पापनाशनम् – अथर्ववेद का एक सुन्दर सूक्त

मैंने भक्ताभिलाषा प्रकट करने वाले एक अथर्ववेद के सूक्त की व्याख्या की थी । उसी शृंखला में सुन्दर जीवन की कामना करते हुए, सब पापों व रोगों से निवारण के लिए अथर्ववेद का ही एक और सुन्दर सूक्त है, जो बड़े काव्यात्मक ढंग से इस भावना को प्रस्तुत करता है । यह है तीसरे काण्ड का अन्तिम अर्थात् ३१वां सूक्त, जिसका ऋषि है ब्रह्मा और देवता है पापनाशनम्, अर्थात् इस सूक्त में वेद का सत्कार करने वाला अपने पापों के नाश की प्रार्थना कर रहा है । सूक्त में ११ मन्त्र हैं जिनकी मैं क्रमशः व्याख्या करूंगी ।

वैसे, इस सूक्त में केवल पापों व रोगों से निवारण के लिए ही प्रार्थनाएं नहीं हैं, अपितु इसके लिए उपायों का भी वर्णन है । मन्त्रों में दूसरी पंक्ति टेक के रूप में है । वह इस प्रकार है –

व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥

जिसका अर्थ है – मैं सभी पापों से (वि) पृथक् हो जाऊं, यक्ष्म नामक महारोग से (वि) वियुक्त हो जाऊं, व (स्वस्थ व दीर्घ) आयु से (सम्) संयुक्त हो जाऊं । यक्ष्म रोग विशेषकर फेफड़े के रोगों को कहता है, परन्तु उपलक्षण से सभी विकराल रोगों का यहां समावेश है । यहां ‘वि’ व ‘सम्’ उपसर्ग युक्त होने की पूरी क्रिया को कहते हैं; सो, उन्हें ‘वियुक्त’ व ‘संयुक्त’ के रूप में पढ़ना चाहिए । यह उपसर्ग का एक विशिष्ट प्रयोग है ।

पहला मन्त्र कहता है –

            वि देवा जरसावृतन् वि त्वमग्ने अरात्याः ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।१॥

देव जरावस्था से पृथक् हैं । हे अग्नि ! तू अदान से पृथक् है । मैं (भी) सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

यहां प्रथम पंक्ति के दो अर्थ सम्भव हैं – आधिदैविक व आधिभौतिक । आधिदैविक अर्थ में देव का अर्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, आकाश आदि, विभिन्न प्राकृतिक शक्तियां हैं, जो कि लम्बे काल तक एक-सी बनी रहती हैं, उनका क्षय नहीं होता । सो, प्रभु से प्रार्थना है कि जिस प्रकार ये प्राकृतिक शक्तियां कभी बूढ़ी नहीं होती, इन प्राकृतिक तत्त्वों से ही तो मेरा शरीर भी बना हुआ है, तो क्योंकर वह वृद्ध हो? सो, परमात्मा आप मुझे सही प्रकार से जीने का रहस्य बताएं जिससे मैं बुढ़ापे से बच सकूं । आधिभौतिक अर्थ में, देव का अर्थ विद्वान् है – वे जो आयुर्वेद के ज्ञाता हैं अथवा वेदवित् हैं । इनको स्वस्थ दीर्घ जीवन का रहस्य ज्ञात है । मैं भी उनकी जैसी हो जाऊं ।

दूसरे पाद में, अग्नि के आधिदैविक अर्थ हैं याज्ञिक अग्नि जो कि सभी प्राणियों व सम्पूर्ण वातावरण के लिए लाभकारी होती है, इसलिए वह ‘अरातिः’ = कृपणता से वियुक्त है, दान ही दान करती है । मैं भी इस प्रकार दानशील बनूं । दान हमें विरक्ति के मार्ग पर ले जाता हुआ, हमें शुद्ध कर देता है, भावी पापों से मुक्त कर देता है । आधिभौतिक अर्थ में, अग्नि से विद्वान् का ग्रहण है । विद्वान् वही विद्वान् है जो कि अपने ज्ञान का वितरण करे, अपने तक सीमित न रखे । ऐसे विद्यादानी विद्वान् से विनती है कि वह हमें भी विद्यायुक्त करे ।

