वैदिक देव और सृष्टि

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक मन्त्रों में ‘देव’ शब्द के विभिन्न अर्थों पर सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पर्याप्त प्रकाश डाला है । इनमें से एक अर्थ में मुझे सांख्य में बताई सृष्टि-प्रक्रिया को निरूपित करने वाले दो वैदिक मन्त्र मिले । उन मन्त्रों पर और देव शब्द के अर्थ पर विचार इस लेख में किया जा रहा है ।  

प्राकृतिक देवों के विषय में मुख्यरूप से शतपथ ब्राह्मण १४।६।१-१०/बृहदारण्यकोपनिषद् ३।९।१-१० का प्रमाण है, जहां पर महर्षि याज्ञवल्क्य व विदग्ध शाकल्य के शास्त्रार्थ का वर्णन है । इसी अंश का विवरण महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में दिया है । इस प्रकरण का सार इस प्रकार है : महर्षि याज्ञवल्क्य बताते हैं कि एक प्रमाण के अनुसार देवों की संख्या ३३०६ होती है, परन्तु याज्ञवल्क्य ही कहते हैं कि यह बड़ी संख्या तो केवल देवों के माहात्म्य को बढ़ाने के लिए है, अन्यथा देव तो ३३ ही हैं – जिनमें गिने गए हैं ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य, इन्द्र व प्रजापति । ये ८ वसु हैं – अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, चन्द्रमा व नक्षत्र । प्राणियों का निवासस्थान होने से ये वसु कहलाते हैं । ११ रुद्र हैं – जीव के प्राण, अपान, व्यान, समान व उदान रूपी ५ मुख्य प्राण; नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनंजय रूपी ५ उपप्राण; व ग्यारहवां जीवात्मा । शरीर से निकलने पर ये सम्बन्धियों को रुलाते हैं, इसलिए इनका नाम रुद्र है । १२ आदित्य संवत्सर के १२ महीने हैं । ये प्राणियों की आयु को लेते जाते हैं (आददतीति आदित्याः), इसलिए इनको आदित्य कहते हैं । इन्द्र विद्युत् है जो मेघों से वृष्टि करवा के अन्न उत्पन्न करवाती है, जिससे जीवों का जीवन-ऐश्वर्य बढ़ता है; इसलिए वह इन्द्र है । प्रजापति को याज्ञवल्क्य ने पशु बताया है, जो कि मानवी प्रजाओं का पालन करते हैं; अथवा अग्निहोत्र आदि यज्ञों से भी सब प्रजाओं का पालन होता है; अथवा जीवों की विभिन्न क्रियाओं को भी यज्ञ मानें तो वे भी जीवन का आधार होती हैं । इन ३३ देवों में भी अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ ही अन्यों को उत्पन्न करते हैं अथवा उनके आलम्बन होते हैं, इसलिए कभी-कभी देवों की संख्या केवल ६ कह दी जाती है । इन ६ में भी पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यु लोकों की प्रधानता है क्योंकि शेष इनमें ही समाए हुए है, इसलिए ३ देव भी कहे जाते हैं[1] । यदि २ देव कहो, तो वे अन्न और प्राण होते हैं, क्योंकि वे जीवन के आधार होते हैं । उन २ में भी प्राण का ही प्राधान्य है, जिस कारण से वह अध्यर्ध, अर्थात् जिसके कारण सब जीव जीवन पाते हैं, कहा जाता है । इस प्रकार देवों की संख्याएं अनेक पाई जाती हैं, परन्तु उन सबका केन्द्रबिन्दु प्राणी है – जो भी प्राकृतिक पदार्थ जीवन के लिए अनिवार्य है, उसे देव संज्ञा दी गई है । तथापि, जैसा हम जानते ही हैं, यह केवल इस प्रकरण के अनुसार है, अन्यथा देव से परमात्मा, जीवात्मा, आदि, का भी ग्रहण होता ही है ।

प्राकृतिक देवों की ३३ संख्या तो कई वेदमन्त्रों में प्राप्त होती है । ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में महर्षि दयानन्द ने ही कुछ ऐसे मन्त्र उद्धृत किए हैं, यथा – ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो (ऋग्वेदः ८।२८।१), त्रयस्त्रिँशतास्तुवत (यजुर्वेदः १४।३१), यस्य त्रयस्त्रिंशद्देवा (अथर्ववेदः १०।७।२३,२७) । परन्तु शतपथ ब्राह्मण द्वारा बताई अन्य संख्याओं के प्रमाण-मन्त्र कुछ कम देखने में आते हैं । यहां अन्य संख्याएं देने वाला मुझे यजुर्वेद का एक मन्त्र मिला, जो कि इस प्रकार है –

