कोविड के लिए वैदिक प्रार्थना

इन दिनों कोविड का प्रकोप सबको भयभीत कर रहा है । सब ने, यदि स्वयं इस भयानक रोग को नहीं झेला है, तो अपने प्रियों और सगे सम्बन्धियों में इसका प्रताड़न अवश्य अनुभव किया है । इस द्वितीय लहर में कोई भी इस महामारी से अछूता नहीं रह पाया है । सबके मनोबल टूटे हुए हैं और जीवन बोझ-सा लगने लगा है । ऐसे में प्रार्थना हमें बहुत सहारा देती है । इसलिए इस लेख में मैं अथर्व वेद के एक ऐसे सूक्त की व्याख्या दे रही हूं, जो कोविड के लिए बहुत उपयुक्त है । मेरी व्याख्या प्रो० विश्वनाथ विद्यालंकार जी के अथर्ववेद भाष्य पर आधारित है (परन्तु कुछ भिन्न भी है !) ।

सूक्त का ऋषि ‘शन्तातिः’ है, जो शब्द सूक्त के पांचवे मन्त्र में भी पाया जाता है, जहां स्पष्टतः इसका अर्थ है रोगों का शमन करने वाला साधन या साधन-समूह । सूक्त में मुख्य रूप से यक्ष्म = कोई भी फेफड़ों का रोग लक्षित है, जैसे कोविड । आजकल यक्ष्म से केवल टी०बी० समझा जाता है, परन्तु वस्तुतः किसी भी फेफड़े के रोग को संस्कृत में यक्ष्म कहा जाता है । इन रोगों के उपचार के कुछ साधन और कुछ प्रार्थना इस सूक्त में वर्णित हैं । सूक्त की देवता ‘चन्द्रमा विश्वेदेवा वा’ अर्थात् (रोग से मुक्त होने का) आह्लाद या सारे विद्वान् वा भूत हैं । यह सूक्त कुछ भेद के साथ ऋग्वेद १०।१३७ में भी पाया जाता है, परन्तु वहां ऋषि ‘सप्त ऋषयः, एकर्चाः’ है, और देवता ‘विश्वेदेवाः’ है । अर्थ भी कुछ समान ही लिए जाते हैं, परन्तु मुझे लगता वहां भेद होना चाहिए । तथापि, हम यहां अथर्ववेद को ही देखते हैं । 

            उत  देवा  अवहितं देवा  उन्नयथा  पुनः ।

         उतागश्चक्रुषं  देवा  देवा  जीवयथा  पुनः ॥अथर्ववेदः ४।१३।१॥

हे देवों = विद्वज्जनों ! यह मनुष्य जो (किन्ही कारणों से) अधोगति को प्राप्त हो गया है, तुम (इसे त्यागो मत, परन्तु) इसे पुनः ऊपर उठाओ । इस (सोशल डिस्टैन्सिंग न रखना आदि) पाप करने वाले को, हे देवों = वैद्यों ! आप पुनः (स्वस्थ) जीवन प्रदान करो ।

इस प्रकार मन्त्र बताता है कि मनुष्य कुछ गलत खान-पान-व्यायाम आदि कुकर्म कर बैठता है जिसके कारण उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है । ऐसे रुग्ण व्यक्ति को वैद्यों को कभी भी त्यागना नहीं चाहिए परन्तु भरसक प्रयत्न करके उसका जीवन ही नहीं, परन्तु स्वास्थ्य लाभ भी कराना चाहिए । इस कोरोना महामारी के काल में हम स्वास्थ्यकर्मियों में ऐसा ही उत्साह देख रहे हैं । वे सभी के ‘पापों’ के उपचार में लगे हैं !

यह मन्त्र सामान्य पापों और पतित के उद्धार के लिए भी उपयुक्त है, और इस रूप में इसको ऋग्वेद के समान मन्त्र में समझा भी जाता है, परन्तु इस सूक्त में प्रधान विषय यक्ष्म-रोग-निवारण है । इसलिए यहां यही अर्थ उपयुक्त है ।

अगले मन्त्र में फेफड़ों की क्रिया पर प्रकाश डाला गया है –

            द्वाविमौ  वातो  वात  आ  सिन्धोरा  परावतः ।

         दक्षं  ते अन्य  आवातु  व्यन्यो  वातु  यद्  रपः ॥४।१३।२॥

ये दो वायुएं बह रही हैं – एक (सिन्धु=) आकाश में स्थित वायु-समुद्र से (श्वास) और एक दूसरी ओर से (शरीर से निकलता हुआ निःश्वास) । (अन्य=) उनमें से पहला तेरे लिए (दक्षम्=) बल प्रदान करे, और दूसरा जो अशुद्धि है, उसे बाहर निकाल दे ।

