स्थावर में जीव

अपने लेख ‘भक्ष्याभक्ष्य और शाकाहार में पाप पर विचार’ में मैंने बताया था कि स्थावरों में भी आत्मा, प्राण व संवेदना होती है । इस लेख के उपरान्त कुछ व्यक्तियों ने अपना विरोध प्रकट किया और मुझे कुछ मान्य व्यक्तियों की पुस्तकों व विचारों से अवगत कराया, जो कि स्थावरों को पूर्णतया जड़ मानते हैं या फिर जड़प्राय । वस्तुतः, वह लेख लिखने से पूर्व ही मैंने एक लेख पढ़ा था जिसमें इस प्रकार के विचार पाए थे । नहीं तो, मैं तो इस विषय को आज के युग में इतना सर्वानुमोदित समझती हूं कि मैं इस विषय पर एक पंक्ति भी नहीं लिखती ! तथापि कुछ जन जनसामान्य में अवैज्ञानिक तथ्य फैला रहे हैं, इसलिए में पुनः इस विषय पर लेखनी चला रही हूं ।

वस्तुतः यहां दो विषय हैं – १) स्थावरों में जीव नहीं होता २) जीव होते हुए भी उनमें संवेदना नहीं होती । इन मान्यताओं के मूल में इस बात को प्रमाणित करना लक्ष्य है कि शाकाहार पूर्णतया पापरहित है । परन्तु निष्कर्ष तथ्य पर आधारित होने चाहिए, निष्कर्ष पर तथ्य नहीं ! इसलिए पहले हम एक-एक करके दोनों विषयों को देखते हैं ।

स्थावर में जीवात्मा की उपलब्धि

पाश्चात्य विज्ञान में जीवात्मा को तो पूर्ण मान्यता नहीं है, परन्तु जीव को है । उन्होंने बड़े अच्छे प्रकार से जीव/चेतन वस्तु और अचेतन में भेद सात बिन्दुओं से किया है जो सभी जीवित वस्तु में एकसाथ मिलने चाहिए । ये इस प्रकार हैं, और मुझे लगता है कि इनसे किसी को भी कोई विरोध नहीं हो सकता –