त्रया देवा एकादश त्रयस्त्रिँशाः सुराधसः ।

बृहस्पतिपुरोहिता देवस्य सवितुः सवे ।

देवा देवैरवन्तु मा ॥यजुर्वेदः २०।११॥

ऋषिः – प्रजापतिः, देवता – उपदेशकाः

अर्थात् (त्रयाः) तीन, (एकादश) ग्यारह, (त्रयस्त्रिँशाः) तैंतीस देव (सवितुः) जगत् रचयिता व प्रेरक (देवस्य) परमात्मा के (सवे) बनाए ब्रह्माण्ड में (सुराधसः) अच्छे प्रकार सिद्ध करने वाले (बृहस्पतिपुरोहिताः) बड़ी पृथिवी, सूर्य, आदि, से पूर्व धारण किए गए (देवैः) इन देवों के साथ (देवाः) विद्वान्-रूपी देव/उपदेशक जन (मा अवन्तु) मेरी रक्षा करें ।

इस मन्त्र की व्याख्या में ३३ देवों की व्याख्या महर्षि ने इस प्रकार की है: “जो पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र ये ८ (वसु), और प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय तथा ग्यारहवां जीवात्मा (रुद्र), बारह महीने (आदित्य), बिजुली (इन्द्र) और यज्ञ, इन तैंतीस दिव्यगुण वाले पृथिव्यादि पदार्थों के गुण, कर्म और स्वभाव के उपदेश से मनुष्यों की उन्नति करते हैं, वे सर्वोपकारक होते हैं ।” स्पष्टथः, यह विवरण पूर्वोल्लिखित शतपथ ब्राह्मण के अनुसार ही है । ३ व ११ देवों की व्याख्या यहां प्राप्त नहीं होती । ‘देव’ के परमात्मा व विद्वान् अर्थ भी इस मन्त्र में द्रष्टव्य हैं ।

अब अगला मन्त्र देखते हैं –

प्रथमा द्वितीयैर्द्वितीयास्तृतीयैस्तृतीयाः सत्येन सत्यं यज्ञेन यज्ञो यजुर्भिर्यजूँषि सामभिः सामान्यृग्भिर्ऋचः पुरोऽनुवाक्याभिः पुरोऽनुवाक्या याज्याभिर्याज्या वषटकारैर्वषटकारा आहुतिभिराहुतयो मे कामान्त्समर्धयन्तु भूः स्वाहा ॥यजुर्वेदः २०।१२॥

ऋषिः – प्रजापतिः, देवता – विश्वेदेवाः

अर्थात् प्रथम वाले द्वितीयों के साथ जुड़ते हैं, द्वितीय वाले तृतीयों के साथ, तृतीय वाले सत्य के साथ, सत्य यज्ञ के साथ, यज्ञ यजुर्वेद के मन्त्रों के साथ, यजुर्वेद के मन्त्र सामवेद के मन्त्रों के साथ, सामवेद के मन्त्र ऋग्वेद की ऋचाओं के साथ, ऋचाएं पुरोऽनुवाक्यों (अथर्ववेद के मन्त्रों) के साथ, पुरोऽनुवाक्य याज्यों (यज्ञ-सम्बन्धी क्रियाओं) के साथ, याज्य क्रियाएं वषट्कारों के साथ, और वषट्कार आहुतियों के साथ । ये आहुतियां (और उसके साथ अन्य सब पदार्थ) मेरी कामनाओं को भली प्रकार सिद्ध करें – भू अर्थात् स्वयम्भू परमात्मा से यह (स्वाहा) प्रार्थना है ।

पिछले मन्त्र के साथ जब हम इस मन्त्र को पढ़ते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां ‘प्रथम वाले’ से पूर्व मन्त्र के ३ देव अभिप्रेत हैं, ‘द्वितीयों’ से ११ देव अभिप्रेत हैं और ‘तृतीयों’ से ३३ देव अभिप्रेत हैं, क्योंकि ये तीन तत्त्व ही पिछले मन्त्र में निर्दिष्ट थे । अब ये देव क्या हैं और मन्त्र में किन संयोगों की बात हो रही है? यदि हम प्रथम ३ देवों को शतपथ ब्राह्मण के अनुसार पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्यु लोकों को मानें, तो, उनके आरम्भिक तत्त्व न होने के कारण, वह ठीक न होगा । दूसरी ओर, यदि हम इन ३ को सत्त्व, रजस् और तमस् के अर्थ में पढ़ें, तो असम्बन्धित-से इन पदों की सूची के अर्थ एक के बाद खुलते चले जाते हैं, और मन्त्र का अर्थ सांख्य के ब्रह्माण्ड-सृजन के विवरण के समतुल्य पढ़ने लगता है !