यहां संक्षेप में फेफड़े की क्रिया को बताया गया है – प्रत्येक श्वास से हम औक्सिजन अन्दर लेते हैं जो कि जीवन के लिए अमृत है; और प्रत्येक निःश्वास शरीर में उत्पन्न कार्बन-डाइऔक्साइड को बाहर फेंक देती है, जो शरीर के लिए विष के समान है । जब तक हम इस क्रिया को पूर्णतया नहीं समझेंगे, तब तक हम फेफड़े के रोगों का उपचार करने में समर्थ नहीं होंगे । प्रधान कर्म बताने के साथ-साथ, वेद हमें प्रेरणा दे रहा है कि हम इस ज्ञान की वृद्धि करें और सांस-प्रक्रिया को और समझें ।

इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, अगला मन्त्र वायु को सम्बोधित करता है –

            आ  वात  वाहि  भेषजं  वि  वात  वाहि  यद्  रपः ।

         त्वं  हि  विश्वभेषज  देवानां  दूत  ईयसे ॥४।१३।३॥

हे वायो ! तू औषध को अन्दर ला और जो अशुद्धि है, उसे (हमसे) दूर ले जा, (क्योंकि) तू ही सब रोगों का औषध है और सब स्वास्थप्रद प्राकृतिक शक्तियों के दूत के समान गति कर रहा है ।

मन्त्र हमें बताता है कि प्राणवायु का आवागमन जीव के लिए सर्वप्रधान जीवनी-शक्ति है । अन्नादि भी प्राणरक्षण करते हैं, परन्तु उनके बिना कुछ काल के लिए जीवन सम्भव है, प्राण के बिना नहीं । दूसरी ओर, प्राण सर्वप्रथम द्वार है जिससे रोग हमारे शरीर पर आक्रमण करते हैं । यदि हमारी प्राणन-शक्ति हीन हो गई, तो रोग तो हमें लपेट ही लेंगे, जीवन से भी हमें हाथ धोना पड़ सकता है, जैसा कि इस महामारी के काल में अतिस्पष्ट हो ही रहा है… इसलिए प्राणायाम आदि द्वारा हमें इस शक्ति को सदैव वर्धित करना चाहिए ।

प्राणों की महत्ता को दर्शा कर, अगला मन्त्र रोगी के जीवन-यज्ञ में सब हविदाताओं से प्रार्थना करता है –

         त्रायन्तामिमं  देवास्त्रायन्तां  मरुतां  गणाः ।

त्रायन्तां  विश्वा  भूतानि  यथायमरपा  असत् ॥४।१३।४॥

इन्द्रिय देव इस (प्राणी) की रक्षा करें, (मरुत् गण=) पांचों प्राण इस की रक्षा करें । सारे (भूत=) पंच महाभूत आदि इसकी रक्षा करें, जिससे कि यह (रोगी) निरोग हो जाए ।

प्राणियों के स्वास्थ्य में पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, पांच प्राणों, पांच स्थूलभूतों, पांच सूक्ष्मभूतों, मन, अहंकार व बुद्धि – इन सभी का योगदान होता है, क्योंकि ये सब शरीर का निर्माण करते हैं । इन सभी को हमें स्वस्थ रखना है । आजकल हम सुन रहे हैं कि जिसको कोरोना नहीं हुआ है, वह भी मानसिक रूप से पीड़ित है । हमें अपने मन व बुद्धि को भी स्वस्थ रखना है, और इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने के लिए भी हर सम्भव उपाय करने हैं ।

सम्पूर्ण शरीर के स्वास्थ्य की कामना के पश्चात्, वेद अब वैद्य के मुख से मनोबल बढ़ाने वाले वचन कहलवाता है –   

         आ  त्वागमं  शन्तातिभिरथो  अरिष्टतातिभिः ।

         दक्षं  त  उग्रमाभारिषं  परा  यक्ष्मं  सुवामि  ते ॥४।१३।५॥

वैद्य कहता है – मैं तुम्हारे समक्ष आ गया हूं, और (रोग को) शान्त करने वाले और (शरीर पर कीटाणुओं की) हिंसा को रोकने वाले साधनों के साथ आया हूं । मैं तुममें (उग्र=) दृढ बल भर दूंगा और तुम्हारे यक्ष्म रोग को दूर भगा दूंगा ।

