भक्ताभिलाषा – अथर्ववेद का एक सुन्दर सूक्त

परमेश्वर-भक्त कई बार भावविभोर हो जाते हैं । उनकी आंखों से अश्रु भी निकलने लगते हैं । परमात्मा के दर्शन प्राप्त करने को वे आतुर रहते हैं । वेद उनकी भावनाओं को प्रकट ही नहीं करता, परन्तु उनके लिए प्रार्थनाएं उपलब्ध कराता है । इनमें से एक स्थल है अथर्ववेद के उन्नीसवें काण्ड का तैंतालिसवां सूक्त । धीरे-धीरे यह सुक्त उपासक को ब्रह्म तक ले जाता है । आइये, इन मन्त्रों का रसास्वादन करें !

इस सूक्त में केवल भक्त के लिए प्रार्थनाएं ही नहीं हैं, परन्तु शरीर के प्राकृतिक सम्बन्धों व आचरण-विषयक भी उपदेश है । इस सूक्त में आठ मन्त्र हैं, जिनमें पहली पंक्ति और दूसरी पंक्ति का कुछ भाग टेक के रूप में है । वह इस प्रकार है –

यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह । … मा तत्र नयतु … ॥

जिसका अर्थ है – दीक्षा = पातञ्जल-योगदर्शन-निर्दिष्ट यमरूपी महाव्रतों का पालन करने वाले, तप = वहीं निर्दिष्ट नियमों का पालन करने वाले, वेदों को जानने वाले जहां जाते हैं, वहां मुझे ले चलो । इतना पढ़कर ही मुमुक्षु मन्त्रमुग्ध हो जाए, परन्तु आगे और भी है !

पहला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         अग्निर्मा तत्र नयत्वग्निर्मेधा दधातु मे । अग्नये स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।१॥

यहां अग्नि से उपासक मेधा की विनती करता है और स्वाहा कहकर अग्नि के बताए मार्ग पर चलने के लिए, स्वाहा द्वारा, अपना सर्वस्व समर्पण करने की प्रतिज्ञा लेता है ।

अग्निरूप परमात्मा ज्ञान के दाता हैं, मेधा के दाता हैं । इसलिए परमात्मा के उस रूप से यह प्रार्थना की गई है । दूसरे, यह जग में एक भ्रम प्रसिद्ध है कि भक्ति से ही परमात्मा उपलब्ध हैं, ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है । ज्ञानमार्ग पर चलने वालों का उपहास भी किया जाता है, उन्हें नीरस समझा जाता है; दूसरी ओर, भक्तिगीत गाने वाले लोगों के हृदय में बसते हैं, उनके ऊटपटांग वचन भी हमें लुभाते हैं । तो पहले तो सच्चे मुमुक्षु को यह विवेक करना आवश्यक है कि ज्ञान के बिना, सच और झूठ में भेद किए बिना, उसकी आगे गति नहीं होने वाली । उन झूठों में से पहला झूठ यही है कि ज्ञान हेय है और/या परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आवश्यक नहीं है । यह मन्त्र मोक्षपरक ज्ञान को प्राप्त करने को पहला सोपान बता रहा है । सो, सबसे पहले मुमुक्षु को ज्ञानमार्ग को दृढ़ता से पकड़ना है, उसे छोड़ना नहीं है ।

यहां भौतिक अग्नि व मेधा का कोई सम्बन्ध तो नहीं प्रतीत होता है, तथापि ज्ञानार्जन प्रकाश में ही सम्भव है, अंधेरे में नहीं, इसलिए सम्भवतः अग्नि को यहां कहा गया है ।

इस प्रकार श्लेषालंकार से सभी मन्त्रों में आधिभौतिक व आध्यत्मिक अर्थ साथ-साथ चलते हैं ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         वायुर्मा तत्र नयतु वायुः प्राणान् दधातु मे । वायवे स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।२॥

अर्थात् वायु मुझे मोक्षमार्गियों के पथ पर ले जा । ओ वायु ! तू मुझमें प्राणों को सम्यक् रूप से धारण करा । तेरे मार्ग पर चलने के लिए मैं कटिबद्ध हूं ।

मुक्तिमार्ग का अगला सोपान है दीर्घ प्राण, स्वस्थ श्वास, जिससे कि स्वास्थ्य भी सही रहता है । प्राणायाम द्वारा यह सिद्ध करना होता है । प्राणायाम का अपर लाभ है मन की चञ्चलता का कम होना, इच्छाओं पर नियन्त्रण होना । ये साधक के लिए अनिवार्य हैं । साधना का मार्ग दीर्घ है, इसलिए इसको पार करने के लिए दीर्घ जीवन की भी आवश्यकता है । उसके लिए प्राणरूपी वायु नाम से प्राणदायक परमात्मा से प्रार्थना की गई है ।

स्थूल प्राण का स्वरूप वायु है – … प्राणाद्या वायवः पञ्च ॥साङ्ख्यदर्शनम् २।३१॥ – यह तो सर्वविदित है (सूक्ष्म शरीर का अवयव प्राण सूक्ष्म होता है, महाभूत नहीं) । इस सम्बन्ध को यहां कहा गया है ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         सूर्यो मा तत्र नयतु चक्षुः सूर्यो दधातु मे । सूर्याय स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।३॥

यहां सूर्य से चक्षु की प्रार्थना की गई है । ये चक्षु स्थूल नेत्र ही नहीं, अपितु दिव्य दृष्टि, दिव्य प्रकाश के द्योतक हैं । प्राणायाम द्वारा एक अद्भुत ज्योति का अनुभव होता है – ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥योगदर्शनम् २।५२॥ उसकी सूचना यहां दी गई है । सूर्य का अपर अर्थ प्रेरक भी होता है । सो, यह प्रकाश की अनुभूति साधक को स्फूर्ति से भर देती है, और उसे मोक्ष के कठिन मार्ग पर बने रहने के लिए प्रेरणा देती है । सूर्य पद से ही, प्रेरणा के स्रोत परमात्मा को समर्पण-भाव से सम्बोधित किया गया है ।

