पुरुषसूक्त में पशुसृष्टिविषयक एक रहस्यात्मक अंश

यजुर्वेद का इकत्तिसवां अध्याय ‘पुरुष सूक्त’ के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि उसमें परमात्मा की कल्पना हाथ-पैर, मुंह-आंख वाले एक नर के रूप में की गई है, और अनेकत्र उसे ‘पुरुष’ नाम से बुलाया गया है । वस्तुतः, इस अध्याय में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वर्णन है । यह वैसा नहीं है जैसा कि नासदीय सूक्त नामक ऋग्वेद के दशम मण्डल के १२९वें सूक्त में पाया जाता है, अर्थात् विशेषकर प्रकृति के परिणामों के क्रम की बात नहीं करता, परन्तु अन्य प्रकार की रचनाओं को भी कहता है, जैसे वेदों का उद्भव । उसी के अन्तर्गत, यह अध्याय प्राणि-सृष्टि का भी वर्णन करता है । यह वर्णन बहुत ही वैज्ञानिक है, यहां तक कि इसमें एक विशेष तत्त्व निहित है, जो कि, मुझे विश्वास है, बहुत कम को ज्ञात होगा । इस लेख में मैंने इन पशु-सृष्टि के अंशों के साथ-साथ, इस विशेष अंश को विस्तार से निरूपित किया है ।

पुरुष सूक्त में सृष्टि का वर्णन पूर्णतया क्रम से नहीं है, तथापि विहंगम दृष्टि से है भी । पशुओं की सृष्टि के विषय में पहला मन्त्र है –

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ यजुर्वेदः ३१।६॥

अर्थात् उस यज्ञस्वरूप, सब के द्वारा पुकारा जाने वाला परमेश्वर दही, घी, आदि, को भली प्रकार भरता है (पशुओं में इतना दूध उत्पन्न कर देता है कि मनुष्य भी उसमें से कुछ भाग ग्रहण कर सकें) । उसने पशुओं को बनाया जो वायु में विचरण करने वाले, अथवा पृथिवी पर विचरण करने वाले आरण्य और ग्राम्य पशु होते हैं ।

यहां यह न समझना चाहिए कि मनुष्यों की बस्ती में उत्पन्न होने से ही पशु ग्राम्य = पालतू हो जाता है । पहले ये पशु वन में ही पाए गए, परन्तु उनमें पालतू बनने का स्वभाव था और उनसे मनुष्य अपना कुछ कार्य भी साध सकता था, इसलिए उसने उनको ग्राम्य बनाया । कुछ पशु, जैसे कौए, ग्रामों में पाए जाने पर भी पाले नहीं जा सकते । तथापि वेद शिक्षा दे रहा है कि कुछ पशुओं को पाला जा सकता है, सो ऐसा करो, और उनके दूध आदि से दही आदि बना कर स्वास्थ्यलाभ करो । इससे ‘सम्भृतं पृषदाज्यं’ पदों का सन्दर्भ भी स्पष्ट हो जाता है ।

वन्य पशुओं का भी अपना महत्त्व है । वे वनों को स्वस्थ रखते हैं, और वन के बिना मनुष्य जीवन सम्भव नहीं है । इसलिए वेदों ने वनों के संरक्षण का भी संकेत दिया है ।

तीसरा विभाग वेद वायव्य प्राणियों का बता रहा है । सम्भवतः, इन्हें अलग इसलिए गिना गया है कि जबकि ये मनुष्यों की बस्ती में पाए जाते हैं तथापि प्रायः पालतू बनाकर इनसे कोई मानवीय उद्देश्य नहीं पूर्ण किया जा सकता है । कुछ लोग पक्षियों को पिंजरे में अवश्य रखते हैं, परन्तु उनसे मन बहलाने के सिवा, उनका कोई अन्य उपयोग नहीं होता । वे पक्षी भी पिंजरे से छूटते ही दूर उड़ जाते हैं । उन्हें मनुष्यों का बन्धन रास नहीं आता है । गाय, भेड़, बकरी, आदि, के साथ, यहां तक कुत्ते-बिल्ली आदि के साथ भी, ऐसा नहीं होता ।

