर्थ दे रही हूं ।

छन्दों  के  अर्थ

यहां हम केवल सात प्रधान छन्दों पर विचार करेंगे ।

  • गायत्री – वेद कहता है – पञ्चाविर्वयो  गायत्री छन्दः (यजु० १४।१०)  । महर्षि दयानन्द व्याख्या (म०व्या०) करते हैं – पञ्चेन्द्रियाण्यवन्ति येन स विज्ञानम् – जिससे पांचों इन्द्रियों की रक्षा हो, वह विज्ञान । इससे ज्ञात होता है कि गायत्री मन्त्रों में पञ्च वस्तुओं की रक्षा का प्रकरण होना चाहिए, चाहे वे इन्द्रियां हो, चाहे कुछ और । 

    अन्यत्र हमें प्राप्त होता है – या  गायन्तं  त्रायते  सा (यजु० १४।१८-म०व्या०), गायन्तं  त्रायमाणा (यजु० २३।३३-म०व्या०), अर्थात् वेद-मन्त्र को गाने वाले की रक्षा करने वाला – गै शब्दे (भ्वादि) + त्रैङ् पालने (भ्वादि) + ङीप्, अथवा गै शब्दे (भ्वादि) + औणादिक अत्रन् + ङीप् प्रत्यय । 
    निरुक्त (७।१२) कहता है – गायत्री  गायतेः  स्तुतिकर्मणः, त्रिगमना वा विपरीता, गायतो  मुखादुत्पतदिति  च  ब्राह्मणम् । – अर्थात् गायत्री ’गायति’ से निष्पन्न होते है जिसका अर्थ यहां स्तुति-परक है; अथवा वह ’त्रि + गम्’ से बना है जिसमें गम् और त्रि उलट कर ’गायत्री’ बना (अर्थात् तीन पादों वाला); ब्राह्मण कहते हैं कि गान करते हुए परमात्मा के मुख से यह (सब से पूर्व – ऋग्वेद के पहले मन्त्र के रूप में) निकला – गै + पत् + रक् प्रत्यय->गापत्र   ->गायत्री । 
    सो, जिस मन्त्र का छन्द गायत्री होगा, उसमें मनुष्य वा आत्मा की रक्षा करने का विज्ञान प्राप्त होगा और/अथवा परमात्मा की स्तुति होगी । यहां यह भी ज्ञात होता है कि ये छन्दोनाम भी अनेकार्थक हैं । कौन सा अर्थ किस मन्त्र में लगता है, यह विश्लेषण करना आवश्यक होता है ।  
  • उष्णिक् – वेद का प्रमाण है – त्रिवत्सो  वय  उष्णिक्  छन्दः (यजु० १४।१०) – त्रयः  कर्मोपासनाज्ञानानि  वत्सा  इव यस्य  सः  पराक्रमम्  यद्  दुःखानि  दहन्ति तम् (म०व्या०), अर्थात् जिस पराक्रम के तीन – कर्म, उपासना और ज्ञान – बेटों के समान हैं, और जो दुःखों को जला देता है । अन्यत्र महर्षि कहते हैं – स्नेहनम् (यजु० १४।१८) – अर्थात् जिसमें प्रीति या स्नेह हो – उत् उपसर्ग + ष्णिह प्रीतौ (दिवादि), स्नेहने (चुरादि) च + क्विन् । उष्णिक् छन्द वाले मन्त्रों में तीन स्नेहपूर्वक उपदेश होने चाहिए ।
