कतिपय ऋषियों के अर्थ दर्शाने वाले मन्त्र

‘वेदमन्त्रों में विभिन्न ऋषियों के अर्थ’ शीर्षक वाले लेख में मैंने वेदमन्त्रों पर उल्लिखित चार ऋषियों के विभिन्न अर्थ दर्शाए । इनका प्रयोग मन्त्रों में देखे बिना, यह विषय पूरा नहीं होता । इसलिए इस लेख में मैं कुछ ऐसे मन्त्र दे रही हूं, जिनके ऋषि पूर्व लेखानुसार हैं । वहां जितने अर्थ दिए हुए थे, उनमें से कुछ अर्थ इन मन्त्रों में कैसे अर्थ को पूर्ण करते हैं, उसमें विशेषता उत्पन्न करते हैं, यह मैंने दर्शाया है । मन्त्रों के चुनाव के लिए मैंने अपने प्रिय यजुर्वेद के बृहत् तैंतीसवें अध्याय को लिया । इस अध्याय में ९७ मन्त्र होने के कारण, इसमें तीन ऋषियों के उदाहरण तो मुझे आसानी से प्राप्त हो गए, परन्तु एक ऋषि के लिए मुझे यजुर्वेद के १८वें अध्याय का भी ग्रहण करना पड़ा ।

पिछले लेख का थोड़ा सिंहावलोकन करें, तो हमने ऋषि पदों के ये अर्थ पाए थे –

वसिष्ठ – अतिशय वास कराने वाला, प्राण, जीवन, अतिशय गुणात्मक/श्रेष्ठ।

भरद्वाज – विज्ञान वा अन्न को भरने वाला, श्रोत्र, मन, सुख-समृद्धि विषयक ज्ञान

जमदग्नि – प्रज्वलित अग्नि, चक्षु, रूप, प्रकाश, विशेष ज्ञान, प्रजापति

विश्वकर्मा – कर्म अथवा कर्मकाण्ड विषयक, वाणी, वायु, दक्षिण, प्रजापति

अब हम एक-एक ऐसे मन्त्र को लेते हैं जिसका ऋषि उपर्युक्त है ।

वसिष्ठ ऋषि वाला मन्त्र

प्र वावृजे सुप्रया बर्हिरेषामा विश्पतीव बीरिट इयाते ।

विशामक्तोरुषसः पूर्वहूतौ वायुः पूषा स्वस्तये नियुत्वान् ॥यजुर्वेदः ३३।४४॥

ऋषिः – वसिष्ठः, देवता – वायुः

अर्थात् वायु और पूषा = सूर्य शीघ्रकारी और वेगवान् हैं । उनके गुणों को पूर्वजों ने सराहा है । दो प्रजापालक राजाओं के समान, वे प्रजाओं के सुख के लिए अन्तरिक्ष में भली प्रकार और प्रकृष्टता से (बिना रोक-टोक के) दिन-रात विचरते हैं और जलों को प्राप्त करते हैं ।

यह महर्षि दयानन्द के भाष्य से अर्थ ग्रहण किया गया है । अब यहां यदि हम ऋषि वसिष्ठ के अर्थ जोड़ दें, तो हम जानेंगे कि यहां वायु से प्राणवायु की बात हो रही है । वायु के वातावरण में सुन्दरता से बहने से जीव का कोई विशेष लाभ नहीं होता, परन्तु प्राण बिना रोक-टोक के चलते हैं तब ही जीवन सुन्दर बनता है । फेफड़ों में अन्दर जाकर वायु जल भी ग्रहण करती है । इस विषय को भी मन्त्र में कहा गया है । इस प्रकार इस मन्त्र में, वायु और सूर्य दोनों का वर्णन होने पर भी, वायु की प्रधानता है, जो कि इसके देवता से भी स्पष्ट है । परन्तु यदि हम ‘अतिशय वास कराने वाला’ वसिष्ठ का अर्थ भी ग्रहण करें, तो सूर्य की ‘पूषा’ संज्ञा स्पष्ट हो जाती है – अपनी किरणों से जीवों का पोषण करने से और वनस्पतियों को पोषित करके अन्य जीवों के लिए भोजन उत्पन्न करने से सूर्य भी ‘वसिष्ठ’ है । दिन-रात ये प्राणवायु और सूर्य चलते रहते हैं जिससे जीव का जीवन बना रहे ।

इस प्रकार यहां ‘वसिष्ठ’ ऋषि के अर्थ समझने से मन्त्र के अर्थ में वृद्धि होती है और उसका महत्त्व और भी स्पष्ट होता है ।

