वैदिक मन्त्रों के अर्थीकरण में ऋषि आदि का महत्त्व – ४

इस विषय के पिछले तीन लेखों में मैंने वेदमन्त्रों के ऋषि, देवता, छन्द और स्वर की महत्ता की ओर ध्यान आकर्षित किया था । मेरे मत को पोषित करने के लिए नीचे एक और आयाम पाइए ।

ऋषि का महत्त्व

ऋषि मन्त्र का द्रष्टा कोई मनुष्य-विशेष नहीं होता, अपितु मन्त्र का द्वितीय विषय होता है, इसके मैंने कुछ प्रमाण पूर्व में दिए थे । उसके बाद मुझे इसका अकाट्य प्रमाण भी मिल गया ! वह इस प्रकार है । वेदों में कुछ विषय आख्यायिका या संवाद के रूप में दिए गए हैं । इनमें से चार अतिप्रसिद्ध हैं – अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद (ऋक्० १।१७९), पुरूरवा-उर्वशी संवाद (ऋक्० १०।९५), सरमा-पणि संवाद (ऋक्० १०।१०८) और यम-यमी संवाद (ऋक्० १०।१०) । इनमें से सरमा-पणि संवाद की चर्चा मैंने पूर्व लेख में की थी । इसलिए इसको ही पहले लेते हैं ।

  • सरमा-पणि संवाद

पूर्व लेख में मैंने दर्शाया था कि ऋक्० १०।१०८ में सरमा के इन्द्र की दूती होने का और पणियों के धूर्त होने की चर्चा तो मन्त्रों में मिलती है, परन्तु सरमा के कुतिया होने का कोई विवरण नहीं मिलता । सो, यह तथ्य मन्त्रों के ऋषि/देवता – सरमा देवशुनी – से प्राप्त हुआ है ।

यहां मैंने अन्य एक बहुत ही आश्चर्यजनक सम्बन्ध पाया । सूक्त के ११ मन्त्रों के दो अलग-अलग ऋषि हैं – मन्त्र संख्या १,३,५,७,९ का ऋषि ’पणयः असुराः’ है; शेष मन्त्रों २,४,६,८,१०,११का ऋषि ’सरमा देवशुनी’ है । इन मन्त्रों के देवता इसके उल्टे हैं अर्थात् जहां ऋषि ’पणयः असुराः’ है, वहां देवता ’सरमा देवशुनी’ है, और उसका विपरीत भी । अब जिस मन्त्र का जो ऋषि है, वह मन्त्र उसका वचन है, जैसे – पहले मन्त्र का ऋषि ’पणयः असुराः’ है, तो उसे आख्यायिका में पणियों ने बोला है । फिर दूसरे मन्त्र का ऋषि ’सरमा देवशुनी’ है, तो उसे सरमा ने बोला है । देवता इसके उल्टे हैं और उद्दिष्ट की वाचक हैं । पहले मन्त्र की देवता ’सरमा’ है, सो वह उद्दिष्ट है । दूसरे मन्त्र की देवता ’पणयः’ है, तो वे उद्दिष्ट हैं । यहां तक कि जिन मन्त्रों में उद्दिष्ट का सम्बोधन स्पष्ट-रूप से नहीं है और वचन कोई भी बोल सकता है, तब ऋषि/देवता से ही उद्देष्टा और उद्दिष्ट का बोध होता है ।

यह कोई मन-गढ़न्त बात नहीं है, अपितु वेद की शैली है, यह पुरुरवा-उर्वशी के संवाद से भी प्रमाणित होता है ।

  • पुरूरवा-उर्वशी संवाद

अठारह मन्त्रों वाले इस ऋक्० १०।९५ सूक्त के ऋषि इस प्रकार हैं – मन्त्र संख्या १,३,६,८,९,१०,१२,१४, १७ का पुरूरवा ऐळः; २,४,५,७,११, १३,१५,१६,१८ का उर्वशी । यदि मन्त्रों को पढ़ा जाए, तो ठीक इन्ही मन्त्रों में ये ही उद्देष्टा हैं । अब यदि देवताओं को देखें, तो वे इस प्रकार हैं – १,३,६,८,९,१०,१२,१४,१७ की उर्वशी और २,४,५,७,११, १३,१५, १६,१८ की पुरूरवा ऐळः – अर्थात् पुनः ऋषि और देवता उलट गए और देवता सम्बोधित व्यक्ति को इंगित कर रही है ।

  • यम-यमी संवाद 

चौदह मन्त्रों वाले इस ऋक्० १०।१० सूक्त में पुनः बिल्कुल वैसी ही स्थिति पाते हैं । मन्त्र सं० १,३,५,६,७,११,१३ का ऋषि ’यमी वैवस्वती’ है और देवता ’यमो वैवस्वतः’ । ये वे मन्त्र हैं जिनमें यमी यम को सम्बोधित करती है । शेष मन्त्रों का ऋषि ’यमो वैवस्वतः’ है और देवता ’यमी वैवस्वती’ । ये यम के द्वारा बोले गए मन्त्र हैं ।

  • अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद

जबकि ऋक्० १।१७९ का यह सूक्त भी संवाद है, तथापि हम यहां एक भेद पाते हैं – यहां के सभी ‍६ मन्त्रों का ऋषि ’लोपामुद्रागस्त्यौ’ है, और देवता ’दम्पती’ । यहां मन्त्रों में हम पाते हैं कि कुछ मन्त्रों में स्पष्टता है कि कौन किससे बोल रहा है, परन्तु अन्य मन्त्र पति-पत्नी के लिए उपदेश रूप में ही हैं, और यह बताना कठिन है कि इसे लोपामुद्रा बोल रही है या अगस्त्य, जैसे दूसरा और तीसरा मन्त्र । सम्भव है कि इस कारण से उपर्युक्त पद्धति न निर्वाहित हो, या फिर यह इतना छोटा सूक्त है कि यहां यह बताने की आवश्यकता न हुई । इन मन्त्रों की सूक्ष्म समीक्षा करें तो पहला मन्त्र स्पष्टतः लोपामुद्रा की ओर से है क्योंकि उसमें स्त्रीलिंग में ’जरयन्तीः’ पद का प्रयोग है । दूसरे और तीसरे मन्त्र, स्पष्ट न होते हुए भी, क्रमशः अगस्त्य और लोपामुद्रा की ओर से माने जाते हैं । दूसरे मन्त्र में कोई भी संकेत नहीं मिलता कि कौन इस वचन को कह रहा है । तीसरे मन्त्र में ’अभ्यजाव’ पद आता है, जिसका अर्थ है – सब ओर से हम दोनों प्राप्त होवें । इसलिए यह वस्तुतः कोई भी कह सकता है या दोनों एक साथ भी कह सकते हैं । चौथे में ’लोपामुद्रा’ पद पठित है । सो, वह अगस्त्य का वचन हुआ । तथापि ’लोपामुद्रा’ पद सम्बोधना विभक्ति में नहीं है, अपितु प्रथमा में है । पंचम में पुनः स्पष्ट नहीं है – ’चकृम’ पद से ’हम करें’ यह अर्थ बनता है, इसलिए इसे कोई भी या दोनों बोल सकते हैं । परन्तु उसको अगस्त्य का वचन माना गया है । षष्ठ में ’अगस्त्यः’ पठित होने से वह लोपामुद्रा का ही वचन है । पुनः ’अगस्त्यः’ पद सम्बोधना विभक्ति में नहीं है, अपितु प्रथमा में है ।

जबकि इस सूक्त में उपर्युक्त रीति का निर्वहन नहीं हुआ है, तथापि इसका ऋषि ’लोपामुद्रागस्त्यौ’ तो वक्ताओं का परिचय दे रहा है, किसी ऋषि-ऋषिका दम्पती का नहीं । यदि यह परिचय न हो, तो हम लोपामुद्रा और अगस्त्य को विशेषण के रूप में पढ़कर, सम्बोधन रूप में न लें, क्योंकि जैसे हमने ऊपर देखा, ये पद प्रथमा विभक्ति में प्राप्त होते हैं, सम्बोधना में नहीं । इसलिए ऋषि का यहां पर पुनः मन्त्रार्थ में महत्त्व है ।

यदि पाठकगण किन्ही और संवाद सूक्तों को जानते हों, तो मुझे uttaranerurkar@gmail.com पर लिख भेजें । मैं उनको भी परखने का प्रयास करूंगी ।

इसी विषय से सम्बद्ध – छन्दों की मन्त्रार्थ में भूमिका पर भी मुझे कुछ वेद-मन्त्र मिले । ये मुझे पूर्णतः समझ में तो नहीं आए, परन्तु पाठकों के विवेचन के लिए मैं उनको यहां प्रस्तुत कर रही हूं ।

ऋग्वेद १०।१३० में तीन मन्त्र आते हैं जो कि छन्द और देवता के सम्बन्ध को इंगित करते हैं । यहां प्रजापति के यज्ञ का वर्णन है क्योंकि इस सूक्त का ऋषि है ’प्राजापत्यो यज्ञः’ । देवता ’भाववृत्तम्’ का अर्थ स्पष्ट नहीं है । इस यज्ञ का अर्थ ब्रह्माण्ड और मनुष्य शरीर की सृष्टि किया गया है । यहां तीसरा मन्त्र पूछता है –

कासीत् प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत् परिधिः क आसीत् ।

छन्दः किमासीत् प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥ ऋ० १०।१३०।३॥

अर्थात् जिस देव को सारे प्राकृतिक देव (शक्तियां) यजती हैं, उसकी प्रमा, प्रतिमा, निदान, परिधिः, छन्द, प्रउग उक्थ क्या हैं ?