    निरुक्त कहता है – उष्णिगुत्स्नाता  भवति, स्निह्यतेर्वा  स्यात्  कान्तिकर्मणः, उष्णीषिणीवेत्यौपमिकम् । उष्णीषं स्नायतेः ।– अर्थात् उष्णिक् उत् + ष्णा शौचे (अदादि) + क्विन् से निष्पन्न होता है (अत्यधिक शुद्ध); अथवा उत् + ष्णिह प्रीतौ (दिवादि), स्नेहने (चुरादि) वा + क्विन् – इच्छा के अर्थ में (अधिक प्रिय छन्द या स्नेह व्यक्त करने वाला); अथवा पगड़ी के समान गायत्री के प्रत्येक पाद में एक और अक्षर से लिपटा हुआ, यह उपमा के अर्थ में निर्वचन है (गायत्री के तीन पादों में आठ-आठ अक्षर होते हैं, और उष्णिक् में नौ-नौ) । स्ना धातु से उष्णीष निष्पन्न होता है – उत् + स्ना->उष्णा->उष्णीष->उष्णिक् ।
    मुख्यतया प्रेम से इस छन्द का सम्बन्ध है ।  
  • अनुष्टुप् – वेद का प्रमाण है – तुर्यवाड्  वयोऽनुष्टुप्  छन्दः (यजु० १४।१०) – तुर्यान्  चतुरो  वेदान्  वहति  येन  सः, अनुस्तौति  यया  सा (म०व्या०), अर्थात् जिससे चार वेदों का वहन हो, और जिससे किसी कर्म, ज्ञान, आदि, के पीछे स्तुति की जाए । अन्यत्र प्राप्त होता है – सुखानामनुष्टम्भनम् (म०व्या० यजु० १४।१८) – सुखों का आलम्बन करने वाला ।
    निरुक्त के अनुसार – अनुष्टुबनुष्टोभनात् । गायत्रीमेव  त्रिपदा  सती  चतुर्थेन  पादेनानुष्टोभतीति च ब्राह्मणम् । – ब्राह्मण के अनुसार गायत्री के तीन पाद होते हुए, चतुर्थ पाद के आलम्बन से ’अनुष्टुप् = गायत्री पर अवलम्बित’ सिद्ध होता है (गायत्री मे ८-८ अक्षरों के तीन पाद होते हैं, जबकि अनुष्टुप् में ८ अक्षरों के चार पाद होते हैं) । 
    मेरे अनुसार, इसे ’ष्टुप समुच्छ्राये = उद्धार करना’ से भी सिद्ध किया जा सकता है, जबकि इसका अर्थ बनेगा – मन्त्र में उपदिष्ट कर्म, ज्ञान वा उपासना, आदि, से उद्धार करने वाला ।
    इस छन्द में प्रधानतया धर्म-विषयक उपदेश होना चाहिए ।
  • बृहती – यजु० १४।१० में सात छन्दों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं – पङ्क्ति, जगती, त्रिष्टुप्, विराट्, गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप् । इनमें से छः तो हमारे वर्णन के अनुसार ही हैं, परन्तु बृहती के स्थान पर विराट् दिया है । सामान्य प्रयोग में, किसी भी छन्द में एक अक्षर कम होने पर उसे ’विराट्’ विशेषण दिया जाता है, यथा – विराट् त्रिष्टुप् । इसलिए विराट् का यहां पढ़ा जाना विचित्र है । दूसरी ओर ’विराट्’ और ’बृहती’, दोनों के ही अर्थ ’बड़ा होना’ होता है । क्या यह सम्भव है कि ’विराट्’ का अर्थ यहां ’बृहती’ हो ? यदि ऐसा है, तो वेद कहता है – दित्यवाड्  वयो  विराट्  छन्दः (यजु० १४।१०) – दितिभिः  खण्डनैर्निर्वृत्तान्  यवादीन्  वहति,  प्रापणम्(म०व्या०) – पृथिवी के खोदने से उत्पन्न जौ आदि अन्नों को प्राप्त कराने वाला, विविध प्रकाशयुक्त (हिन्दी व्याख्या) । पहला अर्थ तो यहां सही नहीं बैठता । सो, प्रकाश-वाहक अर्थ करना ही यहां सही है ।
     