अब अगला ऋषि –

भरद्वाज ऋषि वाला मन्त्र  

त्वाँ हि मन्द्रतममर्कशोकैर्ववृमहे महि नः श्रोष्यग्ने ।

इन्द्रं न त्वा शवसा देवता वायुं पृणन्ति राधसा नृतमाः ॥यजुर्वेदः ३३।१३॥

ऋषिः – भरद्वाजः, देवता – विश्वेदेवाः

अर्थात् हे अग्निरूप राजन् ! आप जो अतिशय प्रशंसा से सत्कृत हैं, और प्रकाशस्वरूप सभाजनों के साथ हैं, उस आपको हम स्वीकारते हैं । (इस कारण से) आप हमारे महत्त्वपूर्ण वचन सुने (कि आपकी प्रजा के क्या कष्ट हैं, उसकी क्या आवश्यकताएं हैं) । दिव्य गुणों से युक्त आप इन्द्र (सूर्य) के समान ऐश्वर्यवान् (तेजस्वी) और वायु के समान बलिष्ठ हैं । ऐसे आपको नायक-जन (सभासद व अग्रणी नागरिक) बल (सेना) और धन से पूरित करते हैं ।

यहां प्रजा की संवेदना को सुनने से ऋषि भरद्वाज = श्रोत्र का सम्बन्ध जुड़ता है । यही नहीं, ऋषि होने से इस विषय पर जोर दिया गया है । राजा के सभासद आदि हों, यह तो सब ठीक है, परन्तु मन्त्र का मुख्य उपदेश राजा को यह है कि वह सदैव प्रजा से सीधा सम्पर्क बनाए रखे और उसकी बातों पर विशेष ध्यान दे ।

पुनः, मन्त्र में सुराज्य का वर्णन है, जहां धन-धान्य और बल की कोई कमी न हो । ‘भरद्वाज = भरत् + वाज = अन्नादि धनों से भरा हुआ’ का यह पूरण अर्थ भी यहां पर युक्त हो जाता है । अर्थात् प्रजा कह रही है कि – “हे राजन् ! आप अच्छे नायकों को नियुक्त करिए जिससे आपके शासन में किसी प्रकार के धन की कमी न हो । हम आपके नियमों का पालन तो करते ही हैं, आपके गुणगान तो करते ही हैं, परन्तु आप भी हमारे कष्टों को जानिए । तभी यह राष्ट्र वास्तव में सुदृढ़ हो सकेगा ।” जो शासक प्रजा की न सुने तो निरंकुश हो जाए !

सम्भवतः, देवता ‘विश्वेदेवाः’ से (अर्कशोकैः, नृतमाः) दिव्यगुणयुक्त सभासद कहे गए हैं ।

इस प्रकार भरद्वाज ऋषि के दो अर्थ यहां चरितार्थ होते हैं, जिनमें से एक – प्रजा की बात सुनने का विषय – प्रथमदृष्ट्या इतना महत्त्वपूर्ण नहीं प्रतीत होता और वह अन्य वचनों के बीच में भुलाया भी जा सकता है, परन्तु ऋषि पद के कारण हमें उसका सही महत्त्व ज्ञात होता है । देवता के अनुरूप प्रथम विषय है – दिव्य राजा का प्रजा द्वारा ग्रहण, व उसके द्वारा महान् नेताओं का सभा के लिए चयन करना । और ऋषि के अनुरूप द्वितीय विषय है – राजा का सदा प्रजा की बात सुनना और उसपर कार्य करके राष्ट्र को समृद्धिशील बनाना ।

जमदग्नि ऋषि वाला मन्त्र 

बण्महाँ असि सूर्य बडादित्य महाँ असि ।

महस्ते सतो महिमा पनस्यतेऽद्धा देव महाँ असि ॥यजुर्वेदः ३३।३९॥

ऋषिः – जमदग्निः, देवता – विश्वेदेवाः

अर्थात् हे सूर्य ! तू निश्चयेन महान् है । हे आदित्य ! तू निश्चयेन महान् है । तेरी महान् सत्ता की महिमा का गुणगान होता है । हे देव ! तू प्रसिद्धरूप से महान् है ।

यहां सूर्य, आदित्य व देव से भौतिक सूर्य का ग्रहण करें, तो प्रजाओं द्वारा उसके गुणगान की गाथा कही गई है । क्योंकि प्रजा का अस्तित्व ही उसपर आश्रित है । और यदि उक्त शब्दों से परमात्मा का ग्रहण किया जाए तो पूरा ब्रह्माण्ड, सभी भौतिक देव जैसे उसकी स्तुति कर रहे हैं, उसको ज्ञापित करा रहे हैं । किस भी रूप में इस मन्त्र को समझा जाए, सूर्य अथवा परमात्मा के प्रकाशमय रूप का यहां ग्रहण होता है, जिसलिए इस मन्त्र का ऋषि ‘जमदग्नि’ है । सूर्य और परमात्मा के प्रजापति-रूप का भी यहां ग्रहण है । ये दोनों ही भाव अगले मन्त्र में और भी स्पष्ट हो जाते हैं –