वैद्य को केवल औषधियों, उपकरणों, आदि, से ही उपचार नहीं करना चाहिए, अपितु सबसे पहले उसे रोगी के मनोबल को अपनी वाणी से बढ़ाना चाहिए । आपने अनुभव किया होगा कि ढाढ़स बन्धाने वाले डाक्टर के वचनों से हि हम आधे ठीक हो जाते हैं ! वेदों में अनेकत्र वैद्य को इस प्रकार रोगी से बोलने को कहा गया है । जब कभी हमें ऐसा वैद्य न भी मिले, हमें अपने मन में अपने को दृढ़ कर लेना चाहिए । और यदि हम किसी रोगी परिजन से मिलते हैं, तो सदैव उसका मनोबल ऊंचा करना चाहिए । कभी भी रोगी के सामने उसकी स्थिति को असाध्य नहीं बताना चाहिए, चाहे वह कितनी भी असाध्य क्यों न हो !

पुनः, वैद्या कहती है –

            अयं  मे  हस्तो  भगवानयं  मे  भगवत्तरः ।

         अयं  मे विश्वभेषजोऽयं  शिवाभिमर्शनः ॥४।१३।६॥

(देखो,) यह मेरा (बायां) हाथ कल्याणकारी है, और यह मेरा (दायां हाथ) और भी रोग-निवारक है । यह मेरा (पहला हाथ) सब रोगों का औषध है, और यह (मेरा दूसरा हाथ) दबाने से ठीक कर देता है ।

मनुष्य एक ऐसा मनोवैज्ञानिक पशु है कि कभी उसका मन कुछ विश्वास कर ले, तो अनेक बार वह सत्य भी हो जाता है । वैद्या कुछ ऐसा ही दांव खेलती है और रोगी को विश्वास दिलाती है कि वह बहुत कुशल है और उसके छूने-मात्र से अब रोगी ठीक हो जायेगा । और ऐसा होता हुआ भी देखा गया है !

पुनः, वैद्यों का कथन है –

         हस्ताभ्यां  दशशाखाभ्यां  जिह्वा  वाचः  पुरोगवी ।

अनामयित्नुभ्यां  हस्ताभ्यां  ताभ्यां  त्वाभि  मृशामसि ॥४।१३।७॥

हाथों के दस भागों (अंगुलियों) से पूर्व वाणी बोलने वाली जिह्वा जाती है । रोगनिवारक उन दो हाथों से हम तुझ रोगी को, तेरे अभिमुख होकर, तुझे दबाते हैं, तेरे रोगी अंग को छूते हैं ।

पुनः, वेद कहता है कि वाणी से आतुर को ढाढ़स बंधाना, उसका मनोबल बढ़ाना सबसे महत्त्वपूर्ण है । उसके बाद, शरीर के रुग्ण अंग को छूने/दबाने से भी बहुत कुछ उपचार हो जाता है । मालिश द्वारा शरीर में रक्त के स्राव को बढ़ाने से कई रोग स्वतः दूर हो जाते हैं । इन दोनों प्रक्रियाओं से ही रोगी आधे से अधिक ठीक हो जाता है; फिर शेष उपचार औषधी आदि द्वारा करना होता है ।

आज चिकित्सा क्षेत्र में यह बात पूरे प्रकार प्रमाणित है कि विश्वास दिलाने पर बहुत बार चीनी की गोली या पानी का इन्जेक्शन भी रोग दूर कर देता है । इसे प्लैसीबो इफैक्ट (placebo effect) कहते हैं । हमारा मन इतना शक्तिशाली है कि वह कई बार अजूबे कर दिखाता है ! परन्तु प्रत्येक बार ऐसा ही हो, यह आवश्यक नहीं, इसलिए औषधी का लेना भी बहुत आवश्यक है ।

वेद जीवन के प्रत्येक पड़ाव पर हमारी सहायता करते हैं । कोरोना महामारी के इन कष्टप्रद दिनों में भी हम वेदों से अपने में शक्ति का संचार कर सकते हैं । ऐसा एक अथर्ववेदीय सूक्त मैंने आपको ऊपर दर्शाया । वेदों के अन्य भी बहुत से ऐसे अंश जो हमें सहारा देते हैं । और कुछ नहीं तो नित्य स्वाध्याय हमारे मन और बुद्धि को व्यस्त रखकर हमें डिप्रैशन आदि का शिकार होने से बचाता है । लौकडाउन के इस समय को वेदों के अध्ययन के लिए अमूल्य काल जानकर, इनका स्वाध्याय अवश्य करें !