दोनों पंक्तियों को जब हम जोड़ते हैं, तो यह अर्थ निकलता है – सूर्य, जल, आदि, प्राण देने वाली शक्तियां हैं । इनके सम्यक् उपयोग से हम अपनी आयु बढ़ा सकते हैं, निरोगी हो सकते हैं । यह विद्या हमें जानने का प्रयास करना चाहिए । यज्ञ की अग्नि विशेष रूप से फेफड़े के रोगों को, और सामान्य रूप से अन्य अनेक रोगों का निवारण करती है । सो, अग्निहोत्रों का अनुष्ठान करके, हमें उनसे लाभ उठाना चाहिए । दूसरी ओर, हम देखते हैं कि विद्वज्जन लम्बी व स्वस्थ आयु भोगते हैं (आजकल ऐसे जन कम ही दीखते हैं, तथापि हमारी सभी की जानकारी में अवश्य ही कुछ ऐसे जन हैं, जिनको यह वर प्राप्त है !) । इसका कारण उनका आयु-विषयक ज्ञान तो है ही, परन्तु इसलिए भी कि वे ज्ञान के स्नान से सदा अपने को शुद्ध रखते हैं । मनु ने कहा ही है – … विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति ॥मनुस्मृतिः ५।१०९॥ अर्थात् विद्या और तप से जीवात्मा व बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है । धर्म के ज्ञान से विद्वान् अपने व्यवहार को सर्वथा शुद्ध कर देते हैं, पापों से पृथक् कर देते हैं । उनमें से एक दानवीर गुरु के पास जाकर, हमें भी उस विद्या से अपने तन व मन को शुद्ध करने का प्रयास करना चाहिए । जो ऐसा गुरु प्राप्त न हो सके, तो परमात्मा को ही अपना सबसे उत्कृष्ट व निकटतम गुरु मानकर, उसी से प्रार्थना करें ।

इस प्रकार मन्त्र हमें बता रहा है कि पापों से अलग होना है, तो धर्म को जानो और दानी बनो । और पापों से जब पृथक् हो जाओगे, तब स्वयं सुन्दर जीवन तुम्हें प्राप्त हो जाएगा – तुम्हारे रोग नष्ट हो जाएंगे और आयु दीर्घ हो जाएगी । इस प्रकार, इस छोटे-से मन्त्र में अनेकों अर्थ निहित हैं !

धर्म का अर्थ जो पहले मन्त्र में छुपा-सा था, उसे दूसरा मन्त्र स्पष्ट करता है –

            व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पापकृत्यया ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।२॥

जो (पवमानः) पवित्र होता है, वह (वि आर्त्या) पीड़ा से दूर रहता है, उसे कष्ट कम घेरते हैं । (धर्म में) जो (शक्रः) शक्तिशाली होता है, वह पापकृत्यों से दूर होता है । (ऐसा बनकर,) मैं (भी) सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

मन्त्र विशेष रूप से धर्म से प्रदत्त शुद्धता पर जोर डाल रहा है । जो वह प्राप्त हो जाए, तो स्वयं दुष्कर्मों से मुक्ति मिल जाए और उनसे जनित दुष्फलों से भी । वायु आदि की शुद्धता तो सभी को प्राप्त हो सकती है, तथापि वे मधुर जीवन से वञ्चित रह सकते हैं । जिसको सही अर्थ में सुन्दर आयु चाहिए, उसे धर्म का आश्रय लेना ही पड़ेगा !