  • स्वचलन – सभी प्राणी – हां, पेड़-पौधे भी – किसी न किसी प्रकार से अपने आप हिलते-डुलते हैं । जबकि जंगम प्राणी का तो नाम ही जंगम इसलिए है कि वह हिलता है, स्थावर या अचर का नाम भी इसलिए है कि वह ‘नहीं हिलता’ । लेकिन यह अन्तिम बात पूर्णतया सही नहीं है । पेड़ों की गति जहां अधिकतर आंखों से नहीं दिखती (केवल अनुमित होती है), वहीं कुछ विशेष प्रसंगों में दिखती भी है, जैसे – सूर्यमुखी फूल का सूर्य के साथ-साथ अपने मुख को मोड़ना, छुईमुई का छूने पर बन्द हो जाना, आदि । अन्य गतियां, जैसे फूलों का खिलना, बीज से अंकुर निकलना, आदि, इतनी धीमी गति से होती हैं कि कुछ दिनों के अन्तराल पर ही वह स्पष्ट होती है ।
    जो जड़ पदार्थ हैं, उनमें भी गति पाई जाती है, लेकिन वह स्वेच्छा से नहीं होती – किसी अन्य निश्चित कारण से होती है । जैसे – पृथिवी सूर्य के आकर्षण से उसके चारों ओर घूमती है; पत्थर धक्का देने से लुढ़कने लगता है । यह जड़ और चेतन की गति में भेद है ।
  • बढ़ना – जीवित वस्तुएं अन्दर से बढ़ती हैं । वे भोजन करती हैं (अगला बिन्दु) और उसको ग्रहण करके उसको अपने शरीर के अंशों में बदलती हैं । एक कोशिका वाले से लेकर करोड़ों कोशिका वाले प्राणी – सभी इस प्रकार बढ़ते हैं । 
    दूसरी ओर जड़ पदार्थ अन्य वस्तु को लेकर, उसको कुछ और में बदलकर, अपने शरीर का अंश नहीं बना सकते । हम कह सकते हैं कि खारे पानी को सुखाने से नमक उत्पन्न हो जाता है, जो कि कुछ और है और पहले नहीं था, अथवा ज्वालामुखी पृथिवी के अन्दर के लावा को लेकर अपना आकार बढ़ा लेता है । परन्तु नमक खारे पानी में घुला हुआ अदृश्य था, और लावा पृथिवी का ही अंश होता है और वह ज्वालामुखी पर कुछ और परते चढ़ा देता है । ये दोनों प्रक्रियाएं बहुत ही सरल हैं, जबकि प्राणी का बढ़ना बड़ी अद्भुत प्रक्रिया होती है । वह आकार में ही नहीं, परन्तु प्रकार में भी बदलता है । इसलिए जो बीज होता है वह पौधा नहीं होता, और जो पौधा होता है वह पेड़ नहीं होता, और जो पेड़ होता है वह फल और उसके अन्दर का बीज नहीं होता ।
  • भोजन करना – सभी प्राणियों को भोजन की आवश्यकता होती है । ये उपर्युक्त दोनों बिन्दु से सम्बद्ध है, क्योंकि जो भी वस्तु हिलेगी या बढ़ेगी, वह ऊर्जा का व्यय करेगी । यह ऊर्जा जीव भोजन से प्राप्त करते हैं । जैसा ऊपर कहा गया, अन्य वस्तु को लेकर अन्य में बदलने के लिए प्राणियों के शरीर में (पेड़ों में भी) एक बहुत ही चमत्कारी फैक्टरी होती है, जो कि अप्राणी में नहीं होती । पेड़ तो अपने ही लिए भोजन नहीं प्राप्त करते, परन्तु अन्य प्राणियों के लिए भी भोजन बनाते हैं । इस प्रकार फल का गूदा पेड़ के किसी काम का नहीं होता, वह दूसरे प्राणी के भोजन के लिए बनाया जाता है, जिसे खाने में वह पशु पेड़ का भी किसी रूप में उपकार करता है । इसलिए यह प्रक्रिया पेड़ के लिए भी लाभकारी होती है ।
  • ऊर्जा उत्पादन – भोजन से सम्बद्ध है ऊर्जा का उत्पादन । प्राणी अपनी ऊर्जा स्वयं बनाने में समर्थ होता है, जिससे वह अपनी जैविक क्रियाएं करता है और बढ़ने की शक्ति पाता है । भोजन इसमें मुख्य स्रोत होता है । भोजन को ऊर्जा में बदलने के लिए, शरीर में विशेष संरचनाएं और प्रक्रियाएं होती हैं (शास्त्रों में इनकों ‘प्राण’ द्वारा कहा जाता है) । ये ज्वालामुखी, विद्युत् आदि से कहीं अधिक क्लिष्ट व नियन्त्रित होती हैं । पेड़ों में भी ये प्रक्रियाएं पाई जाती हैं, परन्तु जड़ों में नहीं ।
  • मल-विसर्जन – भोजन का कुछ अंश प्राणी के काम का नहीं होता, उसे वह बाहर फेंक देता है । भोजन को पचाने की क्रिया में भी कुछ अवांछित पदार्थ बनते हैं, जिनको शरीर को बाहर फेंकना पड़ता है । पेड़ भी कार्बन-डाइऔक्साइड, भाप, आदि का विसर्जन करते हैं । कुछ मशीने भी उत्सर्जन करती हैं और उस मल की उत्पत्ति भी एक प्रकार से समान होती है । परन्तु मशीन में प्राणी के अन्य अंश नहीं पाए जाते ।
  • विषय-ग्रहण – सब जीवों के इन्द्रियां होती हैं, चाहे वह एक हो, दो हो या पूरी पांच । इनसे वह निकट के वातावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करके अपने अनुकूल क्रिया करता है । गृह से बाहर निकलने पर जब हम वर्षा देखते हैं, तो अपना छाता खोल देते हैं । उपर्युक्त विद्वानों का मानना है कि पेड़ों में ये इन्द्रियां नहीं होतीं । यह बात सरासर गलत है । पेड़ों की जड़ें पानी की ओर धरती के अन्दर-अन्दर ही मुड़ जाती हैं । पेड़ों का तना प्रकाश की ओर बढ़ने लगता है । लताओं के अग्रभाग घन पदार्थ को जान लेते हैं और लताएं उससे लिपट कर चढ़ जाती हैं । छुइमुई और सूरजमुखी का तो उदाहरण मैंने ऊपर दिया ही था । 
    जैसा मैंने पिछले लेख में बताया था, पेड़ों में भेद यह है कि उनके इन्द्रियों के गोलक नहीं होते जैसे विकसित पशुओं के होते हैं । वह ऐसे ही जैसे अविकसित पशुओं के भी गोलक नहीं होते – केंचुआ की कोई इन्द्रिय दृष्टिगोचर होती है क्या ? तथापि वह अपने पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ जानने में सक्षम होता है । इसी प्रकार पेड़ों की इन्द्रियों को समझना चाहिए (रसायन के आधार पर होने के कारण, इन्हें सम्भवतः घ्राणेन्द्रिय मानना चाहिए) ।
  • प्रजनन – कोई भी जीवित वस्तु अपने साथ समाप्त नहीं हो जाती – वह अपनी एक कौपी अवश्य छोड़ जाती है ! इसी से वह जाति आगे बढ़ती है । जैसे कई पशुओं में रज और वीर्य के संयोग से बच्चा पैदा होता है, वैसे ही अधिकतर पेड़ों के नर व मादा अंश होते हैं जो संयुक्त होकर बीज की उत्पत्ति करते हैं जिससे नया पौधा निकलता है । यह प्रक्रिया भी बड़ी विशिष्ट होती है, चाहे प्राणी एक कोशिका का ही क्यों न हो । ऐसी कोई प्रक्रिया जड़ पदार्थों में नहीं पाई जाती । 