    अन्यत्र प्राप्त होता है – महती प्रकृतिः (म० व्या० यजु० १४।१८), महदर्था (यजु० २३।३३ म०व्या०) – अर्थात् महान् प्रकृति, या केवल महान् अर्थ में । निरुक्त कहता है – बृहती परिबर्हणात् – चारों ओर से बड़ा होने से – बृह वृद्धौ (भ्वादि) । अनुष्टुप् के हर पाद से एक अक्षर से बड़ा होने से यह अर्थ सम्भव है, परन्तु मन्त्रार्थ में, इस छन्द से महान् वस्तुओं, विशेषकर प्रकृति-सम्बन्धी, का उल्लेख होना चाहिए ।
  • पङ्क्ति – वेद कहता है – अनड्वान्  वयः पङ्क्तिश्छन्दः (यजु० १४।१०) – वृषभः बलम् – गौ या बैल के समान बलवान् हो के तू प्रकट स्वतन्त्र हो (म० व्या०) – यः अनसा प्राणेन वायुना युक्तः सः अनड्वान् (अन प्राणने + औणादिक असुन् प्रत्ययः) । 
    अन्यत्र हम पाते हैं – पञ्चावयवो  योगः (म० व्या० यजु० १४।१८), विस्तृतया  क्रियया (यजु० २३।३३), पङ्क्ति पञ्चपदा (निरु० ७।१२) – अर्थात् पाँच अवयवों वाला, विस्तृत क्रिया को कहने वाला, या पाँच पादों वाला । पचि व्यक्तिकरणे (भ्वादि), विस्तारवचने (चुरादि) वा + क्तिन् प्रत्ययः से इसके अर्थ किसी रहस्य का उद्घाटन करने वाला या विस्तार से कहने वाला भी होता है ।
    अतः, जहां एक ओर पाँच पादों के होने से इस छन्द का यह नाम है, वहीं मन्त्र में क्रिया, बल, वायु, प्राण आदि का विस्तृत विवरण मिलना चाहिए ।
  • त्रिष्टुप् – वेद कहता है – त्र्यविर्वयस्त्रिष्टुप् छन्दो (यजु० १४।१०) – त्रयोऽव्यादयो यस्मात् तं, प्रजननं, त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि स्तुवन्ति यया सा (म०व्या०) – जिससे तीन रक्षकों का वर्णन हो, या जिससे तीन कर्म, उपासना और ज्ञान की स्तुति की जाए, अर्थात् जिसमें तीन उपदेश या स्तुति हों । अन्यत्र हम पाते हैं – यया त्रीणि सुखानि स्तोभति सा (म० व्या० यजु० १४।१८) – जिसमें तीन सुखों का आलम्बन हो; त्रिष्टुप् स्तोभत्युत्तरपदा । का तु त्रिता स्यात् ? तीर्णतमं छन्दः, त्रिवृद्वज्रस्तस्य स्तोभतीति वा । यस्त्रिरस्तोभत्  तत् त्रिष्टुभस्त्रिष्टुपत्वमिति विज्ञायते (निरु० ७।१२) – त्रिष्टुप् का उत्तरपद’ष्टुप्’ स्तुभ् धातु से बना है । ’त्रि’ के दो अर्थ हैं – एक तो ’तॄ प्लवनसन्तरणयोः’ से विस्तृत अर्थ में, और दूसरा, तीन परतों वाला होना, अर्थात् जिससे तीन (प्रकार से या तीन पदार्थों) का स्तुवन हो, वह त्रिष्टुप् का त्रिष्टुपत्व है ।
    मेरे अनुसार, ’ष्टुप समुच्छ्राये = उद्धार करना’ का यहां भी अर्थ सम्यक् बैठता है । सो, त्रिष्टुप् छन्द वाले मन्त्र में तीन स्तुतियां या तीन उद्धार/रक्षण करने वाले उपदेश पाए जाने चाहिए ।
  • जगती – वेद का प्रमाण है – धेनुर्वयो  जगती  छन्दः (यजु० १४।१०) – दुग्धप्रदा  कामनां,  जगदुपकारकम् (म०व्या०) – धेनु के समान कामनाओं को दुहने वाला या जगत् का उपकार करने वाला । अन्यत्र पाते हैं – गच्छति सर्वं  जगद्यस्यां  सा (म०व्या० यजु० १४।१८) – जिसमें सारा जगत् प्राप्त हो; जगती  गततमं  छन्दः, जलचरगतिर्वा, जल्गल्यमानोऽसृजदिति च ब्राह्मणम् (निरु० ७।१२) – जगती सबसे अधिक प्रापक छन्द है (गम् + गम् + अति + ङीप्), या उसकी जलचर के समान ऊपर-नीची गति है (जलचरगति->जगति->जगती), अथवा ब्राह्मण के अनुसार सबसे अधिक स्तुति किए हुए परमेश्वर ने इसका सृजन किया है (गॄ+गॄ+क्विप्+ङीप्->जगर् ई->जगती)।
    वस्तुतः, इस छन्द में, व्यक्तिविशेष के लिए नहीं, अपितु सब जगत् के लिए सन्देश होता है ।