उत्तर मिलता है –

अग्नेर्गायत्र्यभवत् सयुग्वोष्णिहया सविता सं बभूव ।

अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वान् बृहस्पतेर्बृहती वाचमावत् ॥ ऋ० १०।१३०।३॥

अर्थात् अग्नि देवता के साथ गायत्री जुड़ा, सविता के साथ उष्णिक्, अनुष्टुप् और उक्थों के साथ महान् गुणों वाला सोम देवता संगत हुई, और बृहस्पति देवता को बृहती वाणी (छन्द) प्राप्त हुई । स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक विद्यामार्तण्ड अपने भाष्य में इसका तात्पर्य यह बताते हैं, “इस प्रकार अग्नि, सविता, सोम, बृहस्पति देवता के गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती छन्द होते हैं ।” 

आगे कहा गया –

विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुबिह भागो अह्नः ।

विश्वान् देवाञ्जगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्याः ॥ ऋ० १०।१३०।५॥

मित्रावरुण देवता का विराट् छन्द है । इन्द्र का अभिश्री छन्द है । दिन के इस भाग का छन्द त्रिष्टुप् है । सारे देवों अथवा विश्वेदेव नामक देवता जगती से आविष्ट हैं । और उससे (इन छन्दों से) ऋषि और मनुष्य (वेदार्थ करने को) समर्थ होते हैं ।

इससे प्रतीत होता है कि दिए हुए छन्द उन-उन देवताओं से सम्बद्ध हैं । इस तथ्य में कुछ संशय उत्पन्न होते हैं –

  • यदि मन्त्र देखे जाएं तो छन्द और देवता में यह सम्बन्ध सर्वत्र नहीं पाया जाता – गायत्री छन्द वाले मन्त्र का देवता अग्नि ही हो, ऐसा आवश्यक नहीं है । 
  • विराट् नामक कोई छन्द नहीं है, यह शब्द सभी छन्दों का विशेषण है । इसलिए यहां किस छन्द का ग्रहण करना है, यह स्पष्ट नहीं है ।
  • अभिश्री नामक कोई छन्द मुझे प्राप्त नहीं हुआ । अतः, यहां किस छन्द का ग्रहण करना है, यह भी सन्देहास्पद है ।
  • त्रिष्टुप् को ’दिन के इस भाग’ से जोड़ा गया है । क्या यह ब्राह्म अहोरात्र के दिन (सृष्टिकाल) से जोड़ा जा रहा है ? यदि हां, तो इसका अर्थ क्या हुआ, क्योंकि अधिकतर वैदिक मन्त्र इस सृष्टि से ही तो सम्बद्ध हैं ?

इस प्रकार इन मन्त्रों में उत्तर कम और प्रश्न अधिक मिलते हैं ! तथापि ये कुछ बहुत गूढ़ार्थ कह रहे हैं, यह स्पष्ट है । क्या यह सम्भव है कि किसी भी मन्त्र में दिए देवता के साथ-साथ छन्द से सम्बद्ध इन देवताओं का भी ग्रहण किया जाना चाहिए ? मैंने कुछ मन्त्रों को इस प्रकार परखा, परन्तु मुझे इन देवताओं से सम्बद्ध कोई अर्थ समझ में नहीं आए । अथवा क्या यह सृष्ट्युत्पत्ति से सम्बद्ध कुछ तथ्य बताये गए हैं, क्योंकि यह प्रकरण उसी का है ? तब भी छन्द और देवता में परस्पर सम्बन्ध तो मानना ही पड़ेगा । क्या ये अग्निहोत्र के मन्त्रों के बारे में कुछ बता रहे हैं ? जो भी यहां रहस्य हो, यह स्पष्ट बताया गया है कि वेदार्थ को ठीक-ठीक जानने के लिए देवता और छन्द का सम्बन्ध जानना अनिवार्य है । सम्भवतः यह विद्या पूर्णतया लुप्त हो गई है !

प्रथम प्रकरण से प्रमाणित हो जाता है कि वैदिक मन्त्रों के ऋषि मन्त्रद्रष्टा नहीं हैं अपितु उस मन्त्र का विषय निर्धारित करते हैं । उनको मनमानी रूप से बदला नहीं जा सकता । और उनसे मन्त्रार्थ में सहायता लेनी चाहिए । दूसरे प्रकरण में वैदिक मन्त्रों द्वारा देवता और छन्द के किसी गूढ़ सम्बन्ध को दर्शाया गया । छन्द और स्वर के बीच का सम्बन्ध हम पूर्व देख ही चुके हैं; यह एक नया सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध वास्तव में क्या है? इससे मन्त्रार्थ पर क्या प्रभाव पड़ता है? – ये विषय अन्वेषणीय हैं ।