गृहस्थाश्रम

गृहस्थाश्रम के विषय में कुछ बहुत ही सुन्दर मन्त्र हैं । उनमें से कुछ का विवरण यहाँ दे रही हूं । ब्रह्मचर्याश्रम में जहां स्वतन्त्रता कम होती है, वहीं उत्तरदायित्व भी कम होते है । वहां से निकलते हुए स्नातक को गृहस्थ के अनेक कर्तव्य देखकर कभी इस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने से भय होता है । ऐसे गृहस्थाश्रम से डरने वाले को कैसे समझाएं, यह वेद बताता है –

गृहा मा बिभीत मा वेपध्वमूर्जं बिभ्रत एमसि 

ऊर्जं बिभ्रद्वः सुमनाः सुमेधा गृहानैमि मनसा मोदमानाः ॥ यजुर्वेदः ३।४१॥

ऋषिः – आसुरिः । देवता – वास्तुरग्निः ।

गृहस्थी नवागन्तुक से कहते हैं – गृहों = गृहस्थाश्रम से मत डरो, मत कांपो । हम तुम्हारे सामने विभिन्न प्रकार की ऊर्जा, पराक्रम, गुण, आदि, धारण करते हुए खड़े हैं (यह गृहस्थाश्रम के ही कारण है) । वैसे ही तुम सब (ब्रह्मचर्याश्रम में प्राप्त) सुन्दर ज्ञान और तीक्ष्ण बुद्धि वाले, मन से प्रसन्न होते हुए, हमारे साथ गृहों में आओ । 

इस प्रकार पुराने गृहस्थी नवयुवकों और नवयुवतियों को ढाढ़स बंधाएं कि गृहस्थाश्रम से ही तो हमें ही क्या, पूरे समाज को ऊर्जा मिलती है । तुम चिन्ता मत करो, हम तुम्हारे साथ हैं और तुम्हारी प्रत्येक कठिनाई में तुम्हारी सहायता करेंगे । निश्चिन्त होकर तुम विवाह करो और प्रजातन्तु का विस्तार करो !

पाश्चात्य देशों में विशेषकर, और अब भारत में भी पाया जाता है कि गृहस्थ के उत्तरदायित्व से घबराकर, युवक-युवती एकसाथ तो रहते हैं, परन्तु विवाह किए बिना (live-in relationship) । यह गृहस्थाश्रम का भय प्रत्येक युग में पाया जाता है, क्योंकि वास्तव में परिवार को चलाना कोई सरल बात नहीं है । इस भय के परिहार के लिए वेदों ने मिलजुल कर रहने का उपदेश दिया है ।

इस मन्त्र के ऋषि व देवता का महत्त्व इस प्रकार है : देवता विषय या मन्त्र में सम्बोधित व्यक्ति को कहती है । इस मन्त्र में जो वास्तु और अग्नि देवता कही गई हैं, वहां वास्तु का अर्थ गृह और अग्नि विद्वान् गृहस्थियों का द्योतक है । सो, गृह से मन्त्र का विषय कहा गया है और अग्नि से सम्बोधित विद्वान् नवगृहस्थी वा गृहस्थेच्छुक बताया गया है । ऋषि उपविषय अथवा सम्बोधनकर्ता को सूचित करता है । सो, यहां आसुरिः अर्थात् भोग करने वाले गृहस्थियों का वचन कहा गया है । गृहस्थाश्रम भोगपरक है, सब आश्रमों मे से सबसे अधिक भोग इसी में होता है । जो भोग ग्रहण करना चाहे, ‘आसुरि’ हो, उसके लिए गृहस्थाश्रम सबसे उपयुक्त है । 

नवविवाहित दम्पति के लिए माता-पिता का उपदेश कैसा होना चाहिए, उसपर वेद कहता है –

शिवो भव प्रजाभ्यो मानुषीभ्यस्त्वमङ्गिरः ।

मा द्यावापृथिवी अभि शोचीर्मान्तरिक्षं मा वनस्पतीन् ॥ यजुर्वेदः ११।४५॥

ऋषिः – चित्रः । देवता – अग्निः ।

अर्थात् हे अङ्गिर – हमारे अंग से भी प्रिय सन्तान ! तुम सम्पूर्ण मानुषी समाज के लिए कल्याणकारी होओ । विद्युत्, भूमि, आकाश और वनस्पतियों, अर्थात् सम्पूर्ण स्थावर-जंगम संसार के विषय में तुम शोक मत करो या तुम उनको सन्तप्त मत करो । 