इन सात बिन्दुओं के कारण, स्थावरों को जड़ मानना अज्ञानता है ।

वस्तुतः, एक कोशिका जीवन का वैसा ही सूक्ष्मतम अंश है जैसा परमाणु द्रव्यों का, और जहां जीवन है, वहां जीवात्मा का होना अनिवार्य है । वृक्षों में ये कोशिकाएं पायी जाती हैं, इसलिए वे भी जीवित होते हैं । तथापि, इस विषय पर अब कुछ वैदिक प्रमाणों को भी देख लेते हैं । 

ऋग्वेद और अथर्ववेद में मृत्योपरान्त की गतियों को बताते हुए एक मन्त्र कहता है – 

सूर्यं चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा ।

अपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रति तिष्ठा शरीरैः ॥ऋग्वेदः १०।१६।३, अथर्ववेदः १८।२।७॥

अर्थात् मरणोपरान्त हे आत्मन् ! तेरा नेत्रप्रकाश सूर्य को (वापस) चला जाए (इसी प्रकार अन्य इन्द्रियां समझ लेनी चाहिए) । तेरा आत्मा अपने धर्म (कर्म) के अनुसार अन्तरिक्षलोक, द्युलोक वा पृथिवीलोक जाए; अथवा जलीय प्रदेशों में चला जा, यदि वे तेरे लिए हितकर हों (तेरे कर्मफलानुसार हों); या ओषधियों (स्थावरों) में शरीरों के साथ (गमन के अभाव के कारण) ठहर ।

इस प्रकार वेद वृक्षों में आत्माओं के वास को स्पष्टतः कह रहा है । मनुस्मृति के उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे… ॥१।४६॥ को तो हम पिछले लेख में देख ही चुके हैं । अब छान्दोग्योपनिषद् का भी एक प्रमाण देख लेते हैं –

तेषां खल्वेषां भूतानां त्रीण्येव बीजानि भवन्त्यण्डजं जीवजमुद्भिज्जमिति ॥ छान्दोग्योपनिषद् ६।३।१॥

 अपने पुत्र श्वेतकेतु को ब्रह्मविद्या देते हुए पिता उद्दालक कहते हैं – इन सब भूतों (प्राणियों) के तीन (प्रकार के) ही बीज होते हैं (तीन प्रकार से ही वे उत्पन्न होते हैं) – अण्डज, जीवज (जरायु से उत्पन्न) और उद्भिज्ज (स्थावर) । इस प्रकार उपनिषद् को भी स्थावरों के जीवित होने में कोई संशय नहीं है ।