बट् सूर्य श्रवसा महाँ असि सत्रा देव महाँ असि ।

मह्ना देवानामसुर्यः पुरोहितो विभु ज्योतिरदाम्यम् ॥यजुर्वेदः ३३।४०॥

ऋषिः – जमदग्निः, देवता – सूर्यः

अर्थात् हे सूर्य ! अन्न अथवा धन से तुम महान् हो । हे देव ! तुम अवश्य ही महान् हो । अपनी महानता के कारण तुम पृथिवी आदि देवों अथवा विद्वानों के प्राणों के लिए हितकर, सबसे पुराने हितकारक, व्यापक, प्रकाशस्वरूप व अहिंसक हो ।

स्पष्टतः, यहां भी सूर्य व परमेश्वर, दोनों का ही सन्दर्भ लिया जा सकता है । ‘ज्योतिः’ से यहां प्रकाश का सन्दर्भ बहुत ही स्पष्ट है । प्रजाओं के लिए प्रथम हितकारक होने से प्रजापति अर्थ भी प्रदर्शित है ।

विश्वकर्मा ऋषि वाला मन्त्र 

यदाकूतात् समसुस्रोद्धृदो वा मनसो वा सम्भृतं चक्षुषो वा ।

तदनुप्रेत सुकृतामु लोकं यत्र ऋषयो जग्मुः प्रथमजाः पुराणाः ॥यजुर्वेदः १८।५८॥

ऋषिः – विश्वकर्मा, देवता – अग्निः

अर्थात् जो कुछ उत्साह से, स्वात्मा से या अन्तःकरण से या चक्षु आदि इन्द्रियों से भली प्रकार प्राप्त हो, उस के अनुसार आचरण करते हुए, उस अच्छे कर्मों के लोक (मोक्ष) को प्राप्त करो जहां प्रथम उत्पन्न प्राचीन ऋषि गए हैं ।

ऋषि दयानन्द ने यहां बताया है कि सत्यासत्य का निर्णय करते समय, उसको पांच कसौटियों पर परखो – १) ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभावानुकूल हो; २) सृष्टिक्रम के अनुकूल हो; ३) प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों के अनुकूल हो; ४) सज्जनों के आचार के अनुकूल हो; ५) अपने आत्मा व मन के अनुकूल हो । जो इन कसौटियों पर खरा निकले, वह सत्य, अन्यथा असत्य । यहां महर्षि ने मन्त्र से कुछ अधिक उपदेश दिया है, जो ऋषि होने के नाते अपेक्षित ही है ! तथापि विश्वकर्मा ऋषि के होते, हमें यहां कर्म विषय में भी इस वाक्य को घटाना चाहिए कि किसी भी कर्म को करने से पहले हमें जांचना चाहिए कि क्या इस कर्म को करने में – १) मेरे आत्मा में उत्साह है? २) क्या मेरे मन में उत्साह है? ३) क्या यह प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रमाणित है (जो मुझे इष्ट है, वह इस कर्म द्वारा प्राप्त होना सम्भव है या नहीं, यथा – गंगा में स्नान करने से पाप धुलने असम्भव हैं, इसलिए यह कर्म व्यर्थ है) ? इस प्रकार विवेचन करके ही हमें कार्यों का ग्रहण करना चाहिए और बुरे आचरण को त्यागना चाहिए ।

क्योंकि यह कसौटी सभी कर्मों पर लगती है, इसलिए इस मन्त्र का ऋषि ‘विश्वकर्मा’ है । इससे स्वामी दयानन्द का दिया विश्वकर्मा का अर्थ – विश्वं सम्पूर्णं क्रियाकाण्डं सिध्यति यया सा वाक् (यजुर्वेदः १।५) – चरितार्थ हो जाता है ।

उपर्युक्त उदाहरणों से हमने जाना कि कैसे मन्त्रों के जो ऋषि पदों के अर्थ हमने पिछले माह के लेख में देखे थे, वे खरे उतरते हैं । यही नहीं, ऋषियों के अर्थ जानते हुए जब हम मन्त्र के अर्थ करते हैं, तो अर्थों के नए आयाम उभर कर आते हैं और अर्थ और स्पष्ट हो जाते हैं । आज के समय में देवता पर दिए पद ही अर्थीकरण में कम प्रयोग किए जाते हैं, ऋषि की ओर ध्यान देने की तो बात ही क्या ! मेरे मत में यह घोर भूल है । इन दोनों ही अंगों का मन्त्र के अर्थ पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, इनको ध्यान में रखकर ही वेदार्थ के लिए प्रवृत्त होना चाहिए ।