इस प्रकार यह मन्त्र पशुओं की परमात्मा द्वारा उत्पत्ति, उनके तीन प्रकार व उनसे प्राप्त उत्पादों का प्रयोग समझा रहा है ।

जैसे ग्राम्य पशु में प्रमुख कौन-कौन से हैं, इसको बताते हुए आगे का मन्त्र कहता है –

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥ यजुर्वेदः ३१।८॥

अर्थात् उस (उपर्युक्त यज्ञस्वरूप परमेश्वर) से अश्व उत्पन्न हुए, और जिन-जिन के दोनों ओर दांत होते हैं, वे । निश्चय से, गाएं उससे उत्पन्न हुईं और भेड़-बकरियां भी ।

जबकि घोड़ा, गाय, भेड़ व बकरी, सरलता से समझ में आते हैं, यहां एक विचित्र पद आता है – उभयादतः – वे जानवर जिनके दोनों जबड़ों पर दांत होते हैं । इस पद का महत्त्व वैज्ञानिकों ने आज ढूढ़ निकाला है, और इसी को मैं आगे दर्शाऊंगी ।

इससे पहले कि हम उस खोज को देखें, यह जानना आवश्यक है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने गायों को जो एक ओर दांत वाले पशुओं का उपलक्षण माना है, वह कुछ सही है और कुछ गलत भी । जबकि गायों के सामने के दांत केवल नीचे की ओर होते हैं, उनके पीछे के दांत ऊपर और नीचे – दोनों ओर होते हैं । इसलिए गाएं भी उभयादत हैं । इस प्रकार इस मन्त्र में केवल उभयादत ग्राम्य पशुओं के उदाहरण हैं ।

जिन्होंने थोड़ा भी जीवविज्ञान पढ़ा है, वे जानेंगे कि उपर्युक्त पशु स्तनपायी विभाग (mammals) के हैं । इस विभाग के अन्तर्गत सभी वे योनियां आती हैं जिनमें माता नवजात शिशु को स्तनपान कराती है । सो, कुत्ते, बिल्ली, हिरण, हाथी, आदि, सभी इस श्रेणी में आते हैं । यह विभाग पशुओं का सबसे उत्कृष्ट विभाग है और मानव योनि इसकी चोटी पर विद्यमान है ।

अब देखते हैं ‘उभयादतः’ पद की विशेषता – क्यों वेदों ने स्तनपान आदि अन्य धर्मों की चर्चा न करके, इस धर्म को अधिक महत्त्व दिया है । अप्रैल २००३ में मैंने नैशनल जियोग्रैफिक की एक पत्रिका में जब इसका विवरण पाया तो मैं उछल पड़ी ! अन्यथा मुझे यह पद इस मन्त्र में बहुत अटपटा लग रहा था । भाष्यों में भी इसका कोई महत्त्व दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था । इस पत्रिका के कुछ सम्बद्ध उद्धरण मैं नीचे दे रही हूं । अनन्तर हम उनपर चर्चा करेंगे ।

“The earliest known mammals were the morganucodontids, tiny shrew-like creatures that lived in the shadows of the dinosaurs 210 million years ago. They were one of several different mammal lineages that emerged around that time. All living mammals today, including us, descend from the one line that survived” – अर्थात् सबसे पहले ज्ञात स्तनपायी मॉर्गनुकोडोन्टिड्स थे, जो २१ करोड़ वर्ष पहले डायनासौर की छाया में रहने वाले छोटे-छोटे कर्कशा अथवा चूहे जैसे जीव थे । वे उस समय के आसपास विकसित हुए कई अलग-अलग स्तनपायी वंशों में से एक थे । आज पाए जाने वाले सभी स्तनधारी, हमारे सहित, उन वंशों में से एक वही शृंखला है जो शेष रही ।