स्थावरों में जीवों को संवेदना

अब हम दूसरा प्रश्न देखते हैं – क्या जीवों में सुख-दुःख का अनुभव होता है कि नहीं ? इस प्रश्न का आधा उत्तर तो ऊपर के छठे बिन्दु में दिया जा चुका है, जहां हमने देखा कि पेड़ों में अपने प्रकार की इन्द्रियां होती हैं जिससे वे विषय ग्रहण करते हैं । आधा उत्तर मेरे पिछले लेख में था, जहां मैंने लिखा था – “वैज्ञानिकों ने पाया है कि इन प्रक्रियाओं में अनेक रसायन कारण होते हैं, जैसे plant hormones (auxins), hormone signaling pathways, neurochemical signaling, electric potential signaling, reaction phytosomes, antibiotics, आदि आदि । … उपर्युक्त आधुनिक अनुसन्धान में पाया गया है कि कटने, जलने, आदि पर पेड़ों में कष्ट होता है, जिसके कारण वे कुछ रसायन छोड़ते हैं । जैसे टमाटर के पौधे के कहीं कट जाने पर, वह पौधा एक गन्ध छोड़ता है, जिससे कि दूसरे पौधे अपना सुरक्षा कवच ऊपर कर लेते हैं । इस प्रकार स्थावर जैसे ‘चीख’ छोड़ते हैं और अन्य पेड़ उनकी इस चेतावनी को समझने में सक्षम होते हैं । यहां तक कि यह भी पाया गया है कि संगीत आदि से पेड़ों की पैदावार बढ़ जाती है । इसलिए जो ये समझते हैं कि वृक्षों में कोई ज्ञान अथवा संवेदना नहीं होती, वे गलत हैं । इस तथ्य में अब कोई भी संशय नहीं रहा है कि स्थावरों में भी संवेदना होती है ।”

देखिए यदि परमात्मा को बिना संवेदना के जीवात्माओं को स्थावरों में बैठाना होता, तो वह उनको शरीर देता ही क्यों ? सुप्तावस्था में तो वह उनको ऐसे भी रख सकता था जैसे प्रलय के समय रखता है । प्राणियों को परमात्मा शरीर अकारण कभी नहीं देगा, और शरीर देने का कारण सारे शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पाप-पुण्य भोग होता है । सो, पेड़ों में यह वचन क्यों न लागू हो ?

यह धारणा कहां से बनी इसका मुझे कुछ अंदेशा मिला है । सत्यार्थ-प्रकाश के द्वादश समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने बताया है कि किन अवस्थाओं में जीव को पीड़ा नहीं पहुंचती । वे लिखते हैं, “देखो, पीड़ा उसी जीव को पहुंचती है जिसकी वृत्ति (अनुभूति) सब अवयवों के साथ विद्यमान हो । इसमें प्रमाण – 

                  पञ्चावयवयोगात् सुखसंवित्तिः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ५।२७॥

(अर्थात्) जब पांचों इन्द्रियों का पांचों विषयों के साथ सम्बन्ध होता है, तभी सुख वा दुःख की प्राप्ति जीव को होती है । जैसे बधिर को गालीप्रदान … 

देखो, जब मनुष्य का जीव सुषुप्ति दशा में रहता है, तब उसको सुख वा दुःख की प्राप्ति कुछ भी नहीं होती, क्योंकि वह शरीर के भीतर तो है, परन्तु उसका बाहर के अवयवों के साथ उस समय सम्बन्ध न रहने से सुख-दुःख की प्राप्ति नहीं कर सकता ।”

यहां ध्यान देने योग्य है कि महर्षि ने स्थावरों के बारे में नहीं कहा है, और “जब पांचों इन्द्रियों का पांचों विषयों के साथ सम्बन्ध होता है” से निष्कर्ष निकालना कि अवश्य ही पांचों इन्द्रियां अपने-अपने पांच विषयों से युक्त हों, तभी पीड़ा होगी, यह उपयुक्त नहीं है । जैसे बधिर के उदाहरण में, क्या बधिर को कांटे चुभने से चोट व पीड़ा न होगी ? महर्षि का कहना केवल इतना है कि जो इन्द्रिय जिस समय काम न कर रही हो, तो उसके विषय से पीड़ा (या सुख) नहीं हो सकता । इसमें तो संशय के लिए अवकाश ही नहीं है, परन्तु उनके इस कथन को अन्यों द्वारा आगे बढ़ाया गया है । सो, प्रो०डा० सुरेन्द्र कुमार जी ने अपने मनुस्मृति के भाष्य ‘विशुद्ध-मनुस्मृति’ में महर्षि के उपर्युक्त उद्धरण के आगे लिखा है – “इसी प्रकार वृक्षों को पीड़ा की अनुभूति नहीं होती और इसी कारण वृक्षों के काटने आदि में हिंसा तथा हिंसाजन्य पाप नहीं होता ।” यहां बहुत आवश्यक है कि हम यह ध्यान रखें कि ये सुरेन्द्र कुमार जी के वचन हैं, महर्षि के नहीं । इस व्याख्या को कुछ औरों ने और भी आगे बढ़ाकर वृक्षों में जीवात्माएं सुप्तावस्था में होती हैं, इसलिए कुछ भी अनुभव नहीं करती – यह भी कह दिया ।

