हम सदा उन्नति करें

ईश्वर मनुष्य को उपदेश देते हैं – –

उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि ।

आ हि रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिर्विर्विदथमा वदासि ॥ अथर्ववेदः ८।१।६॥

ऋषिः – ब्रह्मा । देवता – आयुः ।

हे पुरुष (=जीवात्मा) ! तू सदैव ऊपर को जा, कभी नीचे मत गिर । जीने के लिए मैं तुझे दक्ष करता हूं (मैंने तुझे बल-बुद्धि-ज्ञान दिया है) । शरीर-रूपी मोक्षमार्ग पर ले जाने वाले इस सुखकारी रथ पर तू चढ़ और, वृद्धावस्था को प्राप्त करते हुए, सर्वत्र ज्ञानोपदेश कर ।

इस मन्त्र में बहुत सारे उपदेश हैं । मनुष्य का जीवन अपने स्वभाव, सामर्थ्य, ज्ञान को सुधारने के लिए है, न कि आलस्य, दुष्कर्मों या मदादि में गंवाने के लिए । इस मार्ग में अनेक व्यवधान आते हैं, उन सब में उसे अपने उत्साह को ऊपर रखना है, कभी हताश होकर नीचे नहीं बैठना है । इस जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष अर्थात् इस शरीर के बन्धन से मुक्ति है । उसको प्राप्त कराने के लिए प्रभु ने सब आवश्यक सामान दे दिया है, अब आवश्यकता है तो हमारे संकल्प और दृढ़ निश्चय की । प्रसन्नचित्त होते हुए, जीवन के सुखों को भोगते हुए, सदा प्रयासरत रहते हुए, हमें कुछ भी ऐसा नहीं करना है जिससे हमारी आयु कम हो । शरीर और इन्द्रियों की रक्षा करते हुए, हमें शत वर्ष तक जीने की कामना करनी चाहिए – जीवेम शरदः शतम् । वृद्धावस्था में चाहे अवश्य ही हमारा शरीर और इन्द्रियां शिथिल हो जाएं, तथापि हमने जिस ज्ञान को प्राप्त करने में सम्पूर्ण जीवन लगा दिया, उसे दूसरों में बांटते चलना है । इस प्रकार परमेश्वर इस मन्त्र में जीव को बहुत प्रोत्साहित करते हैं कि जीवन इतना भी कठिन नहीं है, इसके सुखों का आनन्द लो और व्यर्थ न गंवाओ !