तीसरा मन्त्र विचित्र प्रकार से विषय प्रस्तुत करता है –

            वि ग्राम्याः पशवः आरण्यैर्व्यापस्तृष्णयासरन् ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।३॥

अर्थात् ग्राम्य पशु आरण्य पशुओं से भिन्न हैं । जल से प्यास दूर हो जाती है । इसी प्रकार मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

यहां ग्राम्य व आरण्य पशुओं का ज्ञान तो मन्त्र दे ही रहा है, परन्तु उस माध्यम से पापयुक्त व पापमुक्त जीवनों में भेद को भी इंगित कर रहा है, कि ये दो प्रकार के जीवन भी सर्वथा भिन्न होते हैं – एक में तृष्णा होती है और दूसरे में जल, अर्थात् ज्ञानरूपी जल की तृप्ति । पापयुक्त जीवन वही है जो सांसारिक भोगों में लिप्त हो, जबकी त्यागी का जीवन वासनाओं से मुक्त होने के कारण, पापों से भी वियुक्त हो जाता है । इस प्रकार, पापों से मुक्त होने के लिए वैराग्य की बहुत आवश्कता है, जैसा कि सांख्य- व योग-दर्शनों ने भी रेखांकित किया है, यथा –

ध्यानधारणाभ्यासवैराग्यादिभिस्तन्निरोधः ॥साङ्ख्यदर्शनम् ६।२९॥ अनुवृत्तिः – उपरागस्य ।

अर्थात् ध्यान, धारणा, अभ्यास, वैराग्य, आदियों से राग शान्त होते हैं ।

सामान्य जीवन में भी हम पाते हैं कि संन्यासी आदि विरक्त मनुष्य कठोर यातनाओं का सामना करते हुए भी प्रसन्नचित्त रहते हैं, जैसे कि उनको विपरीत परिस्थितियां छू ही नहीं पा रहीं !

अब चतुर्थ मन्त्र देखते हैं –

            वीमे द्यावापृथिवी इतो वि पन्थानो दिशन्दिशम् ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।४॥

अर्थात् सूर्य और भूमि एक दूसरे से भिन्न हैं । इस स्थान से (जहां मैं खड़ी हूं, उससे) फटने वाले विभिन्न पथ अलग-अलग दिशाओं में जाते हैं । इसी प्रकार मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

पुनः यहां सार्थक उपमाओं का प्रयोग किया गया है । जिस प्रकार प्रकाशयुक्त सूर्य व प्रकाशविहीन पृथिवी पृथक्-पृथक् मार्ग पर चलते हैं, जैसे विभिन्न पथ पृथक्-पृथक् दिशाओं में जाते हैं, वैसे ही पापी व पुण्यात्मा के मार्ग पृथक् होते हैं – वे कभी आपस में नहीं मिलते । जहां एक भोग में प्रवृत्त रहता है, अन्धकार से युक्त जीवनयापन करता है, वहीं दूसरा ज्ञान में विभोर रहता है, प्रकाश से चमकता रहता है । इन दो मार्गों के भेद को जानकर, धर्म को समझकर, मैं भी विरक्ति का मार्ग अपनाऊं, भोगों को छोड़ दूं ।

पंचम मन्त्र अत्यन्त विचित्र है –

            त्वष्टा दुहित्रे वहतुं युनक्तीदं विश्वं भुवनं वि याति ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।५॥

अर्थात् (त्वष्टा) सूर्य अपनी बेटी के विवाह के लिए (कर्म में) जुड़ जाता है । इस कारण वह सारे संसार से विगत हो जाता है । इसी प्रकार मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

इसके आधिदैविक अर्थ हैं : सूर्य की बेटी चन्द्रमा है । युवावस्था में विवाह वेदविहित है, बाल्यावस्था में नहीं । सो, चन्द्रमा की युवावस्था पूर्णिमा है, जब वह अपने सम्पूर्ण तेज में विद्यमान होता है । उस दिन, सूर्य उसके साथ आकाश में नहीं रहता, और न ही तारागण रहते हैं, क्योंकि चन्द्र के प्रकाश में वे विलीन-से हो जाते हैं । उसी प्रकार, वेदविहित कर्मों को करता हुआ, मैं भी जग से दूर हो जाऊं, कर्तव्यों में ही तल्लीन हो जाऊं । तभी मुझे सुख प्राप्त होगा । आध्यात्मिक अर्थ में, पिता जैसे पुत्री के विवाह की तैयारी में अन्य सब सांसारिक झमेलों से विमुक्त हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी आत्मसाक्षात्कार में ऐसी तल्लीन हो जाऊं कि बाकि संसार की सुध-बुध ही न रहे । जो अपनी खोज में तन-मन से लग जाता है, वही तो पापों, रोगों, दुःखों से दूर हो पाता है !

सूक्त का षष्ठ मन्त्र कहता है –

            अग्निः प्राणान्त्सं दधाति चन्द्रः प्राणेन संहितः ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।६॥

अग्नि प्राणों को सम्यक् धारण करती है और चन्द्र प्राणों से सम्बद्ध है । मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

यहां अग्नि से जाठराग्नि अभिप्रेत है । भोजन को यदि प्राणी पचा न सके तो प्राण भी धारण न कर सके । इसलिए जीव का पाचनयन्त्र सदा सम्यग्रूपेण चलता रहना चाहिए – यह स्वास्थ्य की पहली परिभाषा है । चन्द्र ओषधियों को बढ़ाता है, लताओं आदि में ओषधि तत्त्वों को आकर्षित करता है । मनुष्य ही नहीं, अन्य जन्तु भी फूल-पत्तियों से अपना उपचार करते पाए गए हैं । इस प्रकार, ये ओषधियां प्राणरक्षक होती हैं । रोगों से मुक्त मनुष्य ही धर्म का भी पालन कर सकता है ।

यह तो हुआ आधिदैविक अर्थ । आधिभौतिक अर्थ के अन्तर्गत अग्नि का अर्थ गुरु है, हमें आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश करने वाला है । वही हमें पापों से दूर करता है और धर्म के मार्ग की सीख देता है । चन्द्र हममें आह्लाद उत्पन्न करने वाला है । सो, थोड़ी क्रीडा, थोड़ा मनोरंजन भी जीवन में अत्यावश्यक है, सम्भवतः मन्त्र उसी की ओर संकेत कर रहा है । हंसी-ठहाके सेहत के लिए लाभकारी हैं, विज्ञान ने आज यह स्थापित कर दिया है । मन्त्र उसी का संकेत दे रहा है । मुमुक्षु के लिए भी प्रसन्न रहने का आदेश है । मानसिक तनाव व दुःख हमें रोगों से ग्रस्त कर देते हैं और हमारी आयु को हर लेते हैं, यह भी आज सर्वविदित है ।

सो, मन्त्र हमें बता रहा है कि रोगों से अलग होना है, तो सरल भोजन करें, पाचनयन्त्र स्वस्थ रखें, अस्वस्थ होने पर ओषधियों का सेवन करें । पुनः, रोगों व पापों से दूर रहने के लिए मन्त्र आदेश दे रहा है कि ज्ञानी गुरु का साथ करें, व मित्रों के साथ कुछ हल्के-फुल्के क्षण बिताएं – सर्वदा गम्भीर विचार भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है !

अगले मन्त्र में ‘प्राण’ का अर्थ कुछ परिवर्तित हो गया है –

            प्राणेन विश्वतो वीर्यं देवाः सूर्यं समैरयन् ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।७॥

प्राकृतिक दैविक शक्तियां प्राण द्वारा सब की शक्ति स्वरूप सूर्य को प्रेरित करती हैं । (इस द्वारा) मैं सब पापों व रोंगो से मुक्त होकर, दीर्घ व स्वस्थ आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

जहां एक ओर सूर्य सब जीवों में प्राणों का संचार करता है, और उनकों अपने कार्यों में प्रेरित करता है, वहीं ब्रह्माण्ड की प्राकृतिक शक्तियां जैसे सूर्य को तपाती हैं, उसे प्रकाश देने के लिए प्रेरित करती हैं । जिस प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति सूर्य के लिए आवश्यक है, वैसे ही सूर्य हमारे स्वस्थ जीवन के लिए अनिवार्य है । इस कारण से हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए, यह अगला मन्त्र बताएगा ।

आधिभौतिक अर्थ में, देव = विद्वज्जन सूर्य = जीवात्मा को शरीर की सब कलाओं का प्रेरक जानकर, प्राणायाम आदि के द्वारा, आत्मा की शरीर में स्थिति दृढ़ करते हैं; उसको पापों से दूर रखकर, उसके शरीर में जीवन का संचार कराते हैं ।

उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए आठवां मन्त्र कहता है –

            आयुष्मतामायुष्कृतां प्राणेन जीव मा मृथाः ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।८॥

परमात्मा आदेश देते हैं – (उपर्युक्त) आयु-सम्पन्न व आयु देने वालों के प्राणों से (हे जीव !) तू जी और मृत्यु को मत प्राप्त हो । (पुनः जीव कहता है) इस प्रकार मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

परमात्मा बताते हैं कि मैंने जो उपर्युक्त मन्त्रों में दीर्घ आयु वाले बताए हैं, वे स्वयं दीर्घ आयु वाले तो है हीं, पर तुम्हें भी वैसी आयु दे सकते हैं । पहले ही मन्त्र में हमने देखा था कि सभी प्राकृतिक शक्तियां जरावस्था से पृथक हैं, सदा युवा रहती हैं । उनमें से विशेष रूप से अग्नि को कहा गया था । अग्नि से जब हम ऊर्जा जानें तो वैश्विक ऊर्जा का रूपान्तर तो होता रहता है – जैसे अग्नि से पानी का भाप बन जाना – परन्तु नष्ट वह बहुत कठिनता से होती है । इसी प्रकार सूर्य, पृथिवी आदि भी सब दीर्घायु होते हैं । इन सबसे से हमें प्राणशक्ति का ग्रहण करना चाहिए, जैसे उगते हुए सूर्य की रश्मियों का सेवन करना चाहिए, पृथिवी पर अन्न, ओषधि, आदि, उगा कर उनका सेवन करना चाहिए, आदि ।

आधिभौतिक अर्थ में, जिन विद्वज्जनों ने दीर्घायु प्राप्त की है, उनके सान्निध्य से, और उनके आचरण व उपदेश से, हमें भी सीख लेनी चाहिए । उसी प्रकार व्यवहार करने से, हमें दीर्घायु की कामना करनी चाहिए, जैसा कि अन्यत्र वेद ही कहता है – जिजीविषेच्छतँ समाः (यजुर्वेदः ४०।२) – हे जीवों ! तुम शत वर्ष जीने की कामना करो । इसमें कारण है कि मनुष्य-जीवन मिलना कोई सरल बात नहीं होती । बहुत अच्छे कर्म करने के बाद, बहुत योनियों में चक्कर लगाने के बाद, यह जन्म मिलता है । मनुष्य-शरीर की बनावट भी सब प्राणियों से सर्वाधिक जटिल होती है । इसलिए उसमें रोगों के लिए छिद्र भी अधिक होते हैं । सर्वदा और सर्वथा रोगहीन रहना एक ऐसी जीवनकला है जिसको सीखना पड़ता है । परमात्मा बता रहे हैं कि ये-ये उपाय हैं, इन सबका सेवन करो ! इन उपायों में से सबसे विचित्र है – पाप न करना ! कौन मनुष्य यह सोच सकता है कि पापरहित मनुष्य अधिक जीयेगा ? किसी भी तर्क से यह स्थापित नहीं होता । इसीलिए ईश्वर को इसका विशेष रूप से उपदेश करना पड़ा । यही वेदों का वैशिष्ट्य है !

इसी उपदेश को रेखांकित करते हुए, नवां मन्त्र कहता है –

            प्राणेन प्राणतां प्राणेहैव भव मा मृथाः ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।९॥

अर्थात् (हे जीव !) प्राणवालों के प्राण द्वारा तू भी प्राण लें । यहीं इस भूमि पर रह, और मरण को मत प्राप्त हो । (पुनः, जीव जैसे समर्थन करता है –) मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो जाऊं ।

पुनः, यहां प्राणिक शक्तियों व दीर्घायु के उपायों से आयु बढ़ाने को कहा गया है । यहां यह नहीं समझना चाहिए कि जीवित पशुओं को मारकर उनके रुधिर, मांस, आदि, को ग्रहण करना चाहिए । यह तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा ! ओषधि आदि के सेवन व धार्मिक जनों से निकटता को ही यहां जानना चाहिए । विषय का पुनःस्थापन उसके अत्यधिक महत्त्व को दर्शाता है ।

विषय को अन्तिम चरण पर ले जाते हुए, दशम मन्त्र बताता है कि इस दीर्घ आयु का क्या करें –

            उदायुषा समायुषोदोषधीनां रसेन ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।१०॥

अर्थात् उस आयु द्वारा मैं (उत्) ऊपर उठूं, आध्यात्मिक उन्नति करूं । जीवन को (सम्) भली प्रकार जीऊं (धार्मिक रूप से भोगों का सुख प्राप्त करूं – सुखी परिवार, यश, आदि, को प्राप्त करूं) । ओषधियों के रस से (उत्) अपनी शक्तियों को बढ़ाऊं । तभी मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो सकती हूं ।

जहां एक ओर हमें सदा अपने जीवन को उन्नत मार्ग पर ले जाना है, वहीं कभी कुछ कष्ट आ भी जाएं तो शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक ओषधियों के सेवन से हमें पुनः प्राणों को सुदृण करना है, कभी भी निराश नहीं होना है । मन्त्र में यह अत्यन्त सकारात्मक आदेश है ।

उस उन्नति का अन्त कहां है, यह अगला मन्त्र बताता है –

            आ पर्जन्यस्य वृष्ट्योदस्थामामृता वयम् ।

         व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥अथर्ववेदः ३।३१।११॥

अर्थात् चारों ओर वृष्टि से हम ऊपर उठ गए हैं और अमृत हो गए हैं । मैं सब पापों, रोंगो से दूर होकर, सुन्दर आयु से सम्पन्न हो गया हूं ।

सरल अर्थों में तो वर्षा अवश्य ही प्राणदान करती है, और सूखा प्राण हर लेता है, परन्तु ‘अमृत’ शब्द उस दीर्घायु से कहीं अधिक कह रहा है ! वह बता रहा है कि पापमुक्त होते-होते, आत्मा का पोषण करते-करते, एक दिन ऐसा आएगा कि चारों ओर जैसे वर्षा हो जाएगी – हमारे सब प्रयास सफल हो जाएंगे, हम पूर्णतया पवित्र होकर ज्ञान से भर जाएंगे । हम जीवन के बन्धन से ही मुक्त हो जाएंगे, मृत्यु से परे हो जाएंगे ! वही हमारा अन्तिम गन्तव्य है, वही हमारा अन्तिम लक्ष्य है । जो वह प्राप्त हो गया, तो फिर कुछ और प्राप्त करने को न रह जाएगा…

इस मन्त्र से यह प्रकाशित हुआ कि, वस्तुतः, पूरा ही सूक्त हमें मुक्ति के उपायों को बता रहा था ! उस पथ पर दीर्घायु का विशेष महत्त्व है, क्योंकि आत्मा को प्राणायाम, उपासना, ज्ञान, आदि, से शुद्ध करने में बहुत समय निकल जाता है । निरन्तर व दीर्घ प्रयास से ही गन्तव्य-प्राप्ति सम्भव हो पाती है । उस मार्ग पर पापनिवारण भी बहुत आवश्यक है । यदि हम पापवृत्ति से मुक्त नहीं होते, तो अन्य सभी उपाय व्यर्थ हो जाएंगे । योगदर्शन में बताए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का पालन प्रथम है, उसके बाद ही नियम, आदि, अष्टांगों के अन्य अंगों का महत्त्व है । जिस प्रकार बच्चा प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण होकर ही द्वितीय कक्षा में प्रवेश पाता है, वैसे ही मोक्षमार्ग पर भी हमें एक-एक पड़ाव को क्रम से पार करना होता है…

कितनी सुन्दरता से यह सूक्त आयु बढ़ाने और पापनिवारण की बात करते-करते हमें मोक्ष तक पहुंचा देता है ! अवश्य ही हमें इसके बताए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, वेद-वेदांगो के बताए मार्ग पर चलना चाहिए । कोई भी ऐसा कर्म न करना चाहिए जिससे हमारी आयु का नाश हो, बुद्धि का नाश हो, अथवा धर्म का नाश हो । ब्रह्म ने हमें अपने मार्ग के चयन में पूर्ण स्वतन्त्रता दी है; अब यह हमारे ऊपर है कि हम इस जीवन का कैसे सदुपयोग करते हैं ।