छन्दों के विश्लेषण के बाद, अब हम स्वरों के सम्भावित अर्थों पर एक दृष्टि दौड़ाते हैं । यहां मुझे कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ । अतः, ये मेरी बुद्धि से ही दे रही हूं ।

स्वरों के अर्थ

  • षड्जः – यह छः से उत्पन्न होता है (षड् + जनी प्रादुर्भावे [दिवादि]), अर्थात् इसके मन्त्र में छः उपदेश, या छः स्तुतियां होनी चाहिए । यथा – गायत्री मन्त्र में स्तुतियां हैं – भूः, भुवः, स्वः, सविता, भर्गः, देवः ।
  • ऋषभः – शक्तिशाली, बल का उपदेश करने वाला (ऋषी गतौ (तुदादि) + औणादिक अभच् प्रत्यय) ।
  • गान्धारः – गो, अर्थात् वाणी, पृथिवी या इन्द्रिय को धारण करवाने वाला । गान्धर्वी वाङ्नाम (निघ० १।११) । निरुक्त में ’गो’ के अन्य भी कई अर्थ दिए हैं । सम्भव है कि उनका भी किन्हीं मन्त्रों में संयोग होता हो ।
  • मध्यमः – मध्य-स्थिति का उपदेश करने वाला ।
  • पञ्चमः – किसी अतीन्द्रिय रहस्य को व्यक्त करने वाला । (पचि व्यक्तिकरणे (भ्वादि) औणादिकः कनिन् प्रत्ययः, अथवा पञ्चन् प्रातिपदिक + मडागमः + डट् प्रत्ययः)
  • धैवतः – ज्ञान या धारणा-शक्ति विषयक (ध्यै चिन्तायाम् (भ्वादि) + क्विप् + ङीप् + मतुप् । धीः कर्मनाम् (निघं० २।१), प्रज्ञानाम् (निघं० ३।९), वाग् वै धीः (शतपथ०४।२।४।१३)) ।
  • निषादः – उपासना-सम्बन्धी (नि + षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु (भ्वादि) + अण्) । निषादः कस्मान्निषदनो भवति, निषण्णम्स्मिन् पापकमिति निरुक्ताः (निरु० ३।७) – यहां धर्म-विनाशक, पापी का अर्थ लिया गया है जो कि प्रसंगानुसार सम्यक् नहीं है; नितरां स्थापयन्तो विज्ञापयन्तो वा (देवाः विद्वांसो जनाः) (म०व्या० ऋ० ३।१९।५) – पूरी तरह स्थापित करने वाले या जनाने वाला । यह भी अर्थ सम्भव है ।

संस्कृत में कोई भी शब्द निरर्थक नहीं होता । तो फिर वेदों में कैसे कोई शब्द अर्थहीन हो सकता है?! हमारी समझ में कमी हो सकती है, परन्तु वेद की रचना में नहीं । मेरे उपरिनिर्दिष्ट अर्थ अवश्य ही त्रुटिपूर्ण हो सकते हैं, परन्तु इस दिशा में विचार करना, ऊपर दिए अर्थों का मन्त्रों के साथ परीक्षण करना और सही अर्थ स्थापित करना वेदज्ञों के लिए आवश्यक है, ऐसा मैं समझती हूं ।