वह इस प्रकार : सर्वप्रथम मूल प्रकृति के तीन धर्म विद्यमान थे – सत्त्व, रजस् व तमस् । ये ३ ‘देव’ ११ देवों में परिणमित हुए, जो हैं – संयुक्त बुद्धि-अहंकार-मन के साथ १० इन्द्रियां । ये ११ देव ३३ देवों में परिणमित होते हैं, जिनमें ५ तन्मात्र व ५ महाभूत के साथ १० प्राण, और पूर्व के ११ देव, परन्तु जिनमें बुद्धि, मन और अहंकार को पृथक्-पृथक् गिनने से यहां १३ पढ़ा गया है । ये ३३ देव साथ मिलकर प्राणी के शरीर के अंगभूत हो जाते हैं । इस अर्थ में बारह मासों आदि का योग सही नहीं बैठता, क्योंकि कालखण्डों की अपनी कोई सत्ता नहीं होती, वे हमारी समझ के लिए निर्दिष्ट किए जाते हैं ।

वह शरीर ‘सत्य’ अर्थात् आत्मा से जुड़ता है । प्राणी ‘यज्ञ’ अर्थात् क्रियाओं से जुड़ता है, क्योंकि वह प्राणी ही क्या जो कोई क्रिया न करे ! परन्तु, विशेषकर मनुष्य के लिए, यज्ञरूपी क्रियाएं श्रेष्ठ कर्म होती हैं जिनका बोध ‘यजुः, साम, ऋक् व पुरोऽनुवाक् = अथर्व’ नामक वेदों से होता है, जैसा कि मनु महाराज ने भी बताया है –

सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।

वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥मनुस्मृतिः १।२१॥

अर्थात्, मनुष्यसृष्टि के आदि में, वेदों के शब्दप्रमाण के द्वारा ही सब पदार्थों के नाम, कर्म और उनके बीच की विभिन्न व्यवस्थाएं पृथक्-पृथक् प्रकाशित हुईं । इस प्रकार वेदद्वारा मनुष्य उत्तम कर्मों से जुड़ता है ।

 धार्मिक क्रियाओं में भी श्रेष्ठतम हैं ‘याज्य’ = याज्ञिक क्रियाएं, जिनमें वषट्कार द्वारा आहुतियां दी जाती हैं । इन आहुतियों से इस (भूः) पृथिवी पर मेरा जन्म सफल होता है और मेरी सब शुभ कामनाएं सिद्ध होती हैं । इसलिए (पूर्व मन्त्र से) हे उपदेशक विद्वान् ! आप मुझे इन सभी अंशों का भली प्रकार उपदेश कीजिए ।

इस प्रकार मन्त्र में प्राणियों की उत्पत्ति व मनुष्यों के कर्तव्यों का हमें दिग्दर्शन प्राप्त होता है । इस तात्पर्य से हमें ‘प्रथमाः, द्वितीयाः, तृतीयाः’ के अर्थ पूर्व मन्त्र से अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, और हमें अपनी ओर से कुछ भी जोड़ने और ऊहा करने की आवश्यकता नहीं रहती ।

जबकि इस द्वितीय मन्त्र की व्याख्या महर्षि की व्याख्या से पर्याप्त अंश में भिन्न है, तथापि हम जानते ही हैं कि वेदमन्त्रों के एक नहीं, अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए दोनों ही अर्थ साधु हैं । विशेषरूप से यहां ‘सत्य’ से जीवात्मा का ग्रहण संशयात्मक प्रतीत हो सकता है, सो महर्षि ने ‘सत्य’ का यौगिक अर्थ करते हुए अनेकत्र कहा है – सत्सु साधु नित्यमविनाशनं वा (यजुर्वेदः १९।७३, ७६, ७८,७९, ऋग्वेदः ७।५३।१२, यजुर्वेदः ११।४७, आदि आदि) – अर्थात् जो नित्य और अविनाशी हो, वह सत्य कहाता है । यही नहीं, उन्होंने इस पद को मनुष्य पर भी घटाया है, जैसे – ऋग्वेदः १।६३।३, ४।२१।१०, आदि । इसलिए यहां भी इस मनुष्य और जीवात्मा के अर्थ के ग्रहण में कोई दोष नहीं है (मनुष्य इसलिए कि उपर्युक्त मन्त्र में वेदों से आगे के सभी पद केवल मनुष्यों के लिए सम्भव हैं) ।

इन दो मन्त्रों के इस प्रकार तात्पर्य करने से हम पाते हैं कि सांख्य-निर्दिष्ट सृष्टि-प्रक्रिया, जो आज तक बिना प्रमाण के थी, किस प्रकार वेदों में छिपी हुई है, और मन्त्र में निर्दिष्ट पदार्थों की असम्बद्ध-सी सूची किस प्रकार अचानक एक व्यवस्थित क्रम का निर्देश करने वाली हो जाती है, जो क्रम उसके पदों में स्पष्ट तो था, परन्तु जिसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था । इसी प्रकार मनुस्मृति, कल्पशास्त्रों, दर्शनों, आदि, में दी यज्ञविद्या, कर्मविद्या, आदि, अनेक प्रकार की सूक्ष्म विद्या, जिनका वेद में प्रमाण अभी तक पूर्णतया प्राप्त नहीं हो पाया है, खोजने से हमें अवश्य स्पष्टतया प्राप्त होगा, ऐसी आशा ही नहीं, अपितु मेरा निश्चित मत है !


[1] महर्षि दयानन्द ने यहां ‘लोक’ पद से स्थान, नाम व जन्म का ग्रहण किया है ।