सूर्य चक्षु का निमित्त कारण होता है । यदि प्रकाश न हो, तो जीव में चक्षु उत्पन्न नहीं होते । गहरे समुद्र आदि स्थलों में प्रकाश के अभाव में होने वाले जीव अन्धे होते हैं ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         चन्द्रो मा तत्र नयतु मनश्चन्द्रो दधातु मे । चन्द्राय स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।४॥

यहां चन्द्र से शरीर में मन को धारण करवाने की प्रार्थना की गई है । चन्द्रमा जीवों के मन में आह्लाद उत्पन्न करता है । सो, एकाकी योगी का मन अनेक बार विषाद से भर सकता है । मार्ग की कठोरता से उसमें निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक है । अपनी मानसिक प्रसन्नता के लिए वह आह्लादजनक प्रभु से कैसे प्रार्थना करे, वह यह मन्त्र सिखाता है ।

मन और चन्द्र के गहन सम्बन्ध को, जो कि आज भी विज्ञान को पूर्णतया विदित नहीं है, यह मन्त्र स्थापित करता है ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         सोमो मा तत्र नयतु पयः सोमो दधातु मे । सोमाय स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।५॥

इस मन्त्र में सोम नाम की ओषधि, जो कि ओषधियों का राजा मानी जाती है, से ओषधिरस की कामना की गई है । योगी को आवश्यक है कि वह स्वास्थ्यवर्धक, ओषधिरूप अन्न का ही सेवन करे और दोषयुक्त भोजन से बचे । इसी प्रकार वह एकाकी रहते हुए भी स्वस्थ रह पाएगा । परमात्मा भी वह ओषधि है जो सब दोषों = पापों को हर लेता है, इसलिए वह भी सोम है ।

सोमलता व उसके ओषधिरूप रस का यहां उल्लेख मिलता है ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         इन्द्रो मा तत्र नयतु बलमिन्द्रो दधातु मे । इन्द्राय स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।६॥

यहां ऐश्वर्यशाली इन्द्र से बल की कामना की गई है । एकाकी रहते योगी को कई जंगली जन्तुओं आदि का, और कठिन परिस्थितियों का, सामना करना पड़ता है । उसका शारीरिक बल इन आपदाओं में उसकी सहायता करता है, जिस प्रकार स्वामी दयानन्द के जीवन-चरित्र के अनेक प्रसंगों में हम पाते हैं ।

इन्द्र का आधिभौतिक अर्थ विद्युत् होता है । सो, मन्त्र बता रहा है कि शरीर में जो प्राकृतिक विद्युत् होती है, वह उसके बल का कारण होती है । यह विषय अन्वेषणीय है, तथापि यह पाया गया है कि मृत शरीर में कृत्रिम विद्युत् बहाने से शरीर के अवयव अपने-आप हिलने लगते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि अंगों के चलन में विद्युत् कारण है । तो वह बल का कारण हो सकती है, यह सम्भव प्रतीत होता है ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         आपो मा तत्र नयत्वमृतं मोप तिष्ठतु । अद्भ्यः स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।७॥

सप्तम मन्त्र में जलों से कहा गया है कि वे अमृत/मोक्ष के पास मुझे ले जाएं । मोक्ष को लक्ष्य कर ही तो यह सूक्त चला था, अब यहां उसका निर्देश कर ही दिया ! जल से यहां सर्वव्यापक व जलवत् शान्तिदायक परमात्मा विहित है ।

जल को वेदों ने सबसे शक्तिशाली ओषधि बताया है, जिसका कोई दुष्परिणाम नहीं होता, केवल रोग निकल जाता है । इसलिए जलों की यहां अमृत से तुलना की गई है । साधक को जल का सेवन अन्य अन्नों की तुलना में अधिक करना उपयुक्त है ।

अगला मन्त्र कहता है –

            यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह ।

         ब्रह्मा मा तत्र नयतु ब्रह्मा ब्रह्म दधातु मे । ब्रह्मणे स्वाहा ॥अथर्ववेदः १९।४३।८॥

इस आठवें मन्त्र में बृहद्रूपी ब्रह्म से ब्रह्म ही देने की प्रार्थना की गई है ! वस्तुतः, ब्रह्म का सान्निध्य ब्रह्म के हाथों में ही है – यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः ॥कठोपनिषद् १।२।२३, मुण्डकोपनिषद् ३।२।३॥ मोक्ष और ब्रह्म से निकटता परमात्मा से ही मांगे जा सकते हैं । स्वाहा द्वारा, उस ब्रह्म को पाने के लिए हम अपना सब कुछ समर्पित करते हैं, यह भाव विहित है ।

यहां एक दूसरा अर्थ भी निहित है, जिसमें ‘ब्रह्मा’ चारों वेदों का ज्ञाता है और ब्रह्म से वेदविद्या लक्षित है । इससे मन्त्र में चारों वेदों के ज्ञाता से प्रार्थना है कि वह वेदविद्या और ब्रह्मसान्निध्य में हमारी सहायता करे । ऐसे ब्रह्मा को हमारा आदर-सत्कार !

इस प्रकार, बड़ी सुन्दरता से सूक्त का अन्त किया जाता है ।

मोक्षार्थियों के लिए अनेक सूक्तों में से एक, अथर्ववेद का १९।४३ सूक्त हमें कुछ सीखें तो देता ही है, परन्तु जैसे ब्रह्म के पास ही लाकर बैठाल देता है । शब्दों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है ?