“We have specialized jaws, whose hinges come together early in our evolution to create the ear bones that let us hear better than other animals. We have complex teeth that let us grind and chew our food so that we get more nutrition out of it” – हमारे पास विशेष जबड़े हैं, हमारे विकास के प्रारम्भ में ही जिनके कब्ज़े/जोड़ एकसाथ जुड़कर कान की हड्डियों को बनाते हैं, जिससे हमें अन्य जानवरों की तुलना में बेहतर सुनाई देता है । हमारे दांत की संरचना जटिल है, जिससे हम अपने भोजन को पीस और चबा सकते हैं । इस प्रक्रिया से हमें भोजन से अधिक पोषण मिल पाता है ।

इस प्रकरण में आगे बताया गया है कि सरीसृप आदि के दांत अलग-अलग होते हैं, उनके जबड़े में एक हड्डी नहीं होती, परन्तु अलग-अलग हड्डियां होती हैं, और उनके दांतो का प्रयोग केवल शिकार को पकड़ने के लिए होता है, चबाने के लिए नहीं । यदि आप एक सांप की सोचें, तो उसका मुंह इसीलिए इतना बड़ा चौड़ जाता है कि उसमें हिरण भी समा जाता है । यह इसी प्रकार सम्भव हो पाता है कि उसके जबड़े की हड्डियां अलग हैं । वह पूरा हिरण एक बार में सटक लेता है, फिर उसके उदर की मांसपेशियां अन्दर ही अन्दर हिरण की हड्डियां आदि तोड़ती हैं, और उसके बाद पाचन तन्त्र को भी बहुत काम करना पड़ता है ! इसी प्रकार, यदि एक मछली को देखें, तो उसके मुंह के दोनों ओर दांत होते तो हैं, पर वे भोजन को चबाने के काम के नहीं होते । वे नुकीले होते हैं और एक-दूसरे के बीच में पटते हैं, एक के ऊपर एक नहीं । उनका काम होता है केवल भोजन को पकड़ना । फिर जिह्वा आदि के द्वारा भोजन पूरा का पूरा गटक लिया जाता है ।

“Mammals were starting to come into their own around the time of the morganucodontids. Their tiny jaw bones – about an inch long – show just how different the mammalian form was from the giant reptile world.” – मॉर्गनुकोडोन्टिड्स के समय के आसपास स्तनधारी भली प्रकार विकसित होने लगे थे । उनके छोटे जबड़े की हड्डियाँ – लगभग एक इंच लंबी – दिखाती हैं कि विशाल सरीसृप दुनिया से स्तनधारी का रूप कितना अलग था (इस भेद का विवरण मैंने ऊपर कर ही दिया है ) ।

“The separation of the jaw and the ear bones allowed the skulls of later mammals to expand sideways and backward – enabling mammals to develop bigger brains. The teeth of the morganucodontids were another important innovation that later mammals would improve upon. The upper and lower molars of morganucodontid jawbones interlocked, letting them slice their food in pieces. That released more calories and nutrients.” – जबड़े और कान की हड्डियों के अलग होने से अनन्तरकाल के स्तनधारियों की खोपड़ी की हड्डियां पार्श्व में और पीछे की ओर फैल गईं – जिससे स्तनधारियों का मस्तिष्क (अन्य पशुओं की अपेक्षा) बढ़ सका । मॉर्गनुकोडोन्टिड्स के दांत एक और महत्वपूर्ण आविष्कार थे, जो बाद के स्तनधारियों में और अधिक विकसित हुए । मोर्गनुकोडॉन्टिड जबड़े के ऊपरी और निचले दांत एक-के-ऊपर-एक बैठते हैं, जिससे वे अपने भोजन को टुकड़ों में काट सकते हैं । इसने (पशु को) अधिक ऊर्जा और पोषक तत्त्व प्राप्त कराए ।

भोजन को चबा पाने से, भोजन के रस-ग्रहण का आधा काम तो मुंह में ही हो जाता है, शेष आंते कर लेती है । इस प्रकार भोजन के लगभग सारे पोषक तत्त्व शरीर खींच लेता है और केवल व्यर्थ तत्त्व ही मल रूप में बाहर निकलते है ।

अब इन कथनों को प्रारम्भ से पुनः देखते हैं । इसमें पहले तो यह नाम ‘मॉर्गनुकोडोन्टिड्’ । इसमें ‘मॉर्गनु’ तो किसी पुराने पाश्चात्य देवता ‘ग्लामॉर्गन’ के नाम पर रखा गया प्रतीत होता है । सम्भवतः, उसके दांत कुछ विशेष थे । दूसरा भाग ‘कोडोन्टिड्’, इसके अर्थ हैं एक-के-ऊपर-एक स्थित दांत’ । यह तो ‘उभयादतः’ का ही अनुवाद हो गया ! और वैज्ञानिकों ने प्रथम स्तनपायियों का नाम उनके दांतों के ऊपर रखा, स्तनपान पर नहीं, यह भी कितने आश्चर्य की बात है ! यह इसीलिए किया गया कि यह आविष्कार इतना निराला था कि इस अकेले ने स्तनपायियों के समुदाय को प्राणियों की चोटी पर लाकर बैठाल दिया । यहां तो जैसे वेद के शब्द का महत्त्व वैज्ञानिकों ने पूर्णतया खोल कर रख दिया !

दांतो की ऐसी संरचना इतनी महत्त्वपूर्ण थी कि जो स्तनपायियों की अन्य शृंखलाएं थीं, वे तो लुप्त हो गईं, बस यही शृंखला शेष रही । इसके कारण भी लेख स्पष्ट करता है – मॉर्गनुकोडोन्टिड्स और अन्य शृंखलाएं डायनासौर के समय ही उत्पन्न हो गई थीं । जिन कारणों से डायनासौर नष्ट हुए, वे कारण सभी प्राणियों को त्रस्त कर रहे थे । तो जो प्राणी ऐसे में विभिन्न प्रकार के खाद्यान्न खा सकता था, वही बच सकता था । सो, मॉर्गनुकोडोन्टिड्स के विपरीत स्थित दांत इस दिशा में उनकी शक्ति बन गए और, आने वाले समय में, उनकी शृंखला का बहुत अधिक विकास हो पाया, जिससे कि अन्ततः मानव भी विकसित हुए ।

जबड़े के इस विशेष प्रकार के इतने लाभ होना – श्रवण-शक्ति में वृद्धि, मस्तिष्क में वृद्धि, आदि – होना तो मेरी कल्पना के भी परे था ! यह लेख पढ़कर ही मुझे वेद के शब्द के संकेत का पूरा महत्त्व समझ में आया ।

मुझे ज्ञात है कि सब लोग विकासवाद को नहीं मानते । मैं भी कुछ सीमा तक ही उसको मानती हूं । परन्तु यह भी मानती हूं कि हाथी आदि बने-बनाए पृथ्वी पर एक दिन आविर्भूत नहीं हो गए – उनके कुछ प्रारम्भिक रूप थे । उन रूपों के भी कुछ समान पूर्वज थे, यह भी जीवाश्म विज्ञान (paleontology) से स्पष्ट होता है । बिना जाने-बूझे इस विज्ञान को नकारना नहीं चाहिए । तथापि इस क्रम में कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं जो परमात्मा का चमत्कार ही कहे जा सकते हैं, वे धीरे-धीरे विकसित हुए, ऐसा सम्भव नहीं प्रतीत होता – यह मेरा मानना है ।

वेद के एक शब्द में हमने इतनी गहराई पाई कि ज्ञान के प्रकाश से हमारी आंखें चौंधिया गईं !  यदि हम उस अटपटे शब्द को अटपटा समझ कर ही छोड़ देते, तो ज्ञान के एक पूरे विभाग से वंचित रह जाते ! फिर, यह सोचकर कि वेद के प्रत्येक शब्द में न जाने इस प्रकार कितना अर्थ छिपा हुआ है, हमारी बुद्धि ही चकराने लग जाती है । इसीलिए, और अधिक वैज्ञानिकों को वेदाध्ययन से जुड़ना चाहिए, केवल वैयाकरणों, नैरुक्तों, वेदांग शास्त्रज्ञों के द्वारा ही वेदमन्त्रों के सम्पूर्ण अर्थ नहीं उभारे जा सकते, यह मेरी दृढ़ मान्यता है ।