अब हम इन वचनों को परखते हैं । यदि संवेदना के लिए पांचो की पांचों इन्द्रियों की आवश्यकता होती, तो आधे से अधिक पशुओं को भी कोई संवेदना न होती, क्योंकि विकसित पशुओं (mammals) को छोड़कर प्रायः सभी पशुओं में एक या अधिक इन्द्रियां कम होती हैं । जैसे – प्रायः पक्षियों में घ्राण-शक्ति नहीं होती, मछलियों में श्रवण-शक्ति नहीं होती । तो क्या यह मान लिया जाए कि इनकी हिंसा में कोई पाप नहीं है ? फिर तो मुर्गी और मछली के मांसाहार में भी कोई दोष न हुआ ! अरे, भले मानसों ! एक भी इन्द्रिय होने पर आत्मा को संवेदना होती है, और वह संवेदना सुख-दुःख का उत्पादन कर सकती है । जैसा कि हमने देखा अचरों में भी संवेदना अब प्रयोगों से सिद्ध हो गई है । इसलिए उनमें सुख-दुःख का पाया जाना अनिवार्य है ।

और मनुस्मृति के जिस श्लोक पर सुरेन्द्र जी ने यह टिप्पणी दी है, वह भी जानने योग्य है –

            तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना ।

         अन्तःसञ्ज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ॥मनुस्मृतिः १।४९॥

अर्थात् पूर्वकृत कर्मों के हेतु से, तमोगुण (अज्ञान) से अनेक प्रकार से ढके हुए स्थावर, सुख-दुःख से युक्त होते हुए, भीतर जानने वाले होते हैं (अपनी संवेदनाएं अन्दर ही अन्दर अनुभव करते हैं, बाहर नहीं प्रकट कर पाते) । सो, यहां मनु ने स्पष्ट रूप से वृक्षों में बद्ध जीवात्माओं को ‘सुखदुःखसमन्वित’ बताया है, अर्थात् वे सुख-दुःख का अनभव करते रहते हैं । तो पहले तो आत्मा के सुप्तावस्था में स्थित होने का निराकरण हो गया । पुनः, प्रश्न उठता है कि ये आत्माएं सुख-दुःख का अनुभव कैसे कर रहे हैं ? यदि बाह्य कारण से उनको कोई संवेदना नहीं होती, तो क्या वे अकारण ही सुख-दुःख भोगते रहते हैं ? अन्य जीवों में तो ऐसा नहीं पाया जाता ! उन्हें तो कुछ हेतु चाहिए जिनसे वे पीड़ा का अनुभव करें । और यह ‘अन्तःसञ्ज्ञ’ जो उनको बताया गया, तो वे किस करण से ज्ञान ग्रहण करते हैं, क्योंकि इन्द्रियां तो उनमें हैं नहीं ? क्या मुक्तात्माओं के समान बिना करणों के अनुभव कर लेते हैं ? यह तो उनको अन्य आत्माओं के ऊपर ला बैठालेगा ! और यह सुख-दुःख किस अवयव में होता है ? अन्य प्राणियों में हम जानते हैं कि कर्म का भोग शरीर के अवयव – शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक – से होता है । जब आत्मा शरीर से अपने को परे कर लेता है (योग द्वारा), तब वह सुख-दुःख से भी परे हो जाता है । वृक्ष मे यह सुख-दुःख कहां उत्पन्न हो रहा है ? यह ज्ञान कहां उत्पन्न हो रहा है ? इन सब अन्तरविरोधों से हम जान सकते हैं कि यह व्याख्या कितनी त्रुटिपूर्ण है । 

इस विषय में या तो हमें विज्ञान का आश्रय लेना चाहिए या हमारे शास्त्रों का । दोनों में ही इस विषय पर कोई मतभेद नहीं है । इन दोनों को ही त्याग कर, शाकाहार के पापरहित होने के दुराग्रह को लेकर, हम दोनों से परे, अपनी कोई नई अटकल नहीं निकाल सकते और उसके सच होने का दावा नहीं कर सकते । शेष तो मानने वाले पर निर्भर है – मानने को तो झूठ या सच, कुछ भी माना जा सकता है ! सत्य को ढूढ़ कर, परख कर मानने वाले धीर मनस्वी ही होते है…