इस प्रकार माता-पिता बेटे-बेटी को जताना चाहते हैं कि तुम जिस आश्रम में प्रवेश कर रहे हो, उसमें तुम अवश्य भोग करोगे; अब तक तुम ब्रह्मचर्याश्रम में व्रत करते आए हो, तुम्हें बहुत से भोग वर्जित थे । अब वे सभी द्वार खुल गए हैं । परन्तु फिर भी तुम उन भोगों में इतना लिप्त न हो जाना कि तुम औरों का ध्यान न रखो । तुम्हें मानुषी समाज का क्या, अपने पूरे परिसर का ध्यान रखना है । जब तुमसे सम्बद्ध सब सजीव और निर्जीव पदार्थ सुखी होंगे, शान्त होंगे, तभी तुम भी सुख से रह सकोगे ! 

यह उपदेश कितना महत्त्वपूर्ण है, यह हम सभी आज अपने चारों ओर देख रहे हैं, जहां सदियों से प्रकृति को अत्यधिक निचोड़ कर हम क्षणभंगुर सुख तो प्राप्त करते रहे हैं । अब प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, महामारी, आदि, ने हमें चारों ओर से घेर लिया है और वे हमारे सारे सुखों को दुःखों में परिवर्तित कर रहे हैं । कितनी ही प्राणिजातियों के विलोप से हमारे जीवन पर प्रभाव भी सुस्पष्ट होने लगा है । क्या ही अच्छा होता कि इस उपदेश को मानवजाति ने अनसुना न किया होता ! केवल वेदों में ही हम इस प्रकार का उदात्त वैश्विक चिन्तन पा सकते हैं !

इस मन्त्र के ऋषि व देवता का महत्त्व इस प्रकार है : इस मन्त्र में जो अग्नि देवता कहा गया है, वह गृह्याग्नि स्वीकार करने वाला विद्वान् नवगृहस्थी का द्योतक है । समझदार माता-पिता, जिन्होंने अपना जीवन आदर्श रीति से निभाया है, वे अपनी सुशिक्षित सन्तानों को यह गम्भीर उपदेश दे रहे हैं जिससे कि वे भी आदर्श रूप से गृहस्थाश्रम का ग्रहण करें । ऋषि उपविषय को सूचित कर रहा है – चित्र । जो यह संसार इतना चित्र-विचित्र है, उसकी विचित्रता को सम्भाल के रखो, उसे नष्ट न होने दो – उसी में तुम्हारा सुख निहित है । इस प्रकार मन्त्र के ऋषि और देवता को जानकर हम मन्त्र के अर्थ को गहनता से समझ सकते हैं ।

आदर्श दाम्पत्य जीवन के विषय में वेद कहता है –

इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।

क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे ॥ ऋग्र्वेदः १०।८५।४२ (अथर्ववेदः १४।१।२२ – किञ्चित् भेद के साथ)॥

ऋषिः – सावित्री सूर्या । देवता – सूर्या ।

वर-वधू के माता-पिता उनको आशीर्वाद देते हैं – तुम दोनों यहीं पर, अपने गृह में रहो । कभी अलग मत होओ । अपने बेटे-बेटियों, पौत्रों, दौहित्रों के साथ खेलते हुए, आनन्द मनाते हुए, अपनी पूर्ण आयु (अर्थात् शत वर्ष) प्राप्त करो ।

परमात्मा का उपदेश है कि पति-पत्नी को एक-दूसरे के साथ अनुकूल व्यवहार करते हुए, विच्छेद (तलाक) को नहीं प्राप्त होना चाहिए, न ही चिरकाल के लिए एक-दूसरे से दूर रहना चाहिए । अपनी सन्तानों और उनकी सन्तानों के साथ सुन्दर सम्बन्ध बनाते हुए, उनके साथ मौज-मस्ती करते हुए, आनन्द मनाते हुए, जीवन व्यतीत करना चाहिए । इन सरल उपायों से जीवन भी दीर्घ हो जाता है ! 

यहां संयुक्त परिवार का उपदेश मानना तो ठीक नहीं होगा, परन्तु परिवार-जनों का मेल-जोल से रहना अवश्य लक्षित है । जब परिवार सुखी होगा, तभी सम्पन्न भी होगा । उससे समाज व राष्ट्र भी सुखी व सम्पन्न होंगे । साथ-साथ, सांसारिक जीवन हेय नहीं है, अपितु प्रशंसित मार्ग है । केवल आध्यात्मिक मार्ग ही प्रशंसा-योग्य है, जैसा कि कुछ स्वार्थी, कपटी कषाय-वस्त्रधारी हमको बताते रहते हैं – यह बात